गांधीजी का आलेख पढ़ कर श्री मानवेंद्रनाथ राय ने ‘बोल्शेविज्म पर’ गांधीजी को जवाबनुमा एक लंबा लेख भेजा। गांधीजी ने अपनी छोटी-सी टिप्पणी ‘’बोल्शेविज्म का अर्थ’ सहित उस ‘जवाबनुमा आलेख’ को M. N. ROY ON BOLSHEVISM शीर्षक से प्रकाशित किया (‘यंग इंडिया’, 1-1-1925)।

“बोलशेविज्म पर मानवेंद्रनाथ राय के विचार” शीर्षक लेख के साथ नत्थी टिप्पणी “बोल्शेविज्म का अर्थ” में गांधीजी ने लिखा – “मैं बोलशेविज्म पर मानवेंद्रनाथ राय के विचार खुशी से प्रकाशित करता हूं, लेकिन यह कहे बिना नहीं रह सकता कि अगर श्री राय के लेख में बोल्शेविज्म का सही चित्रण हुआ है तो बोल्शेविज्म बहुत घटिया चीज है। जिस तरह मैं पूंजीवाद का जुआ बरदाश्त नहीं कर सकता, उसी तरह श्री राय द्वारा वर्णित बोल्शेविज्म का जुआ भी मैं बरदाश्त नहीं कर सकता। मैं मनुष्य-जाति का हृदय परिवर्तन करने में विश्वास रखता हूं, उसके विनाश में नहीं। कारण बहुत स्पष्ट है। हम सब अत्यंत अपूर्ण और कमजोर प्राणी हैं और यदि हम सब लोगों को मारना शुरू कर दें, जिनकी रीति-नीति हमें पसंद नहीं, तो इस पृथ्वी पर एक भी आदमी जीता न बचेगा। भीड़शाही किसी एक व्यक्ति के स्वेच्छाचारी शासन का ही अत्यंत बृहत्तर रूप है। लेकिन मैं आशा करता हूं, बल्कि मुझे लगभग पूर्ण विश्वास है कि बोल्शेविज्म का सच्चा स्वरूप श्री एम. एन. राय द्वारा खींचे गये इस चित्र से कहीं ज्यादा अच्छा है।

बहरहाल, मानवेंद्रनाथ राय ने अपने जवाबनुमा लेख में लिखा : महात्मा गांधी के कुछ अमेरिकी मित्रों ने उन्हें लिखा कि धर्म के नाम पर आप भारत में शायद बोलशेविज्म को दाखिल कर रहे हैं। ये ख्वामखाह ‘मित्र’ बनने वाले लोग, स्पष्ट ही आंग्ल-सैक्सन साम्राज्यवाद के पक्षधरों से (जो अक्सर दुनिया के सामने अपने को शांतिवादियों के बाने में पेश करते हैं) प्रेरणा लेकर, मुसलमान जातियों के विद्रोह को विश्व के लिए एक भारी खतरा बताते हैं, क्योंकि इस विद्रोह को बोलशेविक रूस का समर्थन प्राप्त है। महात्माजी चाहते तो बड़ी आसानी से इस उद्धततापूर्ण पत्र का मुनासिब जवाब दे सकते थे। वे अपने ‘जिम्मेदार (?) विदेशी मित्रों’ से कह सकते थे कि मुसलमान जातियों के पास विद्रोह करने के उचित कारण हैं, और इस विद्रोह का समर्थन करने वाला कोई भी राजनीतिक सिद्धांत या सरकार स्वतंत्रता के तमाम पक्षधरों की दृष्टि में सम्मान की पात्र होनी चाहिए। इसके अलावा वे अपने अमेरिकी मित्रों से यह भी कह सकते हैं कि अगर सचमुच आपको इस विद्रोह में विश्व के लिए कोई बहुत बड़ा खतरा दिखाई देता है तो कृपा कर अपने यहां उसका कुछ उपाय करिए। दुनिया को आज अमेरिकी साम्राज्यवाद से ज्यादा खतरा और किस चीज से है? क्या मुसलमान जातियों का विद्रोह ‘कू-क्लक्स-क्लान’ (गृह-युद्ध के बाद स्थापित सयुंक्त राज्य अमेरिका के दक्षिणी राज्यों की नीग्रो-विरोधी गुप्त समिति) और ‘अमेरिकन लीजन’ से भी ज्यादा खतरनाक है? क्या बोलशेविकों का अनीश्वरवाद अमेरिकी लोकतंत्र की एशिया-विरोधी भावना से भी अधिक अधर्ममय है?

