सर्वोदय से जुड़े आयोजनों में शामिल होने का कम ही अवसर मिला है. हम गांधी द्वारा स्थापित और लंबे समय तक उनका कार्यालय/कर्मस्थल रहे सेवाग्राम को देखना भी चाहते थे.

सर्वोदय/गांधी-विनोबा से जुड़ी संस्थाओं के बारे में एक धारणा मन में रही है कि ये अब निष्प्राण हो चुकी हैं और एक तरह के कर्मकांड का निर्वाह कर रही हैं. लेकिन यहां आकर महसूस हो रहा है कि वह धारणा पूरी तरह सही नहीं थी. वहां जो कुछ देखा, महसूस किया, उसे यादों के सहारे व्यक्त करने का प्रयास कर रहे हैं. यह कार्यक्रम की रिपोर्ट नहीं है. वहां हुई चर्चा का ब्यौरा भी हम अभी नहीं दे रहे हैं. हम ने जो देखा और महसूस किया, उसे ही यहाँ बाँट रहे हैं.

लघु भारत बना सेवाग्राम : 21-22 फरवरी. सर्वसेवा संघ का 86 वां अधिवेशन. गांधी की 150 वीं जयंती के अभियान का प्रारंभ. 22 फरवरी को बा (कस्तूरबा) की पुण्यतिथि. फिर 23, 24 और 25 फरवरी- सर्वोदय समाज का 47 वां सम्मेलन. देश के विभिन्न हिस्सों के, लगभग सभी राज्यों के बुजुर्ग और युवा प्रतिनिधियों की ऐसी भागीदारी देख कर आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता हो रही थी. लोगों के आने का सिलसिला लगातार जारी रहा. सेवाग्राम सचमुच ‘लघु भारत’ में तब्दील हो गया था!

आयोजन की व्यवस्था संभालने, अतिथियों की सेवा करने में युवा स्वयंसेवकों की तत्परता भी अद्भुत. इनमें अधिवेशन में हिस्सा लेने आये युवाओं के अलावा, स्थानीय शिक्षा संस्थानों के लड़के-लड़कियां भी शामिल थे. खास कर युवाओं की भागीदारी भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है. आज के विघटनकारी और टकराव के माहौल यह आयोजन- माहौल उम्मीद जगाने वाला है. फिर से महसूस हुआ कि सचमुच गांधी में आज भी जोड़ने की क्षमता है.

सेवाग्राम परिसर सम्मेलन में आये लोगों से भरा था. वे सभी गांधी विचार को माननेवाले और उनके बीच पले-बढ़े लोग थे. हम जहां से आये हैं, उससे भिन्न वातावरण. चारों तरफ लोग दिखते. मगर न कोई उच्छश्रृंखलता, न आपाधापी, न ही व्यक्तित्व और कपड़ों का भौडा प्रदर्शन. पहचान न भी हो तो नजर मिलने पर विनम्र अभिवादन. सबसे उत्साहजनक बात यह कि बड़ी संख्या में युवा आये थे. मगर कहीं कोई हल्कापन नहीं. सफाई भी घर जैसी. वहाँ भी प्रदर्शन के बजाय सहज वृत्ति. कोई भी अपने सामने पड़ी बेकार वस्तु को उठा कर कचरा पेटी में डाल देता. वैचारिक सत्रों के बाद शाम में सांस्कृतिक कार्यक्रम में गीत-नृत्य का शमां बंधता. सभी पूरे उमंग में होते. मंच पर अगर उड़िया लोकनृत्य चल रहा है तो नीचे भी बड़ी संख्या में उस क्षेत्र के लोग खास कर युवा उनका साथ देते. पर कहीं भी हंगामा या ओछापन और असभ्यता नहीं. एक तरह से पूरा माहौल अपनेपन से भरा स्वस्थ वातावरण व जिम्मेदार अभिव्यक्तियों का रहा. और यह इसी कारण संभव हुआ कि गांधी के विचार वहाँ सबके मार्गदर्शक थे.

