भूमि संशोधन बिल को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद एक बार फिर राजनीति गरम हो गई है. जिन लोगों ने झारखंड के विशेष भू कानूनों को कमजोर करने में पूर्व में अहम भूमिका निभाई और जो आज भी सरकार की गोद में बैठे हैं, वे भी एक बारगी मुखर हो उठे हैं. सोसल मीडिया पर गरमा गरम बयान आ रहे हैं. सबसे ज्यादा गुहार या रोना आदिवासी एकता में आई कमी को लेकर मचाई जा रही है. लेकिन गौर से देखें तो मामला सिर्फ एकता और राजनीति के दागलेपन का नहीं, आदिवासी समाज में पिछले कुछ दशकों में आई अप-संस्कृति का भी है.

आदिवासी समाज में एक ऐसे तबके का उदय हो चुका है जो मानता है कि जमीन से बंधे रहने मात्र से आदिवासियों का कल्याण नहीं. राज्य का तथाकथित विकास होगा, यानी, सड़क, नये कालेज, विश्वविद्यालय, आदि बनेंगे, तो इससे आदिवासियों को भी लाभ होगा. रोजगार के अवसर बढ़ेंगे. इस तबके को इस जमीनी हकीकत से कोई वास्ता नहीं कि स्कूल कालेज, अस्पताल, सड़क आदि के लिए जमीन सरकार को अब तक कैसे मिलती रही है? जो स्कूल कालेज, विवि आदि पहले से काम कर रहे हैं, उनमें नियमित पद रिक्त क्यों हैं? पढ़े लिखे आदिवासियों को भी रोजगार क्यों नहीं मिल रहा है?

आदिवासी समाज का एक तबका यह मानने लगा है कि उद्योग-धंधे से ही आदिवासी समाज का विकास होगा. रोजगार के अवसर मिलेंगे. वह यह समझने के लिए तैयार नहीं की नेहरु युगीन सार्वजनिक क्षेत्र के अनेकानेक कल कारखाने राज्य में लगे, लेकिन आदिवासियों को रोजगार तो नहीं मिला, मिला सिर्फ विस्थापन का दंश. जिन कल कारखानों के लिए विशाल भू खंडों का अधिग्रहण हुआ, अब वे खदान, कल कारखाने बंदी के कगार पर हैं और सरकार अधिग्रहित जमीन को मूल रैयतों को वापस करने के बजाय उनकी बंदरबांट करने में लगी है. पुराने उद्योगों, कल कारखानों के लिए जितनी जमीन सरकार ने अधिग्रहित की है, उन पर ही कई नये कल कारखाने लग सकते हैं, चाहे वह सिंदरी कारखाना, बोकारो स्टील, एचईसी, बीसीसीएल के लिए अर्जित जमीन हो, लेकिन सरकार बची खुची जमीन,खास कर शहरों के आस-पास की जमीन आदिवासी जनता से छीन लेने पर अमादा है.

एक कठोर सच्चाई से आदिवासी समाज का प्रबुद्ध तबका हमेशा आंख चुराता रहा है कि तमाम संरक्षणात्मक भू कानूनों के बावजूद आदिवासी जमीन की लगातार लूट हो रही है और इस लूट में आदिवासी समाज का ही एक तबका शामिल है जो पूंजीवादी व्यवस्था का दलाल बन चुका है. तमाम छुटभैये आदिवासी नेताओं के ऐश-मौज जमीन की दलाली से ही हो रहा है. वरना शहर के हृदय स्थली में पहाड़ तोड़ कर मार्केट कंपलेक्स बन रहे हैं, जयपाल सिंह स्टेडियम पर बुलडोजर चल गया, ट्राईबल लैंड पर लगातार कालोनिया बन रही है और विरोध का स्वर कहीं से क्यों नहीं उठ रहा?

स्वीकार कीजिये कि फूड-कोर्ट, माॅल, मल्टीप्लैक्स, नई तरह के सिनेमा हाल आदि आदिवासी एलीट क्लास को भी उतने ही भाते हैं जितने गैर आदिवासी समाज के एलीट क्लास को. फर्क सिर्फ यह है कि गैर आदिवासी समाज को यह सब बिनाकुछ गंवाये मिल रहा है, जबकि आदिवासी समाज के एलीट तबके को अपनी ही समाज की संस्कृति सभ्यता और आर्थिक आजादी के भग्नावशेष पर. और यह तबका भाजपा सरकार के साथ है. भाजपा ने पहले आदिवासी संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश की, धर्मांतरण विरोधी कानून, कुरमी आदिवासी विवाद आदि से झारखंडी समाज को कमजोर किया, फिर राजनीतिक रूप से शिकस्त दी, इसके बाद इस तरह के कदम उठा रही है. क्योंकि वह मान कर चल रही है कि विरोध करने वाले अनेकानेक स्वर उनके ही जेबी संगठन-पार्टी के सदस्य हैं. पक्ष और विपक्ष-दोनों की राजनीति और संस्कृति में कोई फर्क नहीं, न उससे उन्हें कोई खतरा है. उल्टे अगले चुनाव में गैर आदिवासी तो भाजपा के साथ रहेंगे ही, इस नये कानून को लेकर जो आंदोलन चलेगा, उससे आदिवासी समाज में भी एक ध्रुवीकरण होगा और एक हिस्सा उनके साथ गोलबंद होगा, जैसे पत्थरगड़ी आंदोलन के विरोधी सामान्यतः भाजपामुखी हैं.

इसका अर्थ यह नहीं कि इस संशोधन का विरोध नहीं होगा. विरोध तो होगा, लेकिन विरोध वे लोग करेंगे जो आज भी जमीन से बंधें हैं और जो मानते हैं कि यह कानून आदिवासियों से उनकी जमीन छीनने का प्रपंच है और जमीन खो कर आदिवासी समाज का सर्वनाश हो जायेगा.