किंतु, महात्माजी ने ऐसा दो टूक जवाब नहीं दिया। उन्होंने अपने दृष्टिकोण का औचित्य सिद्ध करना उचित समझा। कोई उन पर बोलशेविक प्रवृत्ति का संदेह न कर सके, उन्होंने इसकी पेशबंदी कर डाली। किंतु, विचित्र बात यह है कि यद्यपि स्वयं अपने कथन के अनुसार वे बोलशेविज्म के विषय में कुछ नहीं जानते, फिर भी वे दुनिया के सामने यह सिद्ध करने के लिए अत्यंत उत्सुक थे कि इसके प्रति उनका कोई रुझान नहीं है। उनकी सहज बोलशेविज्म-विरोधी भावना इतनी प्रबल है। ‘यंग इंडिया’ में अपने एक लेख में वे कहते हैं कि “सबसे पहले तो मैं यह स्वीकार करता हूं कि मुझे पता नहीं, बोलशेविज्म के मानी क्या हैं।” यह तो उनकी प्रतिष्ठा को बहुत आंच पहुंचाने वाली स्वीकारोक्ति है, क्योंकि स्वीकारोक्ति उस व्यक्ति की है जो एक बहुत बड़े जन-आंदोलन का नेतृत्व कर रहा है। उसी लेख में महात्माजी ने यह भी कहा कि वे जानते हैं कि इस मामलें में दो परस्पर विरोधी पक्ष हैं -“एक तो उसका बड़ा भद्दा और काला चित्र खींचा करता है और दूसरा उसे संसार की तमाम दलित-पतित और पीड़ित जातियों के उद्धार का आंदोलन बताता है।” लेकिन वे यह नहीं जानते कि वे किसकी बात का विश्वास करें। यहां भी वे साधारण मानव-बुद्धि से काम ले सकते थे। वे बड़ी आसानी से यह बात देख सकते थे कि वे कौन हैं जो उसका काला और भद्दा चित्र खींचते हैं। ये वे ही लोग हैं जो खून और खंजर की नीति के बल पर दुनिया पर शासन कर रहे हैं।

महात्माजी को अपनी निष्पक्षता का बड़ा ध्यान रहता है, सो उसका ध्यान रखते हुए भले ही वे बोलेशेविज्म का उज्ज्वल चित्र पेश करने वालों पर विश्वास न करें; किंतु उन्हें इस बात की प्रतीति कराने की भी क्या कोई आवश्यकता है कि पहला पक्ष मानव-जाति का मित्र या उद्धारकर्ता नहीं है? इसलिए, जब इस पक्ष वाले किसी चीज का बहुत काला चित्र पेश करते हैं तो मानव-जाति के दलित-शोषित वर्ग को सहज ही उसमें किसी घोर अनिष्टकारी उद्देश्य का आभास मिल जाता है; इस दलित मानव-वर्ग को लगता है कि यह कालेपन का मुलम्मा उसे छलने के लिए लगाया गया है। युद्ध-काल में जब रायटर मित्र-राष्ट्रों की एक विजय की खबर देता था तब राष्ट्रवादी भारतीय लोग अंतर की इसी अचूक सहज प्रेरणा के कारण समझते थे कि जर्मनी से दो लड़ाइयां जीती होंगी और इसी सहज बुद्धि की प्रेरणा का अनुसरण करते हुए एक अदना मैक्सिकन चपरासी अपने को गर्व के साथ बोलशेविक कहता है, क्योंकि वह देखता है कि अमेरिकी पूंजीपति बोलशेविज्म के इतने ज्यादा विरुद्ध हैं। लेकिन मैं समझता हूं, महात्माओं की मनोवृत्ति शायद इतनी जटिल होती है कि उसमें ऐसी किसी सीधी-सादी और सहज मानसिक प्रक्रिया की गुंजाइश ही नहीं होती।

चूंकि बोलशेविज्म के प्रति इस दुखद अज्ञान के शिकार सिर्फ महात्माजी ही नहीं, बल्कि और बहुत से भारतीय हैं, और चूंकि इस अज्ञान के बावजूद वे उसके विषय में कोई राज्य बनाने से बाज नहीं आते, इसलिए इस ‘भंयकर’ सिद्धांत के बारे में दो शब्द कह देना अप्रासंगिक नहीं होगा। चूंकि बोलशेविज्म आज की दुनिया का सबसे प्रमुख राजनीतिक तत्व है, इसलिए इसके संबंध में कुछ कहना और भी जरूरी हो जाता है।

