कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश में साफ़-सफाई का माहौल बनाने का भरपूर प्रयास कर रहे हैं. कितने सफल हुए हैं, कहना कठिन है. हालांकि पूरी सरकारी मशीनरी झोंक दी गयी है, सत्ता पक्ष से जुडे सारे संगठन, राज्य सरकारें, और विभिन्न निजी संस्थाएं व कारपरेट जगत (शायद प्रधानमंत्री की नजरें इनायत पाने के लिए भी) और स्कूल-कालेज इस काम में लगे हुए हैं. चैनलों और अखबारों में बैनर लगा कर झाडू अभियान के फोटो चमक रहे हैं. पर अफसोस कि अब तक यह जन-अभियान का रूप नहीं ले सका है. जरा किसी शहर के आम मोहल्लों की हालत देख लें, पता चल जायेगा. सरकारी/गैरसरकारी अधिकारी-कर्मचारी फोटो चाहे जितना खिंचा लें, सफाई नहीं कर सकते. इसलिए कि यह उनके सहज संस्कार में नहीं है. और सदियों का यह संस्कार बदलने का न तो प्रयास हो रहा है, न यह इतना आसान है. ऐसे में यह सारा अभियान सरकार और मोदी की छवि चमकाने का अभियान जैसा बनता जा रहा है. खुद श्री मोदी भी मान चुके हैं कि हजारों गांधी और लाखों मोदी से भी यह काम नहीं होगा, जब तक आम आदमी की भागीदारी इसमें न हो. दूसरी ओर आज भी कहीं कहीं सर पर मैला ढोने की प्रथा जारी है; आये दिन सेप्टिक टैंक साफ़ करने के दौरान सफाईकर्मियों की मौत की ख़बरें आती रहती है; और सरकार की कोई प्रतिक्रिया तक नहीं मिलती. जाहिर है, लाखों की बात तो दूर, ‘एक भी’ मोदी सफाई के असल महत्व को नहीं मानता.

यह तो दिख ही रहा है कि मोदीजी को गांधी का यह विचार बहुत पसंद आ गया है और वे अपनी पसंदगी पर मुग्ध भी हैं, पर वे इतने आत्ममुग्ध-आत्मकेन्द्रित हैं कि उन्हें इस बात का भी ध्यान नहीं रहा कि यूएनओ ने वर्ष 2007 में गांधी के जन्म दिन (दो अक्टूबर) को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय किया था; उन्हें गाँधी की जो बात पसंद है बस उसका ही महत्व है. और आज गांधी का देश 2 अक्तूबर ‘स्वछता दिवस’ के रूप में मना रहा है. यूएनओ में इसे अहिंसा दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव भारत ने ही रखा था, जिसका समर्थन 140 से भी ज़्यादा देशों ने किया था. अब तो बहुत कम लोगों ने ध्यान भी दिया होगा कि इस बार भी पूरे विश्व में दो अक्टूबर को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाया गया! कहीं ‘अहिंसा’ के विचार से ही तो..

ऐसे में एक सहज जिज्ञासा यह उठती है कि क्या सचमुच यह अभियान देश को स्वच्छ बनाने और इस जन जन से जोड़ने के उद्देश्य के तहत चलाया जा रहा है? यह भी कि खुद मोदी के स्वच्छता के बारे में क्या विचार रहे हैं. बेशक आदमी के विचार बदलते रहते हैं, पर महज दस वर्ष पहले इस मामले में श्री मोदी के विचारों को जानना रोचक/प्रासंगिक होगा.

वर्ष 2007 में मोदी की एक किताब ‘कर्मयोग’ का प्रकाशन हुआ था. तब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे. इसमें आइएएस अफसरों के चिंतन शिविरों में दिये मोदी के व्याख्यानों का संकलन किया गया था. तब उन्होंने दूसरों का मल ढोने और पाखाना साफ करने के वाल्मीकि समुदाय के ‘पेशे’ को ‘आध्यात्मिकता के अनुभव’ के तौर पर बताया था. उनका कहना था : ‘मैं नहीं मानता कि वे इस काम को महज जीवनयापन के लिए कर रहे हैं. अगर ऐसा होता तो उन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी इस काम को नहीं किया होता… किसी वक्त उन्हें यह प्रबोधन हुआ होगा कि वाल्मीकि समुदाय का काम है समूचे समाज की खुशी के लिए काम करना. यह काम उन्हें भगवान ने सौंपा है, और सफाई का यह काम आंतरिक आध्यात्मिक गतिविधि के तौर पर जारी रहना चाहिए. इस बात पर यकीन नहीं किया जा सकता कि उनके पूर्वजों के पास अन्य कोई उद्यम करने का विकल्प नहीं था.’ गौरतलब है कि मोदी का यह वक्तव्य टाइम्स आफ इंडिया में 2007 के सितंबर माह में प्रकाशित भी हुआ था. (‘समरथ’, मई-जून, 2013 में छपे सुभाष गाताडे के लेख से)

बाद में आलोचना होने और तमिलनाडु के दलित संगठनों द्वारा मोदी का पुतला जलाये जाने के बाद श्री मोदी ने उक्त किताब की पांच हजार प्रतियां बाजार से वापस मंगवा लीं. मगर इस बाबत उनका विचार बदल गया है, इसकी कोई जानकारी नहीं है. वैसे इस प्रसंग के दो साल बाद भी सफाई कर्मचारियों की एक सभा में बोलते हुए मोदीजी ने कहा- ‘जिस तरह पूजा के पहले पुजारी मंदिर को साफ करता है, आप भी मंदिर की तरह ही शहर को साफ करते हैं.’ अब यदि उनकी राय बदल गयी हो, तो अच्छी बात है, फिर भी क्या उन्हें अपने उन ‘महान’ विचारों पर स्पष्टीकरण नहीं देना चाहिए? चूंकि उन्होंने अब तक सफाई नहीं दी है, तो यही मानना पड़ेगा कि सफाईकर्मियों के बारे में उनकी राय पूर्ववत है.