अपने पिछले लेख ‘जिन्ना पर नाहक जिद!’ में व्यक्त विचारों और स्टैंड पर कमोबेश अब भी कायम हूं. मगर इस बीच एक संदेह भी हुआ है- यह कि मैं इस विवाद में जिन्ना की तस्वीर हटाने के लिए सत्ता/सरकार समर्थित संकीर्ण हिंदूवादी सगठनों की निहायत आपत्तिजनक हरकतों (जिसे गुंडागर्दी ही कहा जा सकता है) का परोक्ष समर्थन कर रहा हूं. हालांकि उसमें भी मैंने लिखा था : ‘…संघ समूह की हरकतें लगातार जिन्ना की उस आशंका को सच साबित करती रही हैं कि एक हिंदू बहुल देश और ‘बहुमत’ पर आधारित लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों, खास कर मुसलमानों का हित/भविष्य सुरक्षित नहीं रह सकता. ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने की प्रत्यक्ष/परोक्ष जिद भी प्रकारांतर से भारत विभाजन का औचित्य ही सिद्ध करती है…’ फिर भी मैं जोर देकर कहना चाहता हूं, जो मुझे पहले भी कहना चाहिए था, कि योगी के जेबी संगठन ‘हिंदू युवा वाहिनी’ और एवीबीपी के कार्यकर्ताओं ने जिस तरह जिन्ना के बहाने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) परिसर में उत्पात किया, उनके खिलाफ कार्रवाई न कर (बहाना यह कि एएमयू केन्द्रीय विवि है) प्रदेश सरकार खुलेआम इस गुंडागर्दी को संरक्षण दे रही है; साथ ही केंद्र सरकार पूरे प्रकरण में चुप्पी बरत कर अपनी संकीर्णता और अपने मुस्लिम विरोधी चरित्र का परिचय दे रही है. इसलिए पाठक इस लेख को, प्रकारांतर से ‘भूल सुधार’ भी मान सकते हैं. इस मुद्दे पर दोबारा लिखना इसलिए भी जरूरी लगा कि एक तो उन लोगों ने ही जिन्ना के जिन्न को बाहर निकला; और उस योजनाबद्ध-बदनीयत हंगामे का विरोध करनेवालों पर ‘जिन्ना-मानसिकता’ से ग्रस्त और जिन्ना-समर्थक होने का आरोप भी लगाया जा रहा है.

बेशक अब भी मानता हूं कि हमें (सेकुलर/उदार जमात को) जिन्ना के पक्षधर के रूप में नहीं दिखना चाहिए, मगर यह भी कि महज इस आशंका के कारण जिन्ना की आड़ में संघ/ संकीर्ण हिन्दूवादियों द्वारा एएमयू को ‘गदारों’ वा पकिस्तान-परस्तों का गढ़ साबित करने के प्रयास के विरोध में खड़े होने से भी नहीं हिचकना चाहिए.

यह ‘उनका’ आजमाया हुआ फार्मूला (और रणनीति भी) है कि संघ/भाजपा और इनसे जुड़े अन्य संगठनों की आलोचना को हिंदू धर्म और समाज की आलोचना; और ऐसे आलोचकों को हिंदू-द्रोही और देशद्रोही के रूप में चित्रित करेंगे. जिस तरह कभी जिन्ना मुस्लिम लीग की अलगाववादी नीतियों का विरोध करने के कारण कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं को मुस्लिम विरोधी और हिंदू नेता बताते थे.

सबसे पहले तो इस विवाद के कानूनी और संवैधानिक पहलू को देखते हैं. क्या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) परिसर या देश में और कहीं भी जिन्ना की तस्वीर लगाना गैरकानूनी है? कोई अपराध है? यदि है, तो यूपी या केंद्र सरकार ने अब तक उसे हटाया क्यों नहीं? जाहिर है कि यह कानून का सवाल नहीं है. हां, यह कानून-व्यवस्था का मामला तब जरूर बन गया, जब उग्र/अतिवादी हथियारबंद हिंदू तत्व जिन्ना की तस्वीर हटाने की मांग करते हुए एएमयू परिसर में घुस गये; और विवि के इस गुंडागर्दी का विरोध कर रहे छात्रों पर हमला भी कर दिया. पुलिस न सिर्फ मूकदर्शक बनी रही, बल्कि उल्टे शांतिपूर्ण विरोध के लिए सड़क पर निकले छात्रों पर लाठीचार्ज भी कर दिया. और एएमयू के विद्यार्थी जिन्ना की तस्वीर हटाये जाने की मांग का नहीं, इस नाम पर एवीबीपी और हिंदू हुवा वाहिनी की ज्यादती का विरोध कर रहे थे, कर रहे हैं. संभव है, उनमें कोई जिन्ना का आदर भी करता हो. लेकिन किसी बहाने इस संस्थान और असल में पूरे मुसलिम समुदाय को पाकिस्तान्परस्त और ‘गद्दार’ घोषित करने का जो प्रयास हो रहा हो, उसे समझने की जरूरत है. वैसे तो, इस प्रकरण में जिन्ना तो महज बहाना हैं, मकसद तो देश में सांप्रदायिक तनाव और उन्माद का वातावरण बनाये रखना है, जो इनकी राजनीति के लिए जरूरी है.

