वर्तमान सरकार ‘शत्रु संपत्ति’ कानून (Enemy Property Act, 1968) और Public Premises (Eviction of Unauthorised Ocupants Act, 1971) को नये सिरे से संशोधित करने और लागू करने की उतावली में है. इतनी कि संसद की अनदेखी कर अध्यादेश के जरिये ऐसा करना चाहती है. जनवरी 2016 में राष्ट्रपति के अध्यादेश से इसमें संशोधन कर दिया गया. फिर 9 मार्च ’16 को उक्त संशोधन का प्रस्ताव लोकसभा पारित हो गया. अगले ही दिन उसे राज्यसभा में रखा गया, जिसने इसे 15 मार्च को सलेक्ट कमेटी में भेज दिया. 16 मार्च को संसद स्थगित हो गयी. दो अप्रैल को पुनः इसके लिए एक अध्यादेश जारी हो गया. उसके बाद संसद का सत्र भी हुआ, लेकिन अधय्देश को उसमें पेश नहीं किया गया. 31 मई को तीसरी बार अध्यादेश जारी हुआ. पुनः 22 दिसंबर को पाँचवीं बार एक और अध्यादेश जारी हुआ. सरकार को इस बात की जानकारी देना भी जरूरी नहीं लगा कि आखिर उसे इतनी हडबडी क्यों है.

अब एक सामाजिक कार्यकर्त्ता और कांग्रेस के नेता हुसैन दलवाई ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर इन कानूनों को संशोधित करने के लिए अध्यादेश जारी किये जाने के औचित्य और वैधता को चुनौती दी है. इस चुनौती का मुख्य आधार संसद के अधिकार/क्षेत्र की अनदेखी कर अध्यादेश जारी करना है. याचिका में सुप्रीम कोर्ट के ही एक फैसले का उल्लेख किया गया है, जिसमें कहा गया था कि अध्यादेश अपरिहार्य स्थितियों में ही लाया जा सकता है, जारी होना चाहिए. क्योंकि कानून बनाना संसद का अधिकार है.

लगता है, ’65 के, फिर ’71 के युद्ध के बाद पाकिस्तान के साथ रिश्तों में आयी तल्खी के बाद श्रीमती इंदिरा गाँधी के शासन काल में ऐसे कानून बनाने का मकसद पकिस्तान के प्रति शत्रुता का प्रदर्शन ही रहा होगा. प्रकट मकसद विभाजन के बाद स्वेच्छा से या मजबूरी में पाकिस्तान चले गये लोगों की संपत्ति जब्त करना रहा हो सकता है. लेकिन इस कानून का कैसे और कितना अमल हुआ, इसकी ठीक ठीक जानकारी नहीं है. शायद इसके अमल के प्रति सरकार भी उदासीन ही रही. वैसे अमल का प्रयास भी हुआ, तो ‘कानूनी’ अड़चनें आती रहीं. अनेक मामले अदालतों में गये, अनेक अब भी विचाराधीन हैं. इसलिए कि कई मामले ऐसे हैं, जिनमें कोई बुजुर्ग या परिवार का मुखिया तो पाकिस्तान चला गया, लेकिन उसके बच्चे/परिजन यहीं रह गये. अब भारतीय कानूनों के मुताबिक ही, पैत्रिक संपत्ति पर पूरे परिवार का हक़ होता है, सिर्फ बड़े बेटे या मुखिया का नहीं. कुछ ऐसे मामले हो सकते हैं, जिनमें देश छोड़ चुके किसी व्यक्ति का कोई वैध-निकट उत्तराधिकारी न हो और उसके दूर के रिश्तेदार चालाकी से उसकी संपत्ति पर दावा कर रहे हों. लेकिन ऐसे मामलों के लिए भी कानून तो हैं ही; और इनका निदान भी अदालत ही कर सकती है. तो सवाल है कि देश छोड़ कर ‘भाग’ गये ‘शत्रु’ को विरासत में मिली पूरी संपत्ति को सिर्फ उसका मान कर सरकार कैसे जब्त कर सकती है? ऐसे में उसके अन्य परिजनों के अधिकार का क्या होगा, जो विभाजन के बाद इसी देश में रह गये? मेरी राय में इस पेंचीदगी पर विचार किये जाने; और तदनुरूप इस कानून में बदलाव की जरूरत है. और मुझे नहीं लगता कि अब तक भारत सरकार ने पाकिस्तान या चीन को भी विधिवत ‘शत्रु देश’ घोषित किया है. फिर इस कानून का नामकरण भी अटपटा लगता है: और मौजूदा सरकार जिस तरह इसे नया रूप देकर लागू करने की बेताबी दिखा रही है, वह भी इस सरकार के चरित्र और इरादे को संदिग्ध बनाती है.

