विकास का अर्थ जगमग रौशनी, चैड़ी सड़के, आधुनिक अस्पताल, पब्लिक स्कूल, मोटा पर्स आदि आदि होता है. लेकिन झारखंड के आदिवासियों के लिए विकास का अर्थ उनकी जमीन की लूट ही है. उनकी कब्र पर ही विकास का महल इस राज्य में खड़ा होता रहा है और अलग राज्य बन जाने के बाद भी वह सिलसिला जारी है. विडंबना यह कि आदिवासी समाज का भी एक तबका विकास के इस माडल का समर्थक बन चुका है और एक तबका भारतीय संविधान का मुरीद, जो हो रही लूट के बरबक्स हवा में पेसा कानून, सीएनटी एक्ट आदि के पन्ने हवा में लहराता रहता है. जो यह भूल चुका है कि बगैर संगठन और संघर्ष के ये कानून हाथी के दिखाने वाले दांत बन कर रह गये हैं.

यहां यह याद दिलाना होगा कि झारखंड के अधिसूचित क्षेत्रों के लिए सीएनटी और एसपीटी एक्ट के होते हुए भी आजादी के तुरंत बाद राष्ट्र के विकास और आदिवासियों को विकास का सब्जबाग दिखा कर उनकी जमीन की लूट होती रही है. यहां हम तीन कारखानों की बात करेंगे जिनके लिए पचास के दशक में ही जमीन का अधिग्रहण किया गया, उस पर उद्योग भी लगे, लोगों को रोजगार भी मिला और एक बेहतर जीवन भी, लेकिन उससे आदिवासी समाज को सिर्फ और सिर्फ विस्थापन का दंश मिला. हम यहां चर्चा कर रहे हैं एचईसी, सिंदरी और पतरातु थर्मल प्लांट की. ये तीनों कारखाने एक बार फिर चर्चा में हैं.

एचईसी इसलिए कि यह कारखाना पिछले एक दशक से मृतप्राय है. इस कारखाना में अब नियमित मजदूर नहीं रहे. मुट्ठी भर अधिकारी और बाबू किस्म के कर्मचारी है. भूमंडलीकरण के शिकार इस कारखाने की जमीन की अब बंदरबांट हो रही है. कारखाना तो चलने वाला नहीं, अब इसकी जमीन पर स्मार्ट सिटी बनेगा. 656.3 एकड़ जमीन झारखंड सरकार प्राप्त कर चुकी है जिसके एवज में 743 करोड़ रुपये एचईसी को मिलने हैं. कारखाना प्रबंधन का कहना है कि सरकार चाहे तो एचईसी की 1000 एकड़ जमीन ले ले. उससे जो प्रबंधन को पैसा मिलेगा उससे एचईसी का पुनरुद्धार होगा. बेशर्म एचईसी प्रबंधन पिछले दो दशकों से इसी तरह के तर्कों के आधार पर सरकार से मदद लेता रहा है. आज किसी को याद नहीं कि इस कारखाना के लिए हजारों आदिवासियों का विस्थापन हुआ जो कहां चले गये, किसी को पता नहीं. यह भी याद नहीं कि यदि अब एचईसी उनसे अर्जित जमीन का इस्तेमाल नहीं कर रही तो उसे उनके वारिसों को लौटा देना चाहिये या जमीन बेच कर पैसा कमाते हैं तो उस पर पहला हक एचईसी के विस्थापितों के परिजनों का है.

इसी तरह जिस सिंदरी खाद कारखाना का उद्घाटन प्रधानमंत्री नेहरु ने 52 में देश के पहले खाद कारखाने के रूप में किया था, वह वर्षों पहले बंद हो चुका है. बीच बीच में उसके रिवाईवल की योजना बनती है. एक बार सेल ने यह जिम्मा लिया और योजना बनी भी लेकिन वह हुआ नहीं. अब प्रधानमंत्री मोदी ने वहीं एक नये खाद कारखाने का शिलान्यास दो दिन पहले किया. यही कहानी पतरातु थर्मल पावर प्लांट की भी है जो बंद हो चुकी है जहां एक नया पावर प्लांट लगाने की बात हो रही है. यह भी स्पष्ट है कि सरकार के पास पैसा नहीं और निजी क्षेत्र के निवेश और उन्हें दी गई सरकारी मदद से ही ये प्लांट नये सिरे से लगेंगे.

