एक समय, जब बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी की सक्रियता अपने शबाब पर थी, और देश-भर में मंदिर-मस्जिद विवाद ने तनावपूर्ण आयाम ग्रहण कर लिया था, सैयद शहाबुद्दीन मेरे पटना निवास पर आकर मुझे अपनी तहरीक के राजनीतिक निहितार्थ समझाने लगे। बातचीत के दौरान, उन्होंने भारत के संविधान के कई अनुच्छेदों का हवाला दिया और यह साबित करने की कोशिश की कि भारतीय मुसलमानों की हैसियत ‘गई-बीती’ हो गई है। उनका कहना था, क़ानून और संविधान की संरचनाएं न तो उनकी जान की सुरक्षा कर रही हैं और न उनके मज़हब और तहज़ीब की। अपनी दलीलों के प्रति गंभीर रूप से ‘आग्रही’ होकर वो बार-बार अंग्रेज़ी में ‘मुस्लिम कल्चर’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहे थे।

कुछ देर तो मैं उनकी बातें धैर्यपूर्वक सुनता रहा, पर जब उनकी दलीलों का तापमान बढ़ने लगा तो मुझे कहना पड़ा: आपने कभी देश-भर में दलितों और आदिवासियों, साथ में पसमांदा मुस्लिम समुदायों के प्रति संवैधानिक प्रावधानों की ‘लुक्का-छिप्पी’ के खेल पर ग़ौर किया है। ग्रामीण बिहार के एक बड़े हिस्से में निजी सेनाओं के उत्पात पर आपकी नज़र है। आपने कभी मध्य बिहार में घट रहे जन-संहारों का ज़मीनी सतह पर, बारीकी से, अध्ययन करने की ज़हमत उठाई है। आपके साथ दिक्क़त ये है कि आप संविधान के दायरे में जो आज़ादी किसी एक ख़ास समुदाय के लिए चाहते हैं, वही आज़ादी आप अन्य समुदायों को नहीं देना चाहते। अपनी ‘आस्था’ को ‘केंद्रीय’ महत्व देते समय आप इतने ‘आग्रही’ और ‘उग्र’ हो जाते हैं कि बाक़ी की सभी ‘आस्थाएं’ आपकी नज़र में ‘महत्वहीन’ दिखने लगती हैं। ये दरअसल भारत के संविधान की मूल आत्मा के प्रति आपके ‘इकहरे’ दृष्टिकोण का ही परिणाम है।

जैसा कि अपेक्षित था, मेरे तर्क सैयद शहाबुद्दीन को रास नहीं आए। उनकी एक उत्तेजक टिप्पणी ने उस दिन हमारी बातचीत के तमाम रास्ते बंद कर दिए थे। तब से हमारी-उनकी राजनीतिक वार्ता का कोई सिलसिला ही नहीं बन पाया। हालांकि, बाद के दिनों में, अल्पसंख्यक आयोग को कानूनी दर्जा दिलाने और उर्दू को विधान परिषद् में ‘सदन की भाषा’ की मान्यता सुनिश्चित करने जैसे मेरे कई फ़ैसलों ने मेरे प्रति उनके विचारों में सकारात्मक बदलाव के संकेत दिए थे।

मुमकिन है, दलित और पसमांदा मुस्लिम आबादियों को न्याय दिलाने के प्रति मेरी कठोर प्रतिबद्धता ने भी उनके विचारों में आए इस बदलाव के पीछे कोई भूमिका निभाई हो।