हमारे जीवन को सहजता के साथ आनंदपूर्ण बनाने के लिए मानवमात्र के लिए प्रेम, सेवा के साथ ईमानदारी, सच्चाई, शरीर श्रम और स्वच्छता महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. इनके बिना हमारा आनंद भ्रम ही है. सुख की परिभाषा कठिन तो है. पर आज दुनिया जिसे आनंद मान रही है, वह बस छलावा है. तभी तो सुख के पीछे हम भाग रहे हैं मगर हाथ खाली हैं. बस हम ईमानदारी से समाज के प्रति अपने दायित्वों को पूरा करें. श्रम, संतोष और चर अचर के लिए प्यार, ये ही कुंजी हैं. गांधी दर्शन आज भी हमारे जीवन को रास्ता दिखाने वाला है.

आज राजनीति जहाँ पहुंची है, चारों तरफ अंधकार ही दिख रहा है. यहाँ भी सत्याग्रह और जनता की हिस्सेदारी ही एक मात्र हल दिख रही है. अन्याय को स्वीकार नहीं करे. वहाँ शामिल हुए सबों ने आज की परिस्थितियों में गांधी विचारों के महत्व को समझा. आज हर क्षेत्र की बढती असहिष्णुता सामाजिक राजनैतिक जीवन को बिषाक्त बनाये दे रही है. इसका जबाब गांधी के दर्शन में ही मिल सकता है. उनका जीवन खुद ही एक दर्शन रहा. मानव मात्र से प्यार, समाज के दुखों को समझाना और उसको बदलने के लिए सतत प्रयास और संघर्ष. मगर यह संघर्ष भी सत्य और अहिंसा पर टिके रह कर. हथियार सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा. यहाँ नफरत का कोई काम नहीं. हिंसा की कोई जगह नहीं. आज समाज में फैली नफरत और हिंसा ने जो भयानक रूप धारण कर लिया है, उससे निकलना बड़ा कठिन है. रास्ता बस गांधी मार्ग है. सम्मलेन में बार बार यह स्वर उठा. देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे आंदोलनों से जुड़े अनेक लोग भी इस सम्मलेन में आमंत्रित थे, जो सीधे सर्वोदय से जुड़े नहीं हैं, यथा मेधा पाटकर, राजमोहन गांधी, राजेन्द्र सिंह (जल पुरुष) समाजवादी धारा के डॉ सुनीलम आदि. सबों ने देश की मौजूदा स्थितियों की चुनौतियों का उल्लेख करते हुए इनके खिलाफ व्यापक जनांदोलन की जरूरत बताते हुए सर्वोदय समाज से इस दिशा में पहल की उम्मीद जताई. जो आन्दोलनकरी लोकतंत्र और समाजवाद को मानते हैं, गांधी विचार और गांधीवादियों की ओर आशा भरी निगाह से देख रहे हैं. एक बड़ी ताकत की ओर, जो देश भर में फैली है.

आजादी के बाद व गांधी के कार्यकर्ताओं की क्या भूमिका होगी, सरकार के साथ कैसा सम्बन्ध रहेगा, इस सम्बन्ध में 21 फरवरी के पहले सत्र में गुजरात के प्रकाश भाई ने 1948 में गांधी की हत्या के बाद मार्च में पहले से निर्धारित सर्वसेवा संघ की हुई संगीति का उल्लेख किया था. उसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू, गृहमंत्री सरदार पटेल सहित सत्ता से जुड़े अनेक लोग शामिल थे. उनके लिए पुलिस का भारी तामझाम भी था.

देर से पहुंचे आचार्य कृपलानी ने सवाल किया कि सर्वोदय के आयोजन में पुलिस कैसे आ गयी?

उनकी आपत्ति में संकेत यह था कि जनता के साथ/बीच खड़ी जमात की भूमिका तो ‘स्टेट’ (व्यवस्था) के सतत आलोचक की ही होनी है. इसमें टकराव भी अवश्यंभावी है. ऐसे में सरकार से एक दूरी बनी रहनी चाहिए.

