निर्भया से लेकर असफा तक की घटनाएं वर्णवादी हिंदू व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा है. मुस्लिम समुदाय की ओर से भी स्त्री उत्पीड़न की घटनाएं होती हैं. लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय मुसलमानों का बड़ा हिस्सा अपने बिरादर हिंदुओं से ही बना है और वे अपने साथ हिंदू वर्णवादी व्यवस्था के तमाम अवगुणों को साथ लेकर गये हैं. उंच नीच की भावना, अछूत समस्या, औरत के प्रति क्रूरता और लंपटतापूर्ण व्यवहार, सब कुछ कमोबेश दोनों में शामिल है. इसलिए हम हिंदू वर्णवादी व्यवस्था और उसमें स्त्रियों के स्थान को लेकर ही यहां अपनी बात करेंगे. वह जरूरी इसलिए है कि हम हमेशा स्त्री उत्पीड़न- बलात्कार, जघन्य हत्या आदि- की घटना के बाद छाती पीटते हैं, अभियुक्तों के खिलाफ गाली गलौच और कानून को और सख्त करने की गुहार लगाते हैं. लेकिन हालात सुधरने के बजाय बिगड़ता जा रहा है. और वजह यह कि हम यह मानते ही नहीं कि हिंदू समाज बुरी तरह रूग्ण और विकृतियों का शिकार है, होता जा रहा है. और कठोर से कठोर कानून भी इस रोग का इलाज नहीं कर सकता.

हिंदू धर्म के प्रचारक हमेशा इस बात का ढिं़ढोरा पीटते हैं कि भारतीय समाज में स्त्री हमेशा पूजनीय रही है. उनका सम्मान रहा है. लेकिन हिंदू वांगमय हिंदू समाज में नायक व देवता का दर्जा प्राप्त पुरुषों की लंपटता और अमानवीय क्रूरता की कहानियों से भरा पड़ा है. बात शुरु करें आदि पुरुष भरत से ही, जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा बताया जाता है. वे राजा दुष्यंत और अप्सरा मेनका की पुत्री शकुंतला की संतान थी. विश्वामित्र का तप भंग करने के लिए मेनका का इस्तेमाल इंद्र ने किया और इस क्रम में वह गर्भवती हो गई. और अनाथ शकुंतला एक आश्रम में पली- बढ़ी. शिकार के लिए जंगल में भटक रहे राजा दुष्यंत चोर की तरह उस आश्रम में घुसते हैं. दन से उसके रूप पर मोहित हो जाते हैं. रानी बनाने का आश्वासन देकर उसके साथ संभोग करते हैं. और अपने किले में वापस हो जाते हैं. और गर्भवती शकुंतला जब उनके राजदरबार में पहुंचती है तो उसे पहचानने से इंकार कर देते हैं. क्योंकि शकुंतला प्रमाण के रूप में वह अंगूठी दिखा नहीं पाती जो वे उसे पहना कर आये थे. शकुंतला वापस जंगल पहुंचती है. और भरत को जन्म देती है.

सीता की कहानी तो प्रसिद्ध है. लंका विजय के बाद राम रावण की कैद में रही सीता को स्वीकार करने से इंकार करते हैं. बाद में अग्नि परीक्षा लेते हैं और स्वीकार करते हैं. लेकिन जन-प्रवाद पर गर्भवती सीता को घर से निकाल देते हैं. जंगल में ही सीता लव को जन्म देती है.

द्रौपदी की कहानी भी सभी जानते हैं. पांडव उसे जुए में दाव पर लगाते हैं, जैसे वह मानवी नहीं, कोई जिंस हो. और हार जाने पर दुःशासन उसे घसीट कर भरी सभा में लाता है. उसे तमाम पिता और पितामहों के सामने निर्वस्त्र करने की कोशिश होती है. उसे जंघा पर बिठाने का उद्घोष किया जाता है.

इन्हें आप खिस्से कहानी, मिथक आदि कह कर खारिज कर सकते हैं. लेकिन ये कुल मिला कर हिंदू वर्णवादी व्यवस्था में स्त्री की स्थिति का प्रतिबिंब है. मध्ययुगीन भारत में सती प्रथा, जौहर, बाल विवाह, विधवा विवाह पर प्रतिबंध आदि के साथ मिल कर भारतीय समाज में औरतों की स्थिति की जो तस्वीर बनती है वह खौफनाक है. आज भी इन कहानियों की आवृत्ति, पुनरावृत्ति देखने को मिल ही जाती है. सरे महफिल स्त्री के नितंबों पर हाथ फेरने वाला राष्ट्रीय हीरो और पौरुष का प्रतीक बनता है. औरत के जिस्म से अपनी वासना की तृप्ति के बाद बेरहमी से उसके कत्ल के अभियुक्तों को बचाने के लिए कट्टर हिंदू समाज तत्पर रहता है. समाज का प्रभु वर्ग, पूरी व्यवस्था औरत के अपमान और उसके साथ बरती जा रही क्रूरता को ‘भीष्म पितामह’ बन कर देखता रहता है.

वैसे, यह तो सामंती समाज के आपसी व्यवहार की कहानियां है, निम्न वर्ग की औरतों के साथ सामंतों का व्यवहार कैसा था, यह सब लिखने बैठा जाये तो रामायण-महाभारत से भी मोटी पोथियां तैयार हो जाये. किसी आदमी के मनोबल को तोड़ने के लिए उसकी औरत का उत्पीड़न सामान्य तरीका रहा है. आज भी इसका इस्तेमाल बखूबी किया जाता है. चंपारण में निलहा जमींदारों की काठियां आज भी खड़ी हैं, जहां यह सामान्य नियम था कि उसके करीब के गांव में नवविवाहिता को पहली रात जमींदार की कोठी में बिताना पड़ता था. मंदिरों में देवदासियों की प्रथा अनादि काल से चली आ रही है.

विडंबना यह कि जिस पूंजीवादी व्यवस्था ने आम आदमी को सामंती उत्पीड़न से मुक्त किया, उसी ने स्त्री को एक हाड़ मांस की बनी जीवित प्राणी से बदल कर एक ‘जिंस’ में तब्दील कर दिया. उपभोक्ता माल के साथ उसके जिस्म के हिस्सों को टुकड़े-टुकड़े बेचा जाता है. हर महानगर से लेकर छोटे-छोटे कस्बों में जिस्मफरोशी होती है. फैशन परेड के नाम पर उनसे कैट वाक करवाया जाता है और शोहदें उन्हें घूरते हैं.

हां, एक पांच वर्ष से भी कम उम्र की बच्ची के साथ बलात्कार और फिर उसका गला घोट देना, अपने समाज की नई परिघटना है. इसे हम मनोविकार, यौन विकृति एवं बीमार मानसिकता ही कह सकते हैं. और यह निरंतर बढ़ता जा रहा है.

इसलिए जब तब इस तरह की घटनाओं के प्रकाश में आने के बाद जो चिल्ल पों मचती है, उसे हम पाखंड ही मानेंगे यदि उसके मूल पर हम सतत प्रहार नहीं करते और बराबरी पर टिकी स्त्री-पुरुष संबंधों की एक स्वस्थ परंपरा विकसित करने के लिए प्रयत्नशील नहीं होते. और यह भी गांठ बांध लीजिये कि सीसीटी कैमरे और सख्त से सख्त कानून इसका इलाज नहीं.