संतोषी की मौत के बाद सत्ता पक्ष और सरकारी तंत्र यदि इस विवाद में देश को उलझाये हुए है कि यह मौत भूख से नहीं, किसी रोग से, मलेरिया से, हुई है तो, आदिवासी जनता के हितैषी जोर शोर से यह साबित करने पर तुले हैं कि संतोषी की मौत भूख से, खाना नहीं मिल पाने की वजह से हुई है. चूंकि उसके पास आधार कार्ड नहीं था, इसलिए उसके परिवार को राशन पर अनाज मिलना बंद हो गया था. और इस वजह से उसकी मौत हो गई. दूसरे विवाद में उलझे लोग जाहिर है वे हैं ‘जो राईट टू फूड’ चलाने वाले गैर-सरकारी संस्थाओं से जुड़े हैं. देर सबेर वे ‘राईट टू वाटर’ और ‘राईट टू एयर’ का भी आंदोलन चलायेंगे, क्योंकि विकास की जो दशा और दिशा है, उसमें आने वाले दिनों में पानी और हवा भी दुर्लभ वस्तु बन जाने वाली है. और पैसे वाले तो मास्क पहन कर पटाखे छोड़ लेंगे, गरीब के पास मास्क खरीदने का पैसा नहीं होगा.

लेकिन राजीनीति के इन दो सवालों से इतर कई सवाल है जो हमारे मन में सहज रूप से उठने चाहिए और जो नहीं उठ रहे हैं. मसलन, मलेरिया से मरना भूख से मरने से कमतर होता है?

क्या कुपोषण और लंबे समय तक कमतर खाना और एक दिन किसी का मर जाना कम दुखदायी है?

क्या हम नहीं जानते कि विकास के तमाम दावों के बावजूद हकीकत यह है कि हमारा देश भूख के सौवें पायदान पर है और प्रति हजार शिशुओं में से 48 पांच वर्ष से अधिक उम्र तक नहीं जिंदा रहते? और इसलिए भूख से जब कोई मौत होती है तो अचानक हम नींद से जागते हैं.

क्या आदिवासी समाज या किसी भी समाज में यदि भूख से पड़ोस के किसी बच्चे की मौत होती है तो सिर्फ सत्ता-सरकार ही जिम्मेदार है, समाज नहीं?

या फिर यह भी संभव है कि सिर्फ संतोषी ही नहीं, उसका पूरा समाज ही गंभीर संकट से, भूख के दौर से गुजर रहा हो?

सबसे अहम सवाल यह कि अब सरकारी राशन के सहारे ही आदिवासी समाज जिंदा रहेगा? वे कौन सी परिस्थितियां हैं कि जिसमें सरकारी खैरात पर ही आदिवासी समाज जिंदा रहने के लिए मजबूर होता जा रहा है?

आईये, हम सौ डेढ सौ वर्ष पहले दो जर्मन मिशनरी द्वारा आदिवासी इलाके के खान-पान पर के एक ब्योरे को देखें. यह ब्योरा जर्मन मिशन इंसपेक्टर एच. काउश और मिशनरी एफ.हान के द्वारा 1845 के आसपास लिखी उनकी पुस्तक से ली गई है:

आदिवासियों की प्रतिदिन की रोटी है चावल, कौन इसे नहीं जानता! इसके अलावा उन्हें ढेर सारे दाल- दलहनी फसलें- और करी- तीखे मसालों सहित मांस और सब्जी का मिश्रण-खाना पसंद है. यह खाना वास्तव में दिन का मुख्य खाना है जो ऐसी बेला में लिया जाता है, जैसे हम अपने देश में ‘शाम की रोटी’ लेते हैं. यही समय है जब दिनभर की कड़ी मेहनत को समाप्त किया जाता है और परिवार के युवा सदस्य भागते हैं अखरा की तरफ, जो आदिवासी प्रकृति का विजय स्थल है.

