यह ‘आलेख’ नहीं है। दो ‘तारीखों’ से जुड़े ‘तवारीख़’ की आज की तारीख में एकमुश्त ‘प्रस्तुति’ मात्र है। इससे भविष्य का कैसा तवारीख़ (इतिहास) रचा जा सकता है, यह हमारी और आपकी सामूहिक सोच-समझ पर निर्भर है।

एक तवारीखी घटना आजादी के 30 साल पहले के दौर की है, जब भारत ने ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति के संघर्ष के लिए सत्याग्रही गांधी का नेतृत्व स्वीकार किया था। दूसरी घटना आजादी के 60 साल बाद की है, जब दिल्ली में कांग्रेस गठबंधन का शासन था, लेकिन बंगाल में वाम गठबंधन की सरकार थी। यहां दोनों दौर की घटनाओं के ‘कुछ’ दस्तावेज प्रस्तुत किए जा रहे हैं (जो उपलब्ध हुए)। उन्हें जिस क्रम में प्रस्तुत किया जा रहा है, उसी क्रम में पढ़ने की किसी भी तरह की बाध्यता या मजबूरी से आप मुक्त हैं – इसे आप शुरू से, या बीच से या फिर अंत से भी पढ़ सकते हैं। अपेक्षा सिर्फ यह है कि आप इसे पूरा पढ़ने का कष्ट करें। पहली दस्तावेजी सामग्री की प्रस्तुति दो शीर्षकों में की गयी है – ‘गांधी का मार्क्स’ और ‘मार्क्सवादी का गांधी’। दूसरी सामग्री के लिए भी दो शीर्षक दिए गए हैं – ‘वामपंथी बुद्धिजीवी की पीड़ा’ और ‘समाजवादी की तलाश’। और हां, इस पूरी प्रस्तुति के अंत में प्रस्तुतकर्ता का मंतव्य है – ‘अंत में एक आवेदना’। इसका मूल प्रस्तुति से कोई सीधा संबंध नहीं है। कोई आतंरिक या अवांतर संबंध है या नहीं, यह परखना ‘समय’ के प्रति आपकी समझ की सीमा-संभावना पर निर्भर है।

गांधी का मार्क्स

यह सन् 1925 की बात है। दो अमेरिकी मित्रों ने गांधी को बड़े भावावेश में एक पत्र लिखा। उन्होंने कहा कि “गांधी धर्म के नाम पर शायद भारत में बोल्शेविज्म का प्रचार कर रहे हैं, जो न तो ईश्वर को मानता है, न नैतिकता को और स्पष्टत: नास्तिक है। उन्होंने कहा कि मुसलमानों की और गांधी की मैत्री एक नापाक मैत्री है और दुनिया के लिए एक खतरा है; क्योंकि आज मुसलमान बोल्शेविक रूस की सहायता से पूर्वी देशों में अपना प्रभुत्व जमाने की फिक्र में हैं।”

गांधीजी ने जवाब में एक आलेख लिखा – BOLSHEVISM OR DISCIPLINE? (‘बोल्शेविज्म या आत्म-संयम?’) यह आलेख ‘यंग इंडिया’ में छपा (21-8-1924)।

गांधीजी ने उक्त पत्र के उल्लेख के साथ अपने आलेख में लिखा : मेरे ऊपर यह आरोप इससे पहले भी लगाया गया है, पर अब तक मैंने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। पर अब तो जिम्मेवार विदेशी मित्रों ने शुद्ध भाव से यह इलजाम लगाया है, इसलिए मेरी समझ में इस पर विचार करने का समय अब आ पहुंचा है। सबसे पहले तो मैं यह स्वीकार करता हूं कि मुझे पता नहीं बोल्शेविज्म के माने क्या हैं? मैं इतना ही जानता हूं कि इस मामले में दो परस्पर विरोधी दल हैं - एक तो उसका बड़ा भद्दा और काला चित्र खींचा करता है और दूसरा उसे संसार की तमाम दलित-पतित और पीड़ित जातियों के उद्धार का आंदोलन बताता है। अब मैं नहीं कह सकता किसकी बात पर विश्वास करना चाहिए।

मैं तो इतना ही कह सकता हूं कि मेरा आंदोलन नास्तिक नहीं है। वह ईश्वर को नहीं नकारता। वह तो उसीके नाम पर शुरू किया गया है और निरंतर उसकी प्रार्थना करते हुए चलाया जा रहा है। नि:संदेह, वह एक जन-आंदोलन है। परंतु वह जनता तक उसके हृदय के द्वारा, उसकी धर्मबुद्धि को जगा कर ही पहुंचना चाहता है।