इस धारणा से अब भी सबों की सहमति है. इससे जुड़ा एक रोचक प्रसंग भी अगले ही दिन का है. अधिवेशन पंडाल में 22 फरवरी को अचानक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दो फोटो टंगे दिखे. एक महिला प्रतिभागी ने मंच से इस पर आपत्ति करते हुए पूछा कि क्या ऐसा आयोजकों की अनुमति/सहमति से हुआ है; फिर कहा कि यदि इन्हें तत्काल नहीं हटाया गया तो मैं जाकर हटा दूंगी. आयोजकों ने तत्काल फोटो हटवा दिये! वैसे इस आयोजन स्थल पर किसी जीवित व्यक्ति की एक भी तसवीर नहीं लगी थी, फिर मोदी का फोटो कैसे लगा, इस सवाल का जवाब नहीं मिला. वैसे, संतोष की बात है कि सर्वसेवा संघ और सर्वोदय जमात ने अब तक सत्ता प्रतिष्ठान से एक संभव दूरी बनाये रखने की परंपरा का निर्वाह किया है. इसका नजारा अंतिम दिन 25 फरवरी को उप-राष्ट्रपति श्री वेंकैया नायडू के पहले से तय कार्यक्रम के दौरान भी दिखा.

पता नहीं, सर्वोदय और सर्वस्व संघ से जुड़े लोग इस मामले में कितने गंभीर हैं, उनकी क्या तैयारी है. पर सम्मलेन में जुटे प्रतिभागियों ने लगभग एक स्वर से किसानों-गावों की बदहाली, बढ़ती बेरोजगारी और आर्थिक विषमता पर गहरी चिंता व्यक्त की; साथ ही वर्तमान सरकार की निरंकुशता का मुखर विरोध करने की जरूरत पर बल दिया. गांधी के विचारों का निर्गुण गायन करना भी एक कर्मकांड है. खुद को गांधी का अनुयायी माननेवालों को गांधी के रास्ते पर चलने के लिए त्याग और कठिन जीवन का संकल्प लेना ही होगा.

सत्ता का तामझाम और निरपेक्ष सर्वोदय कार्यकर्त्ता :

एक दिन पहले से पुलिस व सुरक्षा बालों के सैकड़ों जवान आश्रम परिसर और आसपास भर गये. उनका कार्यक्रम दरअसल वर्धा में था. लेकिन मौजूदा सत्तारूढ़ जमात की विवशता है कि उसके बड़े नेताओं को, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति आदि को गांधी की प्रतिमा और उनसे जुड़े स्थलों पर मत्था टेकना पड़ता है. सो उप-राष्ट्रपति को भी सेवाग्राम स्थित बापू कुटी में माल्यार्पण करना था. सुरक्षा के विशेष प्रबंध के कारण सम्मलेन में आये कार्यकर्ताओं को भारी परेशानी हुई. भोजन का पंडाल आश्रम परिसर में बापू कुटी के पास ही था, जहाँ सुबह सात बजे से नाश्ता और दिन के भोजन के लिए कतारें लगी रहती थीं. उप-राष्ट्रपति को साढ़े दस बजे बापू कुटी आना था. इसलिए उस दिन ‘सुरक्षा’ कारणों से सबों को नौ बजे तक जलपान समाप्त कर सम्मलेन के पंडाल पहुँचने कह दिया गया. भारी अफरा-तफरी का माहौल था. पंडाल के बाहर लम्बी कतार लग गयी. अंदर एक साथ उतने लोगों के लिए इंतजाम हो पाना भी संभव नहीं था. आश्रम में आने-जाने के लिए अन्य रस्ते बंद कर दिए गये थे. एक छोटे रा स्ते से ही आना और निकलना भी था. वहां भी अनेक तरह की जांच हो रही थी, जबकि सभी मेटल डिटेक्टर से होकर ही गुजर रहे थे! बुजुर्ग वा युवा कार्यकर्ताओं में उप-राष्ट्रपति के आगमन को लेकर कोई उत्साह तो दूर, उनके चेहरे पर एक खीझ थी. पूछने पर आश्रम के व्यवस्थापक साथी श्रीराम ने बताया- ‘बीती शाम जिले के आला प्रशासनिक व पुलिस अधिकारियों के साथ इस सम्बन्ध में एक बैठक हुई थी. मैंने पूरी संजीदगी से आग्रह किया था कि आप अपने स्टाफ को हिदायत दें कि वे देश भर से जुटे हमारे कार्यकर्ताओं के साथ शालीनता से पेश आयें. ऐसा नहीं हुआ तो संभव है, प्रशासन और उप-राष्ट्रपति के खिलाफ नारे लग जाएँ, जो हम भी नहीं चाहते और यह हमारी प्रतिष्ठा के खिलाफ भी होगा, आपकी भद्द तो पिटेगी ही. उन्होंने आश्वासन दिया है कि ऐसा ही होगा, लेकिन पुलिस के आम सिपाही को तो आप जानते ही हैं.’