यहां प्रसंगवश मैं यह बता दूं कि इस आम धारणा के विपरीत कि वह 1917 की रूसी क्रांति का परिमाम है, वास्तव में वह उसका बुनियादी सिद्धांत है। जिस प्रकार 1789 की महान् फ्रांसीसी क्रांति ने अपने समय में यूरोप के राजनीतिक-जीवन और विचार को प्रभावित किया, उसी प्रकार रूसी क्रांति भी हमारे युग में वैसी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगी। फर्क सिर्फ इतना है कि रूस की भौगोलिक स्थिति ऐसी है और रूसी क्रांति के सिद्धांत ऐसे हैं कि उसका प्रभाव-क्षेत्र अधिक व्यापक होगा - उसमें एशिया और अफ्रीका भी आ जायेंगे। वस्तुस्थिति यही है। शांतिवादी मनोवृत्ति की जिन स्त्रियों और पुरुषों की सदाशयता में गांधीजी सहज ही विश्वास करके चलते हैं, उसे दुनिया के अधिक व्यावहारिक लोग गम्भीर संदेह की दृष्टि से देखते हैं। इन शांतिवादियों की आशंका से, जिसका कारण भली-भांति समझा जा सकता है, और उनकी रोष-भावना से उपरोक्त वस्तुस्थिति में कोई अंतर नहीं पड़ता।

अब, जहां तक महात्माजी का संबंध है, बोलशेविज्म के मुख्य सिद्धांत कुछ नये नहीं होंगे। वे खुद भी ऐसा ही मानेंगे। लेकिन अगर सिद्धांतों को कार्यान्वित न किया जाये तो वे निष्प्राण शब्द-भर रह जाते हैं। महात्माजी ने खुद कहा है कि वे जनसाधारण को पूंजीवाद के प्रभुत्व से मुक्त देखना चाहते हैं। स्वयं बोलशेविज्म इससे कोई अधिक भयंकर लक्ष्य लेकर कहां चल रहा है? बोलशेविक लोग भी महात्माजी के इस कथन से सामान्यतः सहमत हैं कि “दुनिया का सबसे बड़ा सकंट तो आज वह साम्राज्यवाद है, जो दिन-पर-दिन अपने पैर फैलाता जाता है, दुनिया को लूटता जाता है, जो किसी के प्रति जिम्मेवार नहीं है, और जो ….तमाम निर्बल जातियों के स्वतंत्र अस्तित्व और विकास के लिए खतरा उपस्थित कर रहा है”। लेकिन महात्माजी और बोलशेविकों के बीच अंतर यह है कि जहां महात्माजी स्वतंत्रता के इस सिद्धांत को नैतिकता, धर्म और ईश्वर की जटिल कल्पना के सामने गौण बनाकर उसे समस्त व्यावहारिक महत्व से वंचित कर देते हैं, वहां बोलशेविक लोग अपनी दृष्टि पर इस प्रकार के भ्रमों का पर्दा नहीं चढ़ने देते और

दुनिया जैसी है, उसके साथ वैसा ही बरतते हैं। नतीजा यह है कि जहां बोलशेविज्म इन साम्राज्यवादी शक्तियों के सयुंक्त और दृढ़ विरोध के बावजूद अपना रास्ता बनाते हुए आगे बढ़ता है और युगों पुरानी दासता की फौलादी बेड़ियों की कड़ियां एक के बाद एक तोड़ता जाता है, वहां गांधीवाद अंधेरे में हाथ-पांव मार रहा है और ऐसे नैतिक तथा धार्मिक विधानों की सृष्टि करता जा रहा है, जो जन साधारण की अपनी स्वततंत्रता के लिए लड़ने की संकल्प-शक्ति के सिर्फ आड़े ही आते हैं।

इतना तो माना ही जा सकता है कि महात्माजी समाजवाद के सामान्य सिद्धातों से परिचित हैं। यहां मेरा मतलब सेंट साइमन, टामस मूर, टाल्स्टाय, आदि के अव्यवहार्य समाजवाद के सिद्धांतों से नहीं, बल्कि कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा वस्तुस्थिति की वास्तविक जानकारी और आर्थिक तथ्यों के आधार पर रचे समाजवाद के सिद्धांतों से है।