यह आंदोलन है क्या? यह तो एक प्रकार से आत्म-संयम की प्रक्रिया है और यही कारण है कि इसने मेरे कुछ अच्छे-से-अच्छे साथियों को अधीर बना दिया है। मुसलमानों से अपनी मित्रता पर मुझे गर्व है। इस्लाम ईश्वर को नकारता नहीं, बल्कि वह तो केवल एक सर्वशक्तिमान् ईश्वर को कट्टरता से मानता है। इस्लाम के बुरे-से-बुरे टीकाकार ने भी इस्लाम पर नास्तिकता का दोषारोपण नहीं किया। ऐसी हालत में यदि बोल्शेविज्म अनीश्वरवाद है तो उसमें और इस्लाम के बीच मैत्री का कोई समान आधार नहीं हो सकता। उस अवस्था में इन दोनों के बीच एक मरणांतक संघर्ष अनिवार्य है। ये दोनों मित्रों की तरह गले नहीं मिलेंगे, बल्कि परस्पर बैरियों की तरह जूझेंगे। मैंने अमेरिकी मित्रों के पत्र की भाषा का ही प्रयोग किया है। पर मैं अपने अमेरिकी पाठकों तथा औरों को सूचित करता हूं कि मैं किसी भ्रम का शिकार नहीं हूं। मेरा दावा तो बहुत ही मामूली-सा है। जो मित्रता है वह तो अली भाइयों के और मेरे बीच है, अर्थात कुछ बड़े ही सम्माननीय मुसलमान मित्रों के और मेरे बीच है। यदि मैं इसे मेरे नहीं, मुसलमानों और हिंदुओं के बीच मित्रता कह सकूं तो फिर पूछना ही क्या! पर हिंदू-मुस्लिम मित्रता तो लगता है दिवा-स्वन-जैसी सिद्ध हुई। इसलिए वास्तव में यही कह सकते हैं कि यह मित्रता कुछ मुसलमानों, जिनमें अली भाई भी हैं, और कुछ हिंदुओं के बीच है, जिनमें एक मैं भी हूं, अब यह हमें कहां तक आगे ले जायेगी, यह भविष्य ही बता सकता है। इस मित्रता में कोई बात गोलमोल या अस्पष्ट नहीं है। यह तो संसार में सबसे अधिक स्वाभाविक चीज है। दुख की बात तो यह है कि इस पर लोगों को आश्चर्य ही नहीं, आशंकाएं भी हैं। भारत के हिंदू और मुसलमान यहीं जन्मे और यहीं पले हैं। एक-दूसरे के दुख-सुख, आशा-निराशा के साथी हैं। ऐसी हालत में इससे बढ़कर स्वाभाविक बात क्या हो सकती है कि दोनों स्थायी तौर पर परस्पर मित्र और भाई, एक ही माता के पुत्र बन कर रहें? ताज्जुब तो इस बात पर होना चाहिए कि दोनों में झगड़े क्यों होते हैं; इस बात पर नहीं कि दोनों में एकता कैसे हो रही है। दोनों का यह सम्मिलन संसार के लिए एक संकट क्यों माना जाना चाहिए? दुनिया का सबसे बड़ा संकट तो आज वह साम्राज्यवाद है, जो दिन-पर-दिन अपने पैर फैलाता जाता है, दुनिया को लूटता जाता है, जिसे अपनी जवाबदारी का भान नहीं है और जो भारत को गुलाम बना कर उसके द्वारा दुनिया की तमाम निर्बल जातियों के स्वतंत्र अस्तिव और विकास के लिए खतरा उपस्थित कर रहा है। यह साम्राज्यवाद ही ईश्वर को धता बात रहा है। वह ईश्वर के नाम पर उसके आदेश के खिलाफ करतूतें करता है। वह अपनी अमानुषिकताओं, डायरशाही और ओ’डायरशाही को मानवता, न्याय और नेकी के आवरण में छिपा लेता है और इसमें भी अत्यंत दुख की बात यह है कि अधिकांश अंग्रेज नहीं जानते कि इसमें उनके ही नाम का दुरुपयोग किया जा रहा है। इससे भी बढ़कर करुणाजनक बात यह है कि सौम्य और ईश्वर भीरु अंग्रेजों के दिल में यह जंचा दिया जाता है कि भारत में तो चैन की बंसी बज रही है, जबकि दर हकीकत यहां करुण-क्रंदन हो रहा है; और अफ्रीकी जातियां भी अमन-चैन कर रही हैं, हालांकि वाकई वे उनके नाम पर लूटी और अपमानित की जा रही हैं। यदि जर्मनी और यूरोप के मध्यवर्ती राज्यों की शिकस्त ने जर्मन-रूसी संकट का अंत किया है, तो मित्र-राष्ट्रों की विजय ने एक नये संकट को जन्म दे दिया है, जो संसार की शांति के लिए उससे कम खतरनाक और घातक नहीं है। इसलिए मैं चाहता हूं कि हिंदुओं और मुसलमानों की यह मित्रता एक स्थायी सत्य बन जाये और उसका आधार दोनों के प्रबुद्ध हितों की परस्पर स्वीकृति हो। तब जाकर वह घृणित साम्राज्यवाद के लोहे को मानव-धर्म के सोने में बदल सकेगी। हम चाहते हैं कि हिंदू-मुस्लिम मित्रता भारत और सारे संसार के लिए एक मंगलमय वरदान बने, क्योंकि उसकी कल्पना के मूल में सबके लिए शांति और सद्भाव की भावना है। उसने भारत में सत्य और अहिंसा को अनिवार्य रूप से स्वराज प्राप्त करने का साधन स्वीकार किया है। उसका प्रतीक है चरखा, जो कि सादगी, स्वावलम्बन, आत्मसंयम और करोड़ों लोगों में स्वेच्छा प्रेरित सहयोग का प्रतीक है। यदि ऐसी मैत्री संसार के लिए संकट-रूप हो तो समझना चाहिए कि दुनिया में कोई ईश्वर है ही नहीं, अथवा यदि है तो वह कहीं गहरी नींद में सो रहा है।