यहां उल्लेखनीय है कि पचास और साठ के दशक में लगने वाले इन कारखानों के लिए जिन इलाकों को चुना गया, वे इलाके आदिवासीबहुल थे. चाहे रांची का हटिया क्षेत्र हो या पतरातु या सिंदरी क्षेत्र, प्राकृतिक सुषमा और सौंदर्य से भरे इन इलाकों में संथाल, मुंडा, उरांव व हो समुदाय के आदिवासी निवास करते थे. उनसे कौड़ियों के मोल जमीन ली गई. बहुत कम लोगों को रोजगार मिला, क्योंकि कहा गया कि वे स्किल्ड नहीं. नौकरी मिली भी तो कठिनतम श्रम वाला. और धीरे-धीरे वह भी खत्म हो गया.

जमीन अधिग्रहण के पहले सामान्यतः यह कहा गया कि उनका इस्तेमाल कारखाना, कर्मचारियों के अस्थाई निवास, कर्मचारियों के बच्चों के लिए स्कूल, अस्पताल आदि का निर्माण किया जायेगा. ज्यादातर क्वार्टर अस्थाई किस्म के बनाये गये कि नौकरी समाप्त होने के बाद बहिरागत वापस अपने गांव-घर-प्रदेश लौट जायेंगे. औद्योगीकरण का उद्देश्य आदिवासियों को उजाड़ कर बहिरागतों को यहां बसाना तो नहीं ही था. लेकिन लग यही रहा है कि विकास के पैरोकारों का लक्ष्य आदिवासियों को उजाड़ना और बहिरागतों को यहां बसाना था.

क्योंकि अब जब कारखाना बंद हो गया. जमीन का इस्तेमाल उन कारखानों के लिए नहीं हो रहा है जिनके लिए उसे विस्थापितों से अर्जित किया गया था, तो नियमतः वह जमीन वापस जमीन के मूल मालिकों या उनके परिजनों को मिलनी चाहिये. नये सिरे से यदि कोई कारखाना लगने जा रहा है तो सबसे पहले जमीन के मूल रैयतों के परिजनों से उनकी अनुमति लेनी चाहिये, नये सिरे से जमीन के अधिग्रहण के लिए नोटिफिकेशन होना चाहिये और वर्तमान दर पर मुआवजे की राशि तय होनी चाहिये.

लेकिन यह सब नहीं हो रहा. जमीन को मालेमुफ्त समझ प्रबंधन और एनडीए सरकार मिल कर उसकी बंदरबांट कर रहे हैं. कुछ आदिवासी युवाओं को भी लगता है कि यदि कारखाना लगा तो कुछ लोगों को रोजगार मिलेगा. लेकिन वे भ्रम में हैं. एक तो जो भी कारखाना अब लगेगा, वह तकनीकि रूप से आगे रहेगा, यानी, रोजगार कम रहेगा. कुछ अभियंता या बाबू किस्म के लोगों को रोजगार मिले तो मिले, मजदूर तो अब ठेके पर ही काम करेंगे.

मजेदार बात यह भी कि जो रोजगार पैदा होगा, उसके दावेदार पहले से बैठे हुए हैं. सिंदरी में काम करने वाले तमाम अवकाश प्राप्त और स्वैच्छिक अवकाश लेने वाले कर्मचारियों अधिकारियों की मांग है कि रोजगार पर पहला दावा उनके बच्चों का होगा जो पढ लिख कर बेकार बैठे हैं. क्योंकि उन्होंने कारखाना चलाने मेंउम्र गंवा दी और उनमें से बहुतों को स्वैच्छिक अवकाश लेने के लिए मजबूर किया गया.

और आदिवासी तो पहले भी अनस्किल्ड था और विस्थापित हो कर दर दर भटकते रहने की वजह से आज भी अनमें से अधिकतर अनस्किल्ड ही हैं. यानी, उनकी नियति विकास का खाद बनने की ही है. कर्नाटक में तो गोली चली, लेकिन झारखंड में रघुवर दास की सरकार मीठी छूरी की तरह काम कर रही है.