हम देख रहे हैं कि दिन ब दिन सियासत के साये में, तार तार होती भोपाली तहज़ीब और खासतौर पर बेगमों की शान में पढ़े जाने वाले कसीदों की, सरज़मी पर खाक़ होती जनानियों की आबरू. हाल ही में मौजूदा माहौल के मद्देनजर यह ख्याल आया कि क्या यह भोपाल की तहज़ीब को बनाये रखने के लिए मुनासिब है? यह सवाल है भोपाल में खुद को असुरक्षित महसूस करती जनानियों (महिलाओं) के. पिछले चार माह में 70 बलात्कार! क्या भोपाल का इतिहास ऐसा ही रहा है? इन्हीं कुछ सवालात के साथ हमने भोपाल के पुराने

रहवासियों के साथ बातचीत की. उनके साथ हुई बातचीत को हमने यहाँ उनकी जुबानी भी लाने की कोशिश की है. इन हालत के लिए बदलती सियासी हवा को लोगों ने ख़ास ज़िम्मेदार ठहराया. बात करने पर पुराना शहर, शहज़नाबाद भोपाल के निवासी 69 वर्षीय ऑटो चालक कमाल मोहम्मद खान बीते दिनों को याद करते हुए बताते हैं : ‘तब सिर्फ सियासत के किस्से पटियों पर सजनेवाली महफ़िल का हिस्सा होते थे, जिनका जिक्र तो होता था जो चाय की चुस्कियो के साथ महफ़िल को गहमा देता था. लेकिन कभी उसने माहौल में गर्मी पैदा न होने दी, जैसी आज आग भभकती है. कभी औरतों पर शोले बरसते हैं, तो कभी मज़लूमों पर.’ 70 साल की उर्दू की उस्तादन रईसा बेगम याद करते हुए कहती हैं : ‘शेर ओ शायरी व अदब के लिए जाने जाने वाली झीलों

की नगरी में भोपाली तहज़ीब की लहरें गौते खाती थीं.’ अलग-अलग लोगो ने बलात्कार की बढ़ती मुश्किलात पर बात करते हुए सीधे सियासत पर भी सवाल खड़े किये. लोगो की बातचीत से समझ आया कि सामाजिक माहौल के बदलने में कितनी अहम् भूमिका है सियासत की. इन दिनों तमाम तरह के हालात बने हैं जो इन सब मसलों के ज़िम्मेदार हैं. जैसे गैस त्रासदी हादसे के बाद से भोपाल में आस पास के इलाकों से अप्रवासियो की आमद तेज़ी से बढ़ी है. इस दौरान सियासी दलों-जमातों ने इसमें ख़ास तरह की भूमिका अदा की है. शहर

में आमद से आबादी बढ़ी, शहर आबाद होता गया. कब पुराना शहर नये शहर में तब्दील हो गया, पता ही न चला. जैसे जैसे नया शहर आबाद हो रहा था, इलाके भी तय हो रहे थे. सियासतदार जैसे इसी फ़िराक में थे- शहर दो हिस्सों में बंट गया. अप्रवासी खाली इलाकों में बसने लगे. इन बसाहटों में तमाम किस्मे देखने को मिलते. अभी तक भोपाल शहर की फिज़ा में गंगा-जमुनी कही जाने वाली तहज़ीब की महक मौजूद थी. सियासत अब ज़ोर् पकड़ रही थी. कब मज़हबी सियासत को तूल मिला, ये समझने का मौका ही न मिला. पुराने शहर में बाबा आदम के ज़माने से साथ में पान की गिलोलिये चबाने वाले यार-दोस्तों ने अब अपने मकानों के सौदे कर नये शहर की ओर रुख़ कर लिया. हालांकि कारोबारी इलाकों में उतना फर्क देखने को नहीं मिलता. बाकी

चुनिन्दा वे परिवार, जिनकी जड़ों को सियासत हिला न सकी, वे रिश्ते आज भी कायम हैं. इससे बटे हुए इलाकों में आबादी, तालीम, रोज़गार और उन्नति का भी फ़र्क साफ़ तौर पर देखने को मिला. पुराने शहर की तरक्की को जैसे ताले लग गये. इसका अंदाज़ा तालीम की बेहतरी, बदहाल सड़कें (हालांकि सियासतदानों के गुजरने वाले रास्तों जुडी कुछ सडकों को तरतीब से संवारने की कोशीश हुई है. वही शहर का दूसरा हिस्सा हुकूमत के दरबारों से लबरेज़ है, कारोबारी उन्नति भी खासी बेह्तर है. हालांकि इन सभी की आलीशान इमारतें उन इलाको में बसने वाले मज़लूमों की ज़मीन पर खड़ी की गयीं, जिसका खामियाजा भी उन मज़लूमों ने भुगता है. शहर में सियासी उथल पुथल ने सिर्फ भोपाल की तहज़ीब को ही नहीं, बल्कि आबरू को भी नहीं बख्शा!

सियासत की मजलिसों में ज़माअत को जुटाने के लिए, बेखौफ आजादी का यकीन भी दिलाया, जिससे आदमीजात (पितृसत्ता) को ख़ास तरह का बढावा मिला, अपराध दर दिन-ब-दिन बढ़ने लगी. कुछ ख़ास तरह के अपराध भी उजागर होने लगे, जिनमें से एक बलात्कार भी है. हालाँकि बलात्कार की घटनाओं की और भी ख़ास वजहें रही है, जिनमें से अश्लील सामान की खरीद-फरोख्त और मज़हबी सियासत, इसके ख़ास ज़िम्मेदार हैं. अश्लील सामानों का कारोबार चंद वर्षों में खूब फला-फूला है, और इसी दौर में मज़हबी सियासत ने धीरे धीरे अपनी जड़ों को गहराई में उतारा है, जिसका खामियाजा, खासतौर पर वंचित तबकों से जुड़े बच्चे और औरतें भुगत रही हैं.

कुछ लोग आज के दौर की मज़हबी सियासत को बलात्कार और बलात्कार को बढावा देने वाली ताक़त के रूप में सियासी ज़मातों को ज़िम्मेदार ठहराते हुए भोपाल शहर की तहज़ीब और उसकी धज्जियां उडाती बलात्कार जैसी वारदातों से औरतों के मुस्तकबिल से जोड़ते हैं, जो गलत भी नहीं है. इन हालात से फिक्रमंद होना वाकई जायज़ है.