ये सिद्धांत इस प्रकार हैं : (1) उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली का उच्छेद; (2) वैयक्तिक सम्पत्ति की समाप्ति ; (3) सामाजिक स्वामित्व के आधार पर उत्पादन और वितरण के साधनों का पुनर्गठन; और (4) वर्गों में विभाजित समाज का बंधुत्व की भावना से युक्त मानव-परिवार में रूपांतर। यही सब सिद्धांत बोलशेविज्म के भी हैं, क्योंकि समाजवाद की उग्र और विजयगामी प्रारम्भिक अवस्था का नाम ही बोलशेविज्म है।

‘बोलशेविज्म’ शब्द को रक्तपात, विनाश, आतंक आदि के साथ जोड़ दिया गया है, लेकिन उसका असली अर्थ बिल्कुल निर्दोष है। बोलशेविज्म रूसी शब्द ‘बोलशेविकी’ से बना है और बोलशेविकी की अर्थ है बहुसंख्यक पक्ष के अनुगामी। इस शब्द का प्रयोग पहले-पहल तब हुआ था, जब सन् 1903 में कार्यक्रम और कार्य-प्रणाली के सवाल पर रूस की सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी दो टुकड़ों में बंट गई थी। लेनिन और कुछ दूसरे लोगों के नेतृत्व में चलने वाले बहुसंख्यक दल के कार्यक्रम और कार्य-प्रणाली का नाम बोलशेविज्म पड़ गया। और चूंकि रूस के सर्वहारा वर्ग ने अक्तूबर, 1917 में जो विजय प्राप्त की, वह उसी कार्यक्रम और कार्य-प्र‡णाली के अनुसार लड़कर प्राप्त की जिसकी वकालत बहुसंख्यक दल 1903 से ही करता आ रहा था, इसलिए अक्तूबर क्रांति को बोलशेविस्ट विजय कहा जाता है। यह बोलशेविस्ट विजय समाजवाद की पहली विजय है। अब हम देखें कि रूसी क्रांति के ठोस परिणाम क्या हैं : (1) एक भ्रष्ट, गैरजिम्मेदार और निरंकुश शासन का अंत हो गया। (2) उस बुर्जुआ वर्ग का भी सफाया हो गया जो जनतंत्र की आड़ में, विदेशी सरकारों की मदद से, रूसी जनता को क्रांति के लाभों से वंचित करना चाहता था। (3) जमींदार वर्ग, जो जारकी निरंकुश सत्ता का मूलाधार था, नष्ट कर दिया गया और जमीन पूरे राष्ट्र की सम्पत्ति घोषित कर दी गई और किसानों में बांट दी गई। (4) बड़े-बड़े उद्योग राष्ट्र की सम्पत्ति घोषित कर दिये गये। (5) विदेशी व्यापार पर राज्य का एकाधिकार हो गया। (6) विधान बनाने और प्रशासन चलाने की सारी सत्ता जनता के उस हिस्से को सौंप दी गई जिसका प्रबल बहुमत था, अर्थात् सत्ता मजदूरों, किसानों और सैनिकों को सौंप दी गई। वे इस सत्ता का प्रयोग अपनी परिषदों (सोवियतों) द्वारा करते हैं। (7) निजी तौर पर सम्पत्ति रखने का सारा अधिकार और सब वर्गीय विशेषाधिकार खत्म कर दिये गये। ये हैं बोलशविज्म के सिद्धांत, जिन्हें क्रांति के फलस्वरूप व्यवहार में उतारा गया है। तो अब चूंकि महात्माजी बोलशेविज्म का अर्थ जान गये इसलिए हम यह जानना चाहेंगे कि उसके प्रति उनका क्या रुख है। इस प्रश्न के उत्तर में न सिर्फ भारत को बल्कि सारी दुनिया को दिलचस्पी होगी।

अब हम ज्यादा नाजुक सवाल पर आते हैं। महात्मा जी को शायद इन सिद्धांतों के खिलाफ कोई आपत्ति न हो, लेकिन उन्हें कार्यान्वित करने की रीति के बारे में वे निश्चय ही अनेक शर्तें रखेंगे। उनके लिए तो हर चीज की एक ही कसौटी है। अगर बोलशेविज्म अनीश्वरवादी है, तो सब, वे उसके खिलाफ हैं। खैर, हमने तो उन्हