रविवार 13 मई को केन्स अंतरराष्ट्रीय फिल्म उत्सव में उपस्थित 81 महिला कलाकारों ने रेड कारपेट पर चल कर लिंगभेद से महिलाओं को होने वाले अपमान के खिलाफ ऐतिहासिक विरोध दर्ज किया. इन 81 महिलाओं में केट ब्लैनचेट भी थीं, जो एक प्रसिद्ध अभिनेत्री होने के साथ उस उत्सव की जूरी की अध्यक्षा थीं. आम तौर पर फिल्मी उत्सवों में रेड कारपेट पर चलने वाली महिला कलाकारों के कपड़े, मेकअप, आदि की चर्चा अधिक होती है और समाचार भी बनते हैं, लेकिन इस बार का रेड कारपेट वाक अपने आप में एक अनूठा काम रहा. उपस्थित सारी महिलाएं पहले एक जगह एकत्रित हुई, दस- दस का दल बनाकर एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए पूरी शांति के साथ उस सभागार में पहुंचीं, जहां इस उत्सव के आयोजक बैठे हुए थे. और उन्हें अपना विरोध पत्र सौंपा. उनके विरोध का मुख्य स्वर था पुरुष प्रधान समाज में औरतों के साथ होने वाला भेद भाव और यौन शोषण. फिल्म उद्योग के सारे चमक दमक के पीछे भी वही महिला शोषण की कहानी है. किसी भी महिला डाईरेक्टर को आगे नहीं बढ़ने दिया जाता है. महिला कलाकारों को पुरुषों की अपेक्षा कम मेहनताना मिलता है और शारीरिक शोषण तो आम बात है. ऐसी स्थिति भारतीय फिल्म उद्योग में भी है. इस उत्सव में उपस्थित भारतीय कलाकारों ने भी इस विरोध प्रदर्शन में पूरी संवेदना के साथ भाग लिया. देखा जाये तो नारी वादी आंदोलन की शुरुआत पश्चिमी देशों से हुई, लेकिन एक युग बीत जाने के बाद भी औरत-मर्द के बीच की इस गैरबराबरी में कोई कमी नहीं आई है.

भारतीय कलाकारों से जब पूछा गया कि वे अपने देश में इस तरह के विरोध का प्रदर्शन क्यों नहीं करती हैं, तो उनका उत्तर था कि भारत में यह गैर बराबरी और शोषण और अधिक है, लेकिन कोई महिला इसका विरोध नहीं कर पाती है. अगर कोई महिला विरोध करती भी है तो वह अकेली पड़ जाती है और उसका साथ देने वाला कोई नहीं होता. ऐसी स्थिति में लोग महिला को ही चुपचाप अन्याय झेल लेने की सलाह देते हैं. पाश्चात देशों में चला - ‘मी टू’ आंदोलन इसीलिए सफल रहा क्योंकि वहां की कई प्रसिद्ध महिलाओं ने अपने साथ हुए यौन शोषण तथा शोषक पुरुष का नाम तक बताने का साहस किया. उनके इस काम के लिए उन्हें सराहा गया और कई अन्य महिलाओं को भी अपनी बात कहने का साहस हुआ.

भारत में महिला हिंसा या शोषण को कम करने के लिए सरकार ने कई कड़े कानून बनाये हैं. महिला आंदोलनकारियों को इन कानूनों का हवाला देकर विरोध प्रदर्शन से चुप भी कराया जाता है. इतने सारे कानून और उन कानूनों को लागू करने के लिए एक तंत्र होते हुए भी महिला हिंसा में कोई कमी नहीं आई है. बलात्कार तथा बलात्कार के बाद हत्या के मामले हर दिन की बात हो गई है. किसी भी कार्यक्षेत्र में महिलाएं पुरुषों का मुकाबला नहीं कर सकती हैं और न सुरक्षित हैं. यहां तक कि राज्यपाल भी महिला पत्रकार के गाल को सहला कर बात करते हैं. ये सारी घटनाएं यही बताती हैं कि पुरुष और स्त्री के स्तर में इतना अंतर है कि पुरुष हमेशा अपनी श्रेष्ठता के प्रदर्शन के लिए तैयार रहते हैं.

यहां महिला उत्पीड़न के संबध में अंतराष्ट्रीय स्वास्थ संगठन की बात ध्यान देने योग्य है जिसके अनुसार जब हम लिंग भेद की व्याख्या जैविक रीति से करते हैं तो स्त्री-पुरुष के बीच का अंतर केवल शरीर की संरचना का अंतर होता है, लेकिन लिंग भेद की व्याख्या सामाजिक स्तर पर हो तो उसमें एक समाज में स्त्री और पुरुष के द्वारा किये जाने वाले सारे व्यवहार और क्रिया कलाप का अध्ययन होता है और यह अध्यन स्त्री और पुरुष के बीच के अंतर को बताता है. एक पुरुष के काम या अधिकार उसको स्त्री से श्रेष्ठ स्थापित करते हैं और उसकी तुलना में स्त्री को उसकी सहायक या निर्भर दिखाया जाता है. यह अंतर ही उसे दोयम दर्जे का नागरिक बनाता है. अंततोगत्वा वह एक उपभोग की वस्तु बन कर रह जाती है. यौन शोषण या स्त्री हिंसा के सारे कानून इसी पुरुष प्रधान समाज की देन है और उनको कार्यरूप में लाने वाले भी पुरुष ही होते हैं. इसलिए पुरुष के अपराध को स्वीकारा नहीं जाता, छुपाया जाता है या पुरुष को बचाने का प्रयास होता है. इसलिए सामाजिक स्तर पर जब तक स्त्री संबंधी सोच में अंतर नहीं आयेगा, लिंग भेद के इस अंतर और स्त्री हिंसा में कमी नहीं आयेगी.