मोदी और अमित शाह लगातार यह दावा करते रहते हैं कि आदिवासी भाजपा का समर्थक है और प्रमाण यह पेश करते है कि आदिवासीबहुल झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और मध्यप्रदेश में भाजपा का शासन है. हालांकि यह उसी तरह का भ्रम बनाना है जैसे 31 फीसदी वोट प्राप्त कर देश की सत्ता पर काबिज होना और दावा करना कि देश की विशाल आबादी ने उन्हें चुन कर सत्ता में भेजा है. जबकि हकीकत यह है कि 69 फीसदी जनता ने भाजपा के खिलाफ वोट दिया.

उसी तरह आदिवासीबहुल राज्यों में भी संसदीय राजनीति की विडंबनाओं और भाजपा विरोधी मतों के विभाजन की वजह से भाजपा सत्ता में बनी हुई है और उसे यह मिथ्या प्रचार करने का मौका मिल गया है कि आदिवासी जनता उसके साथ है. वरना विचारणीय प्रश्न तो यह है कि जिस ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था में आदिवासी परिगणित नहीं और जिस समाज ने आदिवासियों को हमेशा मनुष्येतर प्राणी के रूप में चित्रित किया, आदिवासी उस हिंदुत्ववादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व पार्टी,भाजपा, का समर्थक कैसे हो सकता है?

दरअसल, यह संसदीय राजनीति की विडंबना है और आदिवासीबहुल राज्यों की विशेष राजनीतिक परिस्थितियां, जिसमें भाजपा अपने विरोधी दलों पर भारी पड़ती है. विरोधाभासी तथ्य यह कि आदिवासियों गैर— आदिवासियों के बीच एक विरोधभाव के बीच ही भाजपा को राजनीतिक धार मिलती है. और उस धार से आदिवासी हितों का सर्वनाश कर भाजपा इस मिथ्या प्रचार में लगी रहती कि आदिवासी उसके समर्थक हैं.

इस बात को कोई भी आसानी से समझ सकता है कि आदिवासी और गैर-आदिवासी, स्थानीय और बहिरागतों के बीच हितों का टकराव लगातार बना रहता है. आदिवासी समाज बहिरागतों को आक्रमणकारी-अतिक्रमणकारी समझता है और बहिरागत आदिवासियों को विकास विरोधी. आदिवासियों को लगता है कि गैर- आदिवासी और बहिरागत जल, जंगल, जमीन उनसे छीन रहे हैं, गैर- आदिवासी इस मिथ्या अहंकार के शिकार कि वे जंगली और असभ्य आदिवासियों को जीने का सलीका सिखा रहे हैं. आदिवासी जनता एक सुस्पष्ट डोमिसाईल नीति चाहती ताकि उन्हें तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों में लाभ मिले, गैरआदिवासी इसे अपने प्रति भेदभाव मानते हैं. इसलिए समतल क्षेत्रों की राजनीति से भिन्न पठारी इलाकों में एक अंडर करेंट स्थानीय और बहिरागतों के बीच विरोध का सतत बना रहता है.और इस मनोदशा का लाभ उठा भाजपा गैर—आदिवासियों को आदिवासीबहुल इलाकों में अपने पक्ष में आसानी से गोलबंद कर लेती है.

अब हुआ यह है कि आदिवासी बहुल इलाकों में आदिवासी आबादी का अनुपात तेजी से कम होता जा रहा है. आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिक दल मूलतः आदिवासी वोटों पर निर्भर रहते हैं, जबकि गैर आदिवासी या कहिये भाजपा-कांग्रेस जैसी पार्टियां गैर आदिवासी वोटों के साथ आदिवासी वोटों का एक छोटा सा हिस्सा भी प्राप्त कर आदिवासी पार्टियों पर भारी पड़ती हैं. जबकि गैर आदिवासी किसी आदिवासी पार्टी को वोट दें, यह बहुत कम मौकों पर होता है, वह भी तब जब आदिवासी किसी राष्ट्रीय पार्टी का प्रत्याशी बन कर मैदान में हो. इस तरह की राजनीतिक संकीर्णता आदिवासी भी दिखलाते हैं, लेकिन यदि राष्ट्रीय पार्टी से कोई आदिवासी नेता खड़ा हो तो अपने प्रभाव से कुछ आदिवासी वोट हासिल करने में सफल हो जाता है.

और आदिवासी वोटों का एक हिस्सा प्राप्त करने के लिए वे तरत-तरह की तिकड़में करते हैं. मसलन, आदिवासी समर्थक होने का मिथ्या प्रचार, ईसाई आदिवासी के विरु़द्ध गैर-ईसाई आदिवासी को गोलबंद करना, सत्ता की राजनीति में शामिल आदिवासी नेताओं को अपनी जमात में शामिल कर आदिवासी जनता को बरगलाना आदि. ‘आदिवासी जनता को मुख्यधारा’ में लाने के लिए कांग्रेस भी सतत मुहिम चलाती रहती थी, भाजपा वर्षों से आदिवासी जनता के बीच ‘सरना-सनातन एक हैं’ का खतरनाक खेल खेल रही है. और आदिवासी जनता के एक हिस्से को बरगलाने में सफल भी रही है.

कैसे कैसे तिकड़मों का वह सहारा लेती है इसे हम झारखंड में देखते रहे हैं. एमरजंसी के पहले भाजपा या जनसंघ का खाता भी झारखंड क्षेत्र में नहीं खुला था. एमरजंसी के बाद हुए विधानसभा चुनाव में टुंडी क्षेत्र से पहली बार भाजपा के प्रत्याशी सत्यनारायण दुधानी चुनाव जीते थे. वह भी इसलिए कि उस सीट पर झारखंड क्षेत्र के दो सूरमा- शिबू सोरेन और स्व.शक्तिनाथ महतो एक दूसरे के मुकाबले खड़े हो गये थे. झारखंड अलग राज्य के गठन के पूर्व भाजपा ने वनांचल प्रदेश भाजपा का गठन किया और बाबूलाल मरांडी को उसका अध्यक्ष बनाया. पहला मुख्य मंत्री भी उन्हें ही बनाया. बाद में अर्जुन मुंडा को, लेकिन झारखंडी अस्मिता—एकता को छिन्न भिन्न करने के बाद उसके लिए यह जरूरी नहीं रहा कि प्रदेश का मुख्यमंत्री किसी आदिवासी को बनाया जाये. पहले डोमेसाईल का विवाद पैदा किया, पंचायत के एकल पदों पर आदिवासियों की बहाली को लंबा तूल देकर 2005 के चुनाव के पहले आदिवासी-कुरमी विवाद को गहराया, सीएनटी एक्ट के संशोधन के प्रयास में विफल होने के बाद धर्मातरण को मुद्दा बना कर आदिवासी समाज की एकता को तोड़ने की साजिश की.

और अब दंभ पूर्वक आदिवासियों के रहनुमा होने का दावा कर आदिवासी क्षेत्र की संपदा को कारपोरेट को बेचने-सौंपने में लगी है भाजपा.