67 वर्षीय झब्बो बाई कहती है कि हमारे समुदाय के लोगो का शहरों में आना महज़ इत्तेफाक या अपनी मर्ज़ी से गांव— जंगल छोड़ना नहीं रहा है. जंगल ज़मीने सरकार की हो गई, हम खदेड़े गए और बेघर हो गए, तो निकल पड़े शहरों की ओर. हमारे ज़मीनों से बेदखल होने की कहानी बहुत कुछ विस्थापन की कहानी जैसी है, हो भी क्यों ना विस्थापन की ही देंन हैं ये.

शहर में आना और रोटी की गुज़र बसर के लिए प्रयास करने की अपनी ही गाथा है, जिसकी भुगतान हम आज तो भुगत ही रहे हैं और ना जाने हमारी आने वाली कितनी पीढ़ियां और इसको भुगतेंगी. या पता नहीं कहीं तब तक हमारी नस्लें इससे उबरने के बजाये इसकी ज़द्दोज़हद में डूबकर ही ना रह जाऐ.

हमारे लोगो ने शहरो की और रुख किया तो शहर को अपनाया भी. पर इन शहरों ने हमें कभी नहीं अपनाया.

ये कहानी शुरू हुई हमारे पारधी समुदाय के लोगो के शहरों में आने के पहले. हम लोग भोपाल के आस पास के जिलों में गांव से कुछ दूरी पर जंगलो में डेरा लगा कर रहते आये. हर पंद्रह दस दिन, महीने— दो महीने में हम अपने डेरे बदलते रहते. गांव के बाहर जंगली इलाकों से शिकार लाते. मिलकर बनाते और खाते. हमारी महिलायें, जंगलों से लाई हुई जड़ी बूटियों को गांव में जाकर बेचतीं. इसमें भी हमारे काम का बंटवारा नहीं था. दोनों लोग कोई भी कुछ भी काम कर सकते थे. वे कहती हैं कि हमारे लोग ये सब काम आनंद के साथ करते थे. पर अब शहरों में आने के बाद तो जैसे सब ख़त्म हो गया.

में पैंतीस [ 35 ] वर्ष पहले भोपाल आई. हमने अपने डेरे भोपाल से 10-15 किलो मीटर दूर लगाये. जब हम नहीं जानते थे, ये फिर शहर बन जायेगा और हम यहाँ से भी निकाले जायेंगे ..खैर, खदेड़ा जाना तो हम पारधियों के नसीब का लिखा है. तब से आज तक हम रोटी कमाने के लिए दर दर भटक रहे हैं. मैं भी पहले अपने समुदाय की ओरतों की तरह ही पन्नी बीनती आई हूँ,और कुछ है भी नहीं हम पारधियों को शहर में कमाने के लिए. अभी 10 सालों से मांग के खा रही हूँ. मेरे उम्र की सब औरतें, जो अब बीन के कमा नहीं सकती, वे अब मांग के खाती हैं.

25 वर्षीय कुँवरपाल बचपन में पन्नी बीनने का काम करता था. अभी वह मनिहारी का काम करता है. कुँवरपाल कहता है— ‘हम कब तक बीनते रहेंगे. हमारे लिए तो कुछ काम ही नहीं हैं. मैं भी अपनी खुद की दुकान करना चाहता हूँ. मैं अपने बच्चों को बीनने नहीं भेजूंगा, इसलिए मैं और पत्नी चांदनी, दोनों धागा, अंगूठी, छल्ले [मनिहारी] की दुकान लगाने जाते हैं. कुँवरपाल कहता है कि मैं दस साल से अपनी जरा सी दुकान के लिए जगह बनाने की कोशिश कर रहा हूँ, पर आज तक बना नहीं पाया हूँ. कभी कभी लगता है गांव वापस भाग जायें, पर करेंगे क्या वहां? यही सोचते हैं. दुकानदारी करना हमाई जात वालो के लिए आसान काम नहीं. आये दिन नगर निगम के लोग या तो हमारी दुकानें अतिक्रमण में कह कर या तो फेंक जाते हैं या फिर भरकर ले जाते हैं. इतना ही नहीं, जब हम अपनी दुकान का माल वापस लेने जाते हैं, तो पूछा जाता है, कहा से भर लाये? चुरा के लाये थे क्या? बिल लेकर आओ. तुम पारधी कब से दुकानदारी करने लग गए. ये व्यवहार बार बार हमें हमारी जात याद दिला देता है. वे नहीं जानते, हमने इस माल को भरने में कितनी मेहनत की होती है. हमें यहाँ के लोकल साहूकार 5 रूपये सैकड़ा के हिसाब से ब्याज पर पैसे देने को तयार होते हैं, वे भी हम पर आसानी से यकीन नहीं करते. हमारा राशन कार्ड या हमारे ज़रूरी दस्तावेज़ वे गिरवी के तौर पर अपने पास रख लेते हैं. तब जाकर 10 – 20 हज़ार उधार उठाकर हम अपनी मनिहारी का सामान भरते है, जिसको बेचने के लिए जगह मिलना मुश्किल. और कभी कभी हमारी भाषा भी हमारे ग्राहकों को हमसे दूर कर देती हैं. वे क्या चाह रहे होते हैं, ये हम समझ्ते हैं. पर वो हमारी भाषा सुन कर ही हमें अलग समझते हैं ..जब कोई और भी हमें सुनने समझने की कोशिश नहीं करता है, तब भी लगता है कि हम शहर के इस हिस्से में पहले से आये, पर व्यवस्था और बाकी लोगो ने आकर हमें दुत्कारा है. इन शहर के लोगों ने कभी हमें अपना माना ही नहीं.

35 वर्षीय बनुकुंअर और रूपराज कहते है कि पूरी ज़िन्दगी इस कचरे के साथ रहते हुए ही बीती जा रही. हम सब जंगलो में ताज़ी और शुद्ध हवा में खुले हुए जीने वाले लोग रहे हैं, हमारे यहां लोग लम्बी लम्बी उम्र जीते थे. अभी तो सब कचरे के साथ ही समय बीतता है, पेट भरना है तो सुबह तडके ही निकलना होता है बीनने के लिए. फिर पन्नी, पुष्ट, कागज़ अलग अलग करना और जरा—जरा से लोहे के तार के टुकडो के

लिए प्लाटिक जलाना, बल्ब का कांच तोडकर निकालना, इन सबमें ही पूरा दिन बीतता है. तब जाकर हम शाम रोटी खा पाते हैं. हमारे तडके उठकर बीनने जाने से पुलिस को लगता है कि हम चोरी के लिए सुबह तडके निकल रहे. वो ये नहीं समझते कि हम बीनकर लायेंगे, माल छांटेंगे, साफ़ करेंगे, तभी तो बेच पाएंगे. ऐसे तो कबाड़ी भी नहीं लेता. हमको भी लगता है सुबह चाय पीनी है, बच्चे भी सोकर उठेंगे तो कुछ खाने को नहीं मांगेंगे? हमने सुन रखा है साहब लोग तो बिस्तर पर ही चाय पीते हैं. हमको 12 बजे तक भी पीने का हक नहीं है क्या? हम तडके न जायें, तो क्या करे? और कुछ है भी नहीं हमारे लोगो के लिए शहरों में करने को.

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