जब खुद माननीय प्रधानमंत्री आये दिन अपने अद्भुत इतिहास ज्ञान का परिचय देते रहते हैं, तब उन उत्पाती युवाओं से यह उम्मीद नहीं ही रखनी चाहिए कि उन्हें देश के इतिहास, खास कर आजादी के आन्दोलन और उसमें जिन्ना, गांधी, नेहरू और सावरकर-गोलवलकर आदि की भूमिका की कोई जानकारी होगी. वे तो महज प्यादे हैं. जितना कहा गया, उतना कर गये.

जिन्ना के प्रति हमारी जो भी धारणा हो, यह तो सर्वज्ञात है कि वे पाकिस्तान के संस्थापक हैं. पाकिस्तान में, उन्हें आधिकारिक रूप से ‘क़ायदे-आज़म’ यानी महान नेता और ‘बाबा-ए-कौम’, यानी राष्ट्र पिता के नाम से नवाजा जाता है. जैसे भारत में महात्मा गांधी को माना जाता है. और तथ्य यह भी है कि देश की सत्ताधारी जमात के नेतागण पाकिस्तान के खिलाफ जितना भी विषवमन करते हों, वह ‘आधिकारिक’ रूप से अब भी भारत का ‘मोस्ट फेवर्ड नेशन’ है. ऐसे में भारत का कोई नेता या सरकार का कोई प्रतिनिधि (प्रधानमंत्री सहित) पाकिस्तान की यात्रा पर जायेगा, तो जिन्ना के बारे में क्या बोलेगा? क्या उनकी आलोचना करेगा?

कोई भारतीय, खास कर संघी, लेनिन, स्टॅलिन या माओ के बारे में भी जो भी सोचते हों, रूस और चीन में जाकर क्या अपने ‘मन की बात’ बोल सकेंगे?

यह तो इतिहास में दर्ज है कि तीस के दशक के पहले तक जिन्ना, मुस्लिम लीग में शामिल होने के बावजूद, राष्ट्रवादी और सेकुलर भी थे. उल्लेखनीय है कि गांधी जी ने ‘खिलाफत आंदोलन’ का समर्थन किया था, जबकि जिन्ना ने इसका खुल कर विरोध किया. जिन्ना मानते थे कि इससे धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा मिलेगा. एक तरह से यह आशंका सच भी साबित हुई; और मजे की बात यह कि संघी लोग भी इस मामले में, ठीक जिन्ना की तरह गांधी की आलोचना करते रहे हैं. भाजपा के ‘मार्गदर्शक मंडल’ (या वृद्धाश्रम!) में शामिल एलके आडवाणी तो आज भी कराची (पाकिस्तान) में जिन्ना की मजार पर दिए उस वक्तव्य पर कायम हैं, जिसमें उन्होंने जिन्ना को सेकुलर और महान नेता कहा था. लेकिन ‘ये लोग’ श्री आडवाणी के खिलाफ कुछ नहीं बोलेंगे. न ही भाजपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य या अपने सांसद सावित्री फुले के खिलाफ, जो मौजूदा विवाद के बाद भी जिन्ना की तारीफ़ कर चुके हैं.

खुद जिन्ना ने बंटवारे के बाद कहा था- ‘..मुझे मालूम है कि कई लोग देश के विभाजन - पंजाब और बंगाल के बंटवारे से सहमत नहीं हैं. लेकिन मेरी राय में इसके इलावा कोई और समाधान नहीं था. मुझे उम्मीद है भविष्य मेरी राय के पक्ष में फ़ैसला देगा.’ क्या आज भारत में जिन्ना के विरोधी खुद अपनी हरकतों से जिन्ना का सही साबित नहीं कर रहे.

