आज से चालीस साल पहले मुझसे साथ के छात्र-मित्र कहते कि आप लोग बेकार जाति आधारित भेदभाव की बात करती हैं. कहां है भेदभाव? सब कुछ बदल गया है और जो बचा है, वह भी जल्दी ही खत्म हो जायेगा. फिर हम अपने आसपास की घटनाओं से उन्हें समझाने की कोशिश करते. और बहस छिड़ जाती. उनके तर्कों में कोई तर्क और तथ्य तब भी नहीं होता था; और आज भी वैसे तर्क देनेवालों की बातों में नहीं होता.

उन्हीं दिनों हाजीपुर में एक दलित युवक ने अन्य (संभवत: राजपूत) जाति की लड़की से विवाह किया था. उसे बुरी तरह मारपीट कर गांव से भगा दिया गया. लड़की कड़े पहरे में रखी गई. हम लोग जब किसी तरह वहां पहुंचे तो उससे अकेले नहीं मिल सके. और एक तरह से हमें वहां से वापस लौटने को विवश किया गया.

उसी दौरान वैशाली में ही संपर्क के दौरान दलितों पर अत्याचार की कई घटनाएं सुनने को मिलीं. और ऐसी घटनाएं कोई पहली बार सुनने को नहीं मिली थीं. बार बार दुहरायी गयी वही कहानियां, जो और भी पहले लिखी-टढ़ी जा चुकी हैं. हमेशा लगता है कि समय आगे बढ़ चुका है, मगर यहाँ पर मानो समय को लकवा मार गया है.

उसी दौरान किसी ने बताया कि एक दलित छात्र मैट्रिक में पहले डिवीजन से पास हुआ, तो उसके पिता ने सायकिल खरीद दी. पर यह कथित बड़े लोगों के बच्चों को कैसे पचता. वे उसदलित से पढाई में भी पीछे थे. तो उन्होंने जमकर पिटाई की और उसकी सायकिल भी तोड़ दी. अब किसकी हिम्मत थी कि फिर से सायकिल पर घंटी बजाता चले. मुझे मालूम नहीं कि वह दलित छात्र फिर से कॉलेज जाने की हिम्मत बटोर पाया या नहीं.

हां, आज चालीस साल बाद भी फर्क बहुत कम आया है. अभी कुछ दिन पहले गुजरात में एक दलित युवक को घोड़े पर चढ़ने पर मौत की सजा दे दी गयी. इसमे कोई शक नहीं कि वे स्कूल और कॉलेज पहुंच रहे हैं, डॉक्टर इंजीनियर भी बन रहे हैं. घोड़ा और कार भी खरीदने की हैसियत भी बनी है. पर साथ ही घोड़े से खींचकर मारने वाले लोगों की जमात और क्रूर होती जा रही है.

किसी दिन का अखबार पलटें, टीवी देखें, कहीं किसी स्त्री के साथ उत्पीड़न, कहीं बलात्कार, कहीं दहेज के कारण हत्या और फिर दलितों, आदिवासियों के साथ ठगी व उत्पीड़न और अपमानजनक व्यवहार की खबर जरूर होती है.

इसमें शक नहीं कि दलित हों, आदिवासी हों या स्त्री, वे हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं. एक दुनिया ऐसी भी है, जहां इन्होंने सारी रुकावटों को पार कर अपने लिए सम्मानजनक हैसियत हासिल की है. मगर इस छोटी जमात के बाहर बहुत बड़ी दुनिया इनके लिए जस की तस ठहरी हुई है, जहां सभी स्त्रियां, यहां तक कि छोटी बच्चियां भी बस भोग की वस्तु हैं- इस्तेमाल करो और फेंक दो, मार दो. दहेज के कारण स्त्री के हत्यारे भी समाज में स्वीकार्य हैं और आराम से दोबारा विवाह करते हैं. और आये दिन का अपमान, हिंसा और उत्पीड़न तो हमारी संस्कृति है, जिसके खिलाफ बोलना अपसंस्कृति है; और अब तो यह हमारे देश का भी अपमान है. दलितों को इसी ‘महान’ संस्कृति को सम्मान देते हुए सारा अपमान झेलना है.