मैंने अक्सर पढ़े-लिखे लोगों और राजनीतिकर्मियों को संविधान को ‘धर्मग्रंथ’ जैसी संज्ञाओं से याद करते हुए देखा-सुना है। ऐसे अवसरों पर, मेरा मन अपनी सहजता खोने लगता है। इस प्रकार की व्याख्या, धर्मग्रंथों के प्रति हमारी ‘व्यावहारिक उदासीनता’ का भेद तो खोलती ही है, संविधान की सच्ची और मौलिक सापेक्षता के विचार को भी खंडित कर देती है। आख़िर हम में से ज़्यादातर लोग अपने धर्म-ग्रंथों को सुनहरे ग़िलाफ़ से ढंककर घर की दीवारों के बीच किसी पवित्र कोने में हिफ़ाज़त से रखकर निश्चिंत हो जाते हैं। क्या संविधान भी इसी प्रकार हमारे नए-पुराने घरों की टूटी दीवारों के किसी कोने में रखे जाने लायक़ कोई सामग्री है! दरअसल, एक बार, इसे किसी पवित्र ग्रंथ का दर्जा दे देने मात्र से ही लोकतांत्रिक समाज में जन-आकांक्षाओं के स्वाभाविक उभार पर पाबंदियां लगाने की प्रक्रिया आसान हो जाती है।

सन् 1999 में, एक आधिकारिक सूचना-विवरणी के अनुसार, भारत के संविधान की ‘मूल सुलिखित प्रतिलिपि’ प्रकाश में आई थी। इसे शांतिनिकेतन के ख्यात चित्रकार नन्दलाल बोस ने सुरुचिपूर्ण तरीक़े से सजाया और अलंकृत किया था। उन्होंने यह कार्य चार वर्ष की अवधि में पूरा किया था। इसके लिए मोहनजोदड़ो और वैदिक काल से आरंभ होकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम तक के निदर्श-चित्र भारतीय इतिहास से लिए गए थे। सजावट का कार्य प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सुझावों के अनुसार निष्पादित करते हुए किनारों पर नक्क़ाशी असली सोने के स्प्रे द्वारा की गई थी। नंदलाल बोस ने इस प्रतिष्ठित दस्तावेज़ के 221 पन्नों में कला और इतिहास का एक अनोखा सम्मिश्रण करने का कठिन कार्य पूरा किया था। संविधान की इस मूल सुलिखित प्रतिलिपि को वैज्ञानिक पद्धति से संरक्षित रखने के लिए नाइट्रोजन से भरे एक पात्र में सावधानीपूर्वक रखा गया है।’

इस अतिमहत्वपूर्ण दस्तावेज़ में 22 निदर्श-चित्रों का उपयोग किया गया है, जिन में हैं-मोहनजोदड़ो काल की मुहर, वैदिक आश्रम गुरूकुल, रामायण का दृश्य (राम की लंका पर विजय और सीता का उद्धार), महाभारत का दृश्य (गीता कथन), बुद्ध एवं महावीर के जीवन की झांकी, सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के प्रसार का दृश्य, गुप्त काल की कला, विक्रमादित्य का राजदरबार, नालंदा विश्वविद्यालय, उड़ीसा की मूर्तिकला, नटराज, महाबलिपुरम, अकबर का चित्र और मुग़ल वास्तुकला, शिवाजी और गुरू गोविंद सिंह के चित्र, टीपू सुल्तान और लक्ष्मीबाई के चित्र (ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह), दांडीमार्च, नोआखाली-यात्रा, सुभाषचंद्र बोस, हिमालय, रेगिस्तान और महासागर के दृश्य। दस्तावेज़ के अंतिम पृष्ठों पर राजेंद्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, भीमराव आंबेदकर, अबुल कलाम आज़ाद समेत सारे लोगों के हस्ताक्षर हैं।

मुझे अफ़सोस है कि इस ऐतिहासिक दस्तावेज़ तक आम जन की पहुंच नहीं हो पाई। भारत सरकार ने इसकी मात्र 1200 प्रतियां छपवाईं। ख़ुद मुझे इसकी एक प्रति लोकसभा के तत्कालीन महासचिव श्री जी सी मलहोत्रा ने इसलिए भेंट की थी कि मैं, उन दिनों, किसी धारासभा का प्रमुख था और संविधान के व्यावहारिक पक्ष में मेरी गहरी रुचि थी।