विकिपीडिया के मुताबिक- ‘1937 में हुए सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली के चुनाव में मुस्लिम लीग ने कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी और मुस्लिम क्षेत्रों की ज्यादातर सीटों पर कब्जा कर लिया. हालांकि इस चुनाव में मुस्लिम बहुल पंजाब, सिन्ध और पश्चिमोत्तर सीमान्त प्रान्त में उसे करारी हार का सामना करना पड़ा. जिन्ना ने कांग्रेस को गठबन्धन के लिए आमन्त्रित किया. पहले तो दोनों ने फैसला किया कि वे अंग्रेजों से मिलकर मुकाबला करेंगे, लेकिन जिन्ना ने शर्त रखी कि कांग्रेस को मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र और मुस्लिम लीग को भारत के मुसलमानों का प्रतिनिधि मानना होगा, जिसे कांग्रेस ने अस्वीकार कर दिया. आगे चलकर जिन्ना का यह विचार बिल्कुल पक्का हो गया कि हिन्दू और मुसलमान दोनों अलग-अलग देश के नागरिक हैं अत: उन्हें अलहदा कर दिया जाये. उनका यही विचार बाद में जाकर जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद का सिद्धान्त कहलाया.’

लेकिन श्री सावरकर ने तो इसके पहले ही हिंदू और मुसलमान को दो भिन्न राष्ट्र (नेशन) बता कर देश विभाजन के सिद्धांत का प्रतिवादन कर दिया था. बेशक संघ आज भी ‘अखंड भारत’ की बात करता है, मगर उस भारत में, सावरकर और संघ के मुताबिक, अल्पसंख्यक दोयम दर्जे के नागरिक बन कर ही रह सकते हैं. ऐसे में अंग्रेजों के जाने के बाद ‘बहुमत’ आधारित लोकतान्त्रिक व्यवस्था में अपने अधिकारों और सुरक्षा के बारे में अल्पसंख्यकों की आशंका को क्या सिरे से ख़ारिज किया जा सकता था/है? तभी तो जिन्ना ने कहा था कि (आजाद) भारत में मुसलमानों के साथ अन्याय होगा और अन्त में गृहयुद्ध फैल जायेगा.

बेशक हम जिन्ना को पसंद नहीं करते, पर उतना ही नापसंद सावरकर को भी करते हैं.

इन दिनों नरेंद्र मोदी और उनके संगी-साथी डॉ आम्बेडकर को भी बड़े आदर से याद करते हैं. जरा देखें कि डॉ आम्बेडकर ने विभाजन पर क्या कहा था- ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ शीर्षक पुस्तक में उन्होंने ने लिखा है- ‘.. अंगरेजों को भारत में आक्रामक हिंदू बहुसंख्यकों को अपना उत्तराधिकारी बना कर जाने और उसे ही देश के अल्पसंख्यकों से अपनी सहूलियत के बुताबिक निपटने का अधिकार देने का अधिकार नहीं है. इससे साम्राज्यवाद खत्म नहीं होगा, बल्कि एक नया साम्राज्यवाद स्थापित हो जायेगा…’

आज इन आक्रामक/संकीर्ण हिन्दूवादियों ने अपने आचरण से जिन्ना और डॉ आम्बेडकर की शंकाओं को और गहरा कर दिया है. इसलिए, अलीगढ़ का सुनियोजित विवाद और कुछ नहीं, आक्रामक हिंदुत्व की ललकार है- जिसका लक्ष्य ‘हिंदू राष्ट्र’ बनना है. नेहरू के शब्दों में भारत को ‘हिंदू पकिस्तान’ बनाना है.

सोशल मीडिया पर इन दिनों ‘हिंदुत्व अभियान’ नामक किसी संगठन का एक मैसेज घूम रहा है, जिसके अंत में कहा गया है- ‘..हिन्दू होने के नाते, यह हमारा कर्तव्य है कि हम इस राष्ट्रविरोधी जिन्ना मानसिकता, जो धीरे-धीरे विष की तरह भारत में फैलता जा रहा है, का दृढ़ता से विरोध करें.’ नीचे ‘बैन एएमयू’ भी लिखा है.

तो असली मकसद यह है! ये लोग ‘भारतीय’ नहीं, सिर्फ ‘हिंदू’ हैं. आम हिंदू भी नहीं. गांधी-विवेकानंद की धारा के नहीं, गोडसेवादी और सवारकरवादी हिंदू. यह तो समय ही बताएगा कि देश का अब तक उदार रहा बहुसंख्यक हिंदू समुदाय आगे किस राह पर चलना पसंद करता है- जिन्ना-सावरकर के धर्म आधारित राष्ट्र और टकराव के को या गांधी-नेहरू-पटेल- आजाद आदि के बहुलतावादी-समन्वयवादी रास्ते को.