इसमे कोई शक नहीं कि इसी समाज में ऐसे भी लोग हैं, जिनके प्रयास से संविधान में इन शोषित जमात के पक्ष में कानून बने और उनके साथ होते रहे और अभी भी चल रहे शोषण, उत्पीड़न से लड़ने का कानूनी हथियार भी मिला है. ऐसे कानूनों-प्रावधानों के पक्ष में खड़े लोगों की बात छोड़ दें, तो आज भी बाकी समाज का रवैया दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों के प्रति भेदभावपूर्ण ही है; बल्कि उनके तरक्की करने और आगे बढ़ने के कारण अधिक विद्वेषपूर्ण भी हो गया है. सवर्ण मानसिकता और चरित्र के आक्रामक लोग तो अपनी क्रूरता प्रदर्शित करते हैं, पर आम लोग भी घृणा और विद्वेष तो रखते ही हैं. “ये दलित ‘मनबढ़ू’ हो गये हैं”, इस आम कथन में निहित है कि उन्हें दब कर रहना चाहिए. ये कहते हैं, ‘आदिवासियों को इतना कुछ दिया जा रहा है, मगर वे बदलने को तैयार नहीं हैं.’ मानो वे अपने हिस्से से कुछ दे रहे हैं. यह भी सुनने को मिलता है : ‘औरत तो कुछ भी कर ले, पुरुष तो नहीं बन जायेगी!’ यानी इन तबकों को अपने हद में रहना है, वरना सबक सिखाने वाले तो हैं ही. हमारी संस्कृति भी यही कहती है.

यहाँ तक कि समाज में दलितों/ आदिवासियों की बदहाल स्थिति पर चिंता करने के बजाय ‘दलित/ आदिवासी ऊंची जातियों के लोगों को फंसाने में लगे हैं’, यह चिंता कोर्ट के लिए भी ज्यादा बड़ी हो गयी है

एससी/एसटी एट्रोसिटी एक्ट पर माननीय अदालत की टिप्पणी के खिलाफ देश भर में विरोध किया गया. इसी तरह का फैसला दहेज एक्ट पर भी दिया गया है. और इन्हीं जजों ने दिया है. स्त्री संगठनों द्वारा प्रभावशाली विरोध नहीं किया जा सका मगर दलित-आदिवासियों ने एतिहासिक विरोध दर्ज कराया है. विपक्षी खेमे की बौखलाहट से भी यह साबित होता है. मगर क्या यह विरोध और भारत बंद सिर्फ एसटी/एससी एक्ट पर समर्थन के लिए था? पिछले दिनों लगातार दलित उत्पीड़न की घटनाएं सामने आई हैं. आदिवासियों को उजाड़ा जा रहा है. उनके सामने पहचान का संकट आ खड़ा हुआ है. और इस बार का विरोध प्रदर्शन इन आदिवासी/दलित विरोधी नीतियों और सरकारी रवैये के खिलाफ गुस्से का इजहार है. और ठीक इसकी दूसरी धूरि पर भारत बंद के खिलाफ सारे तर्क अंततः आरक्षण विरोध पर जाकर रुकते हैं.

समान अवसर की बात करनेवाले अपने लिए आरक्षण को तो मूंछ पर ताव देकर पैसे के बल पर हासिल करते हैं. ‘बड़े’ व ऊंची हैसियत वालों के लिए फाइवस्टार स्कूल, उसके बाद डोनेशन पर दाखिले का मौका; पर जाति आधारित अन्याय के कारण अगर आरक्षण हो तो यह समान अवसर के खिलाफ हो गया! मूल चिंता है कि वे अपनी हद न लांघें -वे यानी स्त्री, दलित और आदिवासी. सवर्ण अपने विशेषाधिकार को छोड़ने को तैयार नहीं. भले जो करना पड़े. सदियों से पीछें ढकेले गये लोग पीछे रहने को तैयार नहीं. आरक्षण सिर्फ एरियर है. खामियाजा है और इसे तो देना ही है. पर ये सवर्ण नहीं दे रहे. समाज दे रहा. राजनीति दे रही है, जिसमें दलितों-आदिवासियों का भी हक और हिस्सा है.