‘शत्रु संपत्ति’ कानून : गोवा का संदर्भ

जाहिर है, इस कानून की जद में गोवा की मुक्ति के बाद पुर्तगाल चले गये भारतीय मूल के लोग भी आते होंगे. आने चाहिए. अब इस आलोक में, हाल ही में भारत आये पुर्तगाल के भारतीय मूल के प्रधानमंत्री अंतोनियो कोस्टा के प्रति प्रधानमंत्री श्री मोदी की आत्मीयता को याद करें. उन्होंने कहा- ‘हम वीसा नहीं, खून के रिश्ते देखते हैं.’ तो क्या उनके कहने का मकसद यह था कि भारतीय मूल के जिन लोगों ने गोवा की मुक्ति के बाद पुर्तगाल को अपना देश मान लिया, वे ‘खून के रिश्ते’ से अब भी हमारे अपने हैं? यह दरियादिली सिर्फ गोवा के लिए?

गोवा 1961 में आजाद हुआ, जब भारत सरकार ने अंततः गोवा की मुक्ति के लिए फ़ौजी कार्रवाई करने का फैसला किया और भारतीय सेना के पहुँचने से पहले ही पुर्तगाली भाग खड़े हुए. लेकिन पुर्तगाल 1974 तक गोवा पर अपना दावा करता रहा. उसी वर्ष वहां तानाशाह सालाजार के खिलाफ विद्रोह हुआ, लोकतंत्र की स्थापना हुई और नयी सरकार ने गोवा पर भारत का अधिकार स्वीकार कर लिया.

गौरतलब है कि ईसाई धर्म अपना चुके अनेक गोवानी (भारतीय मूल के) भी बेहतर भविष्य के लिए या भारत को नापसंद करने के कारण गोवा की मुक्ति के बाद पुर्तगाल चले गये थे. बाद के वर्षों में भी यह क्रम जारी रहा. इसलिए भी कि पुर्तगाल का कानून, पुर्तगाली शासन के दौरान गोवा के नागरिक रहे लोगों को पुर्तगाल का नागरिक मान कर सारी सुविधाएँ सुनिश्चित करता है. श्री अंतोनियो कोस्टा के दादा, जो पहले हिंदू (ब्राह्मण) थे और धर्मान्तरण कर चुके थे, भी दिसंबर ’61 में गोवा छोड़ कर चले गये थे. हालांकि न वे, न ही उनके परिवार के लोग भूल सके कि वे मूलतः भारतीय हैं. श्री कोस्टा ने भी भारत में यही उदगार व्यक्त करते हुए कहा था, ‘मुझे गर्व है कि मैं भारतीय मूल का हूं.’

सच यह भी है कि गोवा के मुक्ति संग्राम में वहां के बहुतेरे गोवानी ईसाइयों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था. जेल गये, गोलियां खाईं थीं. अब कल्पना करें कि ऐसे किसी आजादी के योद्धा के परिवार का मुखिया यदि गोवा छोड़ कर चला गया हो, तो सरकार द्वारा उसकी संपत्ति को ‘शत्रु संपत्ति’ मान कर जब्त कर लेना उसके गोवा में रह गये परिजनों के साथ ज्यादती नहीं होगी?

अब यदि गोवा के लोगों (जो अब पुर्तगाली नागरिक हैं) पर ‘शत्रु संपत्ति’ कानून लागू नहीं होगा, तो किनकी संपत्ति जब्त करने की हडबडी में है सरकार? जो लोग पकिस्तान चले गये, उनके भारत में रह गये परिजनों के साथ कैसी शत्रुता? गौरतलब है कि अब तो हम विभाजन के समय भारत से गये उन ‘मुहाजिरों’ की बदहाली के राग भी गाते हैं, जिन्हें पकिस्तान जाकर भी सम्मान नहीं मिला. क्या उनसे भी हमारा खून का रिश्ता नहीं है? न भी हो, पर उनके जो रिश्तेदार यहाँ रह गये, उनका क्या कुसूर है?