नया वर्ष आ गया. उम्मीदों का नया वर्ष. आदतन हम सब एक दूसरे को को नव वर्ष की बधाई देते हैं. ‘आपका जीवन सुखमय हो.’ ‘आपका जीवन मंगलमय हो.’ आदि आदि. इसमें बुरा कुछ नहीं. लेकिन कठोर यथार्थ तो यह है कि हमारा जीवन तभी सुखमय हो सकता है, मंगलमय हो सकता है, जब हमारा समाज भी सुखी हो. हमारे आसपास का वातावरण भी मंगलमय हो. और ऐसा नहीं है. यह हम सब जानते हैं. हमारे चारो ओर घोर अराजकता का वातावरण है. भीषण दुःख और क्लेश है. और है भयानक गरीबी और विषमता, जिसके रहते हमारा जीवन भी सुखमय नहीं हो सकता. इसको बदलना होगा. और यह सिर्फ हमारी सद्इच्छा से नहीं हो सकता. उसके लिए तो दृढ संकल्प चाहिये. सामूहिक दृढ संकल्प.

हम सबने एक स्वायत्त दुनियां बना ली है. इसमें हमारे परिजन हैं, समान धर्मा मित्र हैं. वह दुनियां बहुत बड़ी नहीं. उसमें भी छोटे-मोटे अंतरविरोध हैं. बावजूद इसके, हमारी आपसी एक अंडरस्टैंडिंग है. हम इसमें ही विमर्श चला कर खुश रहते हैं. संतोष देते हैं और पाते हैं कि हम भले लोग हैं. लोकतंत्र और समानता में हमारी आस्था है. हम भरसक ईमानदारी और समानता में विश्वास करते हैं. विचार अभिव्यक्ति के अधिकार को अमूल्य मानते हैं. हममें छोटी मोटी तकरार होती है, लेकिन कुल मिलाकर हम समता, सादगी और सदाचार में आस्था करने वाले लोग हैं.

लेकिन हमारे आसपास की दुनियां तेजी से बदल रही है. पुनरुत्थानवादी ताकतें, समाज की प्रतिगामी शक्तियां पूरी ताकत से सक्रिय हैं, इतिहास को उस पुराने मोड़ पर ले जाने के लिये आजादी, समृद्धि और जीवन के संसाधनों पर मुट्ठी भर लोगों का आधिपत्य था. शेष लोग सिर्फ उनके चाकर थे. हां, यह काम पहले पूरी नृशंसता से किया जाता था, अब लोकतंत्र के छद्म आवरण में. और इस काम में उन्होंने औजार बनाया है छद्म विकास, धार्मिक कठमुल्लापन और संकीर्ण राष्ट्रीयता को. वैसे, यह एक झीना पर्दा ही है, उनके खतरनाक मंसूबों पर. उसके पीछे तो संगीनें ताने फौज है, पुलिस है, न्यायपालिका है, संसद है. हां, संसद भी, जिसे हमने बनाया. जिसे हमने सर्वोच्च बनाया. लेकिन वह संसद भी अब जनता के हितों की रक्षा नहीं करता. वह दमन का ही औजार है. वरना, आप ही बतायें कि तमाम श्रम कानून कैसे खत्म हो गये? गरीबों के तन से लंगोटी भी छीन लेने वाले कानून कैसे पारित हो जाते हैं? जन विरोधी बजट कैसे लगातार बन रहा है?

समाज को समाजशास्त्री तरह तरह से श्रेणीबद्ध करते हैं. उसकी व्याख्या करते हैं. लेकिन धीरे-धीरे समाज दो खेमों में बंटता चला जा रहा है. एक वह जिनके लिए इस व्यवस्था में सब कुछ है- जीवन को गरिमामय ढंग से जीने का अधिकार, समृद्धि और आजादी और दूसरा जिसके पास न समृद्धि है न आजादी. है तो बस मनुष्य सेएक दर्जा नीचे रहते हुए जीने का अधिकार. इसमें पहला यथास्थितिवाद का पोषक है, दूसरा जिसे इस व्यवस्था का विरोधी होना चाहिये, वह उसका पिछलग्गु बनता जा रहा है. शोषक, उत्पीड़क और यथास्थितिवाद के पोषकों की संस्कृति ही उसे आकर्षित करती है. यह आज का सबसे बड़ा संकट है. और इसीलिए तमाम जनविरोधी कार्यों के राजनीति में, इस व्यवस्था में वह ताकतंे मजबूत होती जा रही हैं जो बहुसंख्यक आबादी को दोयम दर्जे का नागरिक बनाती जा रही हैं.

और इसका मुकाबला वंचितों जमातों की व्यापक एकजुटता और समझदारी से ही होगा. छोटे-छोटे खेमों में बंट कर अपनी मुक्ति की उम्मीद बेमानी होगी. हम नये वर्ष में वंचितों की व्यापक एकजुटता की दिशा में बढ़े, यही अभिष्ठ है.