हमें उसी दिन वर्धा से 11 बजे की ट्रेन पकडनी थी. मित्रों ने सलाह दी कि आपलोग नौ बजे तक निकल जाएँ. भीड़ के कारण लगा कि नाश्ता किये बिना ही निकलना होगा. लेकिन एक साथी ने किसी तरह कुछ पूड़ियाँ और सब्जी एक अखबार में लपेट कर दे दी. लेकिन ‘सुरक्षा’ कारणों से वहां तक किसी ऑटो को नहीं आने दिया जा रहा था. सो हमें करीब एक किलोमीटर तक अपना लगेज लेकर पैदल चलना पड़ा. उस दौरान भी कदम कदम पर तैनात सिपाही हमें और किनारे चलने का निर्देश देते रहे. उधर सम्मलेन स्थल से क्रांति गीतों के साथ प्रतिभागियों को जल्द पहुँचने का निर्देश माइक से गूँज रहा था.

हम सोच रहे थे यदि यह कार्यक्रम ‘संघ’ या भाजपा का होता, तो श्री नायडू उसमे भी शिरकत अवश्य करते. पर किसी ने बताया कि सीर्फ एक बार तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद सर्वोदय के सम्मलेन में शामिल हुए थे. उसके बाद किसी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को आमंत्रित नहीं किया गया.

बा की प्रेरक उपस्थिति :

इस सम्मलेन में भाग लेने पर ही पहली बार गांधी और बा के रिश्तों और बा के व्यक्तित्व के अनेक पहलुओं से रूबरू होने का अवसर मिला.

गांधी की तस्वीर, मूर्ति वगैरह लगातार देखती रही हूं. कभी चरखा चलाते हुए, कभी लाठी पकड़े, कभी तेजी से भागते हुए, यानी तेज तेज चलते हुए. कभी आंदोलन के दौरान जवाहर लालनेहरू, पटेल या खान अब्दुल गफ्फार खान के साथ. सर्व सेवा संघ और सर्वोदय समाज के सम्मेलन में बा यानी कस्तूरबा की जोरदार उपस्थिति से अभिभूत हो गई. वहां दो कार्यक्रम हुए और दोनो के पोस्टरों में गांधी और कस्तूरबा की तस्वीर थी. यही नहीं, अंदर जगह जगह दोनों की एक साथ की तस्वीर ही दिख रही थी. और आश्रम परिसर की बापू कुटी में तो हर जगह कस्तूरबा मौजूद थीं ही. बगल में ‘बा कुटी’ भी थी. मौके से उसी बीच कस्तूरबा का 22 फरवरी बा की पुण्यतिथि थी. कार्यक्रम का एक सत्र उन पर समर्पित था.

गांधी स्त्रियोचित गुणों, यथा दया, स्नेह व ममता को मानव जीवन का हिस्सा बनाना चाहते थे. वे सही मायनों में स्त्री-युक्त पुरुष बन सके. बापू कुटी और उस आश्रम का सारा सौंदर्य ऐसे व्यक्तित्व की झलक देता था, जो बा और बापू को मिला कर बना है.

आज की दुनिया में भी वहाँ की सादगी, स्वच्छता और शांति बची हुई है, यह सुखद आश्चर्य ही है. सर्व सेवा संघ और सर्वोदय समाज गांधी के आदर्शों को जमीन पर उतारने में सफल हो सका है, यह तो नहीं ही कहा जा सकता. उस दिशा में यह जमात कितनी गंभीर और प्रयत्नशील है, यह भी नहीं कह सकती. मगर कम से कम सेवाग्राम को जिस तरह उसके मूल रूप में संजो कर रखा गया है, यह देखना और महसूस करना सुखद एहसास जरूर था. न सिर्फ पूरा परिसर ‘आधुनिक’ वास्तु के असर से मुक्त है, उसकी सहज उपलब्ध साधनों से बनी इमारतें (मूलतः झोपड़ियां) भी गांधी की सादगी और प्रकृति से उनके लगाव का बोध कराती हैं.