सच्चाई यह है कि भारत का संविधान, भारत के ढेर सारे कानूनों की तरह, आम जन का संविधान नहीं बन पाया है। इसके प्रावधानों की व्याख्या-पुनर्व्याख्या का दायित्व आज भी थोड़े-से पढ़े-लिखे लोगों तक सीमित है। यह उन्हीं थोड़े-से ‘बुद्धिमान’ लोगों का ‘स्वर्ग’ बनकर रह गया है। इसकी खुली-अनखुली खिड़कियों से विरोधाभासी स्थापनाएं हमारे सामाजिक जीवन में हर दिन दावे-प्रतिदावे का एक घटाटोप निस्तारित करती रहती हैं। शायद भारत के संविधान की इसी अपर्याप्तता को महसूस करते हुए कुछ वरिष्ठ समाजवादी बौद्धिकों ने एक ‘समांतर’ संविधान की रूपरेखा पेश की थी। तब यह विचार किसी ने स्वीकार ही नहीं किया, ग़ौर करने लायक़ भी नहीं समझा।

आज यह देखकर किसी को भी अफ़सोस होगा कि देश के कई हिस्सों में, संवैधानिक प्रतिज्ञाओं के बावजूद, शासन के विभिन्न निकायों में कतिपय वर्जनाओं की खिल्ली उड़ाने की घटनाएं आम हो गई हैं। सहमति-असहमति के अधिकारों को भी खुलेआम चुनौती दी जा रही है। ऐसे तत्व प्रभावी भूमिका में हैं, जो सामाजिक जीवन से जुड़े सवालों को भी निजी ‘आस्था’ की कसौटी पर तौलने लगे हैं। यह स्थिति किसी एक समुदाय तक सीमित नहीं रह गई है। कौन कितना आगे है, कौन कितना पीछे, यह तय करना कठिन है। संविधान की निरापद् व्यवस्थाएं ऐसे तत्वों के आगे झुकती महसूस हो रही हैं। नौबत यहां तक आ गई है कि स्वयं राष्ट्रपति को सार्वजनिक मंच से देश की न्याय-व्यवस्था पर अप्रिय टिप्पणी करनी पड़ रही है।

इन प्रवृत्तियों का खुला संदेश यही है कि समाज के उपेक्षित वर्गों के अधिकार सुरक्षित नही रह गए हैं, और वो अब भी न्याय से वंचित हैं। हमारे समय के राजनीतिक-सामाजिक इतिहास का यह अध्याय किसी एक पीढ़ी की विफलता का संकेत नहीं। इसके पीछे, आज़ादी के बाद से अब तक, सत्तासीन विचारधाराओं की ‘बेजड़’ कल्पनाओं का सामूहिक योगदान रहा है। अपनी विरासत के प्रति गंभीर रूप से उदासीन विचारधारा अपनी जटिल समस्याओं को हल करने के लिए कई प्रकार के अप्रासंगिक नमूनों को भी आज़माती रही है। विकास की अधपकी अवधारणाओं के पीछे भागते रहने से हमारी विरासत के बहुमूल्य तत्व यूंही बिखरते गए हैं। स्वाभाविक तौर पर, हम एक बड़े रेगिस्तान की ओर बढ़ते जा रहे हैं, जहां हमें सांस लेने के लिए भी लाख जतन करने पड़ते हैं।

इन संकेतों का अर्थ कदापि यह नहीं कि हमारे सारे संकल्प दृष्टिहीनता का शिकार हैं। हमने विश्व-अनुभवों से काफ़ी-कुछ सीखा है, लेकिन ऐसा करते समय हम अवश्य ही अपने आपको उन ऐतिहासिक संदर्भों से जोड़कर नहीं रख पाए हैं, जिन्हें हमने संविधान के सुनहरे पन्नों पर निदर्श-चित्रों की तरह सजाया है, और जिन्हें संविधान के मूल्यवान अनुच्छेदों के बीच उकेरने में भारत के अनेक मेधा-संपन्न कलाकारों का ख़ून-पसीना बहा है। भावनाओं के अतिरेक में, हम उन उदात्त आदर्शों को भी तिलांजलि दे बैठे हैं, जिन से हमने भारत के संविधान की खूबसूरत नक्क़ाशी और उसके रूपरंग को संवारने का काम लिया है।