आज कल मन बड़ा बेचैन रहता है।

आज हमारे राष्ट्र में हो क्या रहा है? फिर सोचता हूॅ एक प्रतिबद्ध राष्ट्रवादी के रूप में मुझे कैसा राष्ट्र चाहिए?

मैं धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, साम्यवाद, मानवतावाद, इस्लाम, इसाईयत से बेहद नफरत करता हूॅ, इस हद तक कि इन्हें जड़मूल से समाप्त कर देना चाहता हॅू, ताकि अपने आपको एक आदर्श राष्ट्र का नागरिक होने का गौरव प्राप्त कर सकूॅ।

हमारे जैसों की ऐसी चाहत तो 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही पैदा हो गयी थी। पर संगठित और सशक्त रूप से 1925 से हमने प्रयास शुरू किया, द्विराष्ट्रवाद का प्रस्ताव स्वीकार कर आदर्श राष्ट्र की परिकल्पना इस देश की जनता के सामने रखी। इस्लामी पार्टी ने भी हमारे इस सिद्धांत के समर्थन में प्रस्ताव पास कर दिया। लगा था कि अब हम एक आदर्श राष्ट्र देख पायेंगे। पर हुआ क्या? इस्लामी राष्ट्र तो द्विराष्ट्र के नाम पर बन गया, देश बॅट गया। पर हमारा आदर्श राष्ट्र तो सपना ही रह गया। हमने समझा कि धर्मनिरपेक्षता, मानवता और लोक तंत्र जैसी परिकल्पनाएॅ ही हमारे आदर्श की राह में सबसे बड़ी बाधा है और इसका पुरोधा है गाॅधी। हमने उसे मौत के हवाले कर दिया। कितनी खुशी मिली थी उस दिन हमने मिठाईयाॅ तक बाॅटी थी। पर हुआ क्या? गाॅधी का भूत इस राष्ट्र के सर चढ़कर बोलने लगा। 4-5 सालों तक तो हमें सर ढंके, चेहरा छुपाए भटकते रहना पड़ा। फिर महसूस हुआ कि हम कहीं घुटकर दम न तोड़ दें। तब हमने लोकतंत्र की छद्म चादर ओढ़ कर बाहर आने का निर्णय लिया। इस चादर की तासीर ने हमें धीरे-धीरे एहसास दिलाया कि इस लबादे के बूते तो हम सत्ता तक पहुॅच सकते हैं। एक बार सत्ता हथा आ गयी तो फिर तो हमारे आदर्श राष्ट्र की कल्पना साकार होते देर नहीं लगेगी। इस एहसास ने हमें बल दिया हम उसी राह चल दिये । जिन राष्ट्र विरोधी परिकल्पनाओं यथा- धर्मनिरपेक्षता, मानवता कम्यूनिस्म इस्लामियत, इसाइयत को हम समाप्त करना चाहते थे, उसके लिए लोकतंत्र का छद्म लबादा मुफीद साबित होने लगा। इन पर सीधे आक्रमण की जरूरत हमें पड़ी ही नहीं। इसके लिए तो हमारा मातृ संगठन है ही जिसने सीधी कार्रवाई के लिए कई बैनरों से संगठनखडे़ कर लिये, सिर्फ एक केसरिया रंग की साझा पहचान से। इन बैनरों से कभी धर्म के नाम पर, कभी गाय के नाम पर, कभी काश्मीर के नाम पर तो कहीं साम्यवाद के भूत के नाम पर, मनचाहा तांडव कराते रहे। लोकतंात्रिक लबादे के बूते सारे बवालों और मारकाट का दोषी बस दूसरे पक्षों को ठहराना भर हमारा काम रहा। धीरे-धीरे जनता हमारे इस माया जाल की जद में आने लगी। सत्ताधारी पार्टियों के राजनीतिक भ्रष्टाचार नीति की असफलता, वंशवाद आदि तत्वों की हमें खूब मदद मिली और कितनी खूबसुरती से हमने इनका इस्तेमाल किया, वाह। हमें मुकम्मल सत्ता हासिल हो गयी।

पर आज मन बेचैन है। हमारा आदर्श राष्ट्र? हमारे सपनों का परिवेश?

आज हमंें उस गाॅधी के नाम पर योजनाएॅ चलानी पड़ रही है, जिसका आज से 70 साल पहले हमने वध कर दिया था। उस संविधान की हमें दुहाई देनी पड़ रही है, जिसे हमने गुलामी का प्रतीक घोषित किया था। उस तिरंगे को सलामी देनी पड़ रहीं है, जिसकी जगह में भगवा लहराना था। धर्म निरपेक्षता को छद्म धर्मनिरपेक्षता तक तो कह पा रहे है, पर उसे नकार देने की कूवत नही। अगर हममे से कोई हमारी छद्म रणनीति के तहत खुलकर बोल देता है, तो उससे क्षमा मंगवानी पड़ रही है या फिर उसे व्यक्तिगत विचार कह के खारिज कर देने की मजबूरी हो जा रही है।

मन विचलित हो रहा है!

कहीं यह सब उस लोकतांत्रिक लबादे के कारण तो नही, जिसे हमने आज से 56 साल पहले ओढ़ा था? पर हमने तो उसे भी आज से 41 साल पहले उतार फेका था और गंगा स्नान कर आये थे। अपने केसरिया में थोड़ा हरा रंग भी मिला लिया था। फिर भी? यह लबादा भी माकूल नहीं लगता। पर क्या करें? इसे भी हटाया तो लोग हमें हिटलर के समकक्ष घोषित करने को तैयार बैठे हैं। आखिर हिटलर ने भी क्या गलत किया? जर्मन ‘रेस’ को एक सशक्त जाति के रूप में स्थापित करने का सफल प्रयास किया। इस रास्तें में बड़े पैमाने पर यहूदियों का कत्लेआम करना था तो किया। इसमें क्या गलत है? हम भी ऐसा करना चाहतें है। एक बार तो ‘कचकचाके’ होना जरूरी है। पर वाह री दुनियां, हिटलर को इतिहास का सबसे बड़ा खलनायक बना दिया।

लेकिन यह क्या हमारा आज का पुरोधा यहूदियों को गले लगा रहा है। हिटलर को भी चिढ़ाना पड़ रहा है।

मन बहुत चिंतित है।

कहीं लोकतंत्र के लबादे में कोई जादू तो नहीं, जिसे हमने अपने को छिपाने के लिए ओढ़ तो लिया, पर वह हमें ही किसी दूसरी दिशा में लिये जा रहा है? कहीं गाॅधी का भूत अभी भी हमारा पीछा तो नहीं कर रहा? और मुझे बेचैनी तो आज सबसे बड़ी यह है कि कहीं आदर्श राष्ट्र की हमारी परिकल्पना रूमानी तो नहीं?

मेरे एक सहकर्मी मित्र को मेरी बेचैनी का आभास हो गया। बोला इतने बेचैन क्यों हो यार। वो पुरानी कहानी वाली कहावत याद है?

‘‘लग्गा लगाया है, पर तिरिया पटियाया है।

लगेगा तो लगेगा, नहीं तो गाॅव में तो आया है।’’

इसी को ध्यान करों और चैन की नींद लो।