यह ब्योरा दक्षिणी छोटानागपुर का ही है और किसी व्यक्ति विशेष या परिवार का नहीं, आदिवासी समाज का है. इससे इतना पता चलता है कि आदिवासी समाज उस वक्त भरसक खुशहाल था. उसकी थाली में चावल, वह भी किसी राशन दुकान का नहीं, अपने खेत का होता था और साथ ही दाल और करी भी. उसकी अर्थ व्यवस्था खेती और वनोत्पाद पर निर्भर करती थी. और भूख से किसी की मौत शायद नहीं होती थी. इसके प्रमाण इस बात से भी मिलते हैं कि 19वीं सदी के भीषण अकाल में जब बंगाल में लाखों लोग भूख से मर गये, उस वक्त भी आदिवासी इलाके में भूख से मौत नहीं हुई. उसी दौर में तो बंगाल से सूरी और मंडल समाज के लोग आदिवासी इलाकों में जीवन यापन के लिए आये थे.

जर्मन मिशनरियों द्वारा लिखित उस किताब का एक और अंश दिलचस्प है और उससे आदिवासी समाज की संपन्नता नहीं, खुशहाली का चित्र मिलता है:

आदिवासी औरतें अपने गहनों के बारे में काफी ध्यान देती हैं. वे लोग कानों में चमकदार दर्पण लगाती हैं जो एक छोटे किंतु मोटे पाईप के अंत में जड़ा रहता है. कान के लोकली में ठूंसा पाईप कानों को भयानक चैड़ा कर देता है और उसमें झूल जाता है. नाक के बगल में नथ, गले में हंसली और बाहों में मोटी चूड़ियां हम देखते हैं. इसके अलावा आदिवासी औरतें अंगूठे में अंगूठी पहनती हैं लेकिन हिंदू औरतों की तरह पैरों में पाजेब नहीं पहनती हैं. गले में गनहनों की प्रचूरता से पूरी छाती ढक जाती है, छाती के गहने सिर्फ स्नान के समय ही नीचे रखे जाते हैं. ये गहने समझो छाती ढकने के लिए कपड़ों का काम करती हैं.

यह ब्योरा उस वक्त का है जब आदिवासी समाज में ईसाईयत का प्रचार शुरु ही हुआ था. यानी, हम एक ऐसे समाज की बात कर रहे हैं जो ईसाई और सरना में कथित रूप से विभाजित नहीं हुआ था.

जरा गौर से देखिये इस मनोरम ब्योरे को. एक ऐसे समाज को जिसकी थाली भरी होती थी, जिनकी औरतों के जिस्म पर न सही सोने के, चांदी और गिलट के आभूषण होते थे. किसने छीन ली थाली से गाढ़ा दाल, मसालेदार सब्जी और मांस? किसने नोच लिये आदिवासी औरतों के जिस्म के वे आभूषण?

गौर से देखिये और पहचानिये उन दुश्मनों को जो विकास के नाम पर आपसे सब कुछ छीनता जा रहा है और आपको दिन रात बताता रहता है कि धर्मांतरण संकट है. और जो आपस में लड़वा कर अपनी सत्ता को मजबूत कर रहा है ताकि अदानी, अंबानी को आपकी जल, जंगल, जमीन कोड़ियों के मोल दे सके, उनसे आप उम्मीद करते हैं कि वह आपको रोटी देगा?

और क्या आदिवासी समाज अब वहां पहुंच चुका है कि वह जिंदा रहने के लिए सरकारी खैरात खैरात का मोहताज रहे? यह उनकी गहरी साजिश है कि वे आदिवासियों का सबकुछ छीन लें और उनके हाथ में राशन कार्ड थमा दें..

तो, राशन कार्ड की लड़ाई राजनीतिक दलों को लड़ने दीजिये, सरकारी अनाज की लड़ाई ‘फूड फार वर्क’ चलाने वाले एनजीओ सेक्टर को, आप तो अपने अस्तित्व की लड़ाई, जल, जंगल, जमीन की लड़ाई के लिए कटिबद्ध होइये.