कथित संत आसाराम को आजीवन कारावास की सजा मिली. इन दिनों इस पर काफी चर्चा चल रही है. दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं के अलावा ढोंगी बाबाओं पर भी.

क्या पुरुषों को यह नहीं सिखाया गया है कि उसका पुरुषत्व इसी में है कि वह जब चाहे अपनी हवस पूरी करे? बचपन से उसे कहा गया कि वह मर्द है, मर्द होने का मतलब तो उसे बताया नहीं गया. उसने अपने अनुभव से, समाज के अन्य पुरुषों के आचरण से यही सीखा- मर्द यानी कि जो अपनी हवस पूरी करे चाहे जैसे हो. जबरन संबंध बनाना, यानी दुष्कर्म या बलात्कार भी. तभी तो मर्दानगी दिखेगी.

यह पुरुष प्रधान समाज है. उसे ही केंद्र में रख सामाजिक कानून बने हैं. इसलिए भी कि ये नियम/ कानून भी पुरुषों ने ही बनाये हैं; और पुरुष श्रेष्ठता के ‘सिद्धांत’ से सहमत व ‘अनुकूलित’ महिलाएं भी ऐसे नियमों से सहमत रहती हैं. अतः हर दुष्कर्म के बाद भी दोषी पुरुष तो बस ‘प्राकृतिक’ नियमों के वश में बेचारा, बता कर बरी कर दिया जाता है. मुलायम सिंह का बयान कि ‘बच्चों से गलती हो जाती है’, असल में पूरे समाज का बयान है. जो भी दुष्कर्म और बलात्कार करता है, उसके लिए क्षम्य है. पर जिसके साथ किया जाता है, और जो पीड़ित है, उसके लिए घोर पाप! मिट्टी की हांडी की कोई गलती नहीं कि कुत्ते ने उसे जूठा कर दिया. पर अब उसका भविष्य तोड़ दिया जाना है और फेंक दिया जाना ही है. अब आप ही बताएं, कुत्ते का क्या कसूर ,

यही हमारा समाज है, जो अपराधी का ,पापी का तो साथ देता है, कभी उसके जघन्य कृत्य को नजरअंदाज करता है तो कभी मर्द कह कर

पीठ भी थपथपाता है. और गलत तो कभी मानता ही नहीं. और पीड़िता को या तो कुएं में डूब मरना है या वेश्यावृत्ति के अंधकूप में दफन हो जाना है. वही मिट्टी की हांडी.

आज स्थिति जरूर थोड़ी बदली है. मगर आज भी बात छुपाने और दबाने की पूरी कोशिश होती है. क्योंकि सारे दुष्कर्मी, बलात्कारी तो सामान्य जीवन जीने के हकदार हैं, मगर पीड़िता को इसका हक नहीं. जीवन भर वह पीड़ित होने के लांछ्ण ढोती है. तभी तो हमने कानून भी बना रखा है कि दुष्कर्म पीड़िता का नाम/ परिचय सार्वजनिक नहीं किया जाये!

क्या हमारे बहुतेरे मठों और मंदिरों में हमेशा से दासी, देवदासी रखने की परंपरा नहीं रही? क्या लड़कियां छोटी उम्र में ही किसी देवता की सेवा के बहाने देह व्यापार में नहीं ढकेल दी जाती थीं.

कहां और कौन इन परंपराओं का विरोधी रहा. हमेशा से धर्माचार्यों को इसकी छूट रही है. सभी धर्मों के पूजा स्थलों में स्त्रियों के कमोबेश दैहिक शोषण की खबरें आती ही हैं. मगर यह सामान्य सी खबर होती है. तभी तो कोई रामरहीम तो कोई आसाराम वगैरह वगैरह आराम से इतने सालों यह सब करते रहे और आदर भी पाते रहे. ये ढोंगी बाबा नहीं हैं. बाबा तो ऐसे हो ही सकते हैं. उनकी इच्छा होगी तो किसी के साथ चाहे वह बच्ची ही क्यों न हो, अपनी हवस पूरी करें, इसमें कोई दोष नहीं. तभी तो ऐसे दुष्कर्मी बाबा सजा मिलने से हतप्रभ रह जाते हैं. उनके मुताबिक यह तो परम ज्ञानियों का हक है.

सबसे बड़ी बात है कि जो आम आदमी का हक रहा है उसके लिए धर्माचार्यों को कैसे अपराधी ठहराया जा सकता है. वे समाज के लिए कितना कुछ कर रहे हैं, क्या पांच दस स्त्रियों का सम्मान या जीवन इतना महत्वपूर्ण है?

हां, बड़ी बड़ी चर्चा होती रहे, पर हमारे बेटे मर्दानगी दिखाते रहें. अपराधी के बजाय पीड़िता सजा भोगती रहे , तो यह सब चलता ही रहेगा. एक सरकारी विज्ञापन है, एक छोटी बच्ची अपने घर में इधर-उधर भाग रही है, छुप रही है, भयाक्रांत. किससे भाग रही है? घर के ही किसी सदस्य से. आकड़े बताते हैं कि बाल यौनाचार के अधिक अपराधी परिवारजन ही हैं. वे चाचा, मामा ,इनके मित्र, भाई पिता के मित्र कभी कभी खुद भाई या पिता भी, कोई भी हो सकता है. कोई भी आदमी, रिक्शा वाला गाड़ीवाला, रिश्तेदार हर किसी से उसे खतरा हो सकता है. उसका शरीर तो तार तार होगा ही ,जीवन भी तार तार होगा. पुरुषों को अपराधी नहीं स्वीकार करने वाला हमारा समाज इसका दोषी है. और औरतें यौन उत्पीड़न झेलने के बाद समाज के उत्पीडन के डर से भयाक्रांत. कानून मददगार होता है मगर असल जिम्मेदारी तो समाज की है. जबतक दुष्कर्मी को चाहे वह कितना भी करीबी न हो हम सजा नहीं देते, उसे सुधारने की ठान नहीं लेते और उससे सतर्क नहीं रहते यह सब नही बदलेगा. आखिर हत्यारों से हम कैसा बर्ताव करते हैं? पर पहले उसे गंभीर अपराध तो माने. और पीड़िता के साथ खड़े हो. येनकेनप्रकारेण उसे सजा न मिले. उसपर न दोष थोपा जाए न उसे सामाजिक अनादर मिले. तभी कोई भी कानून प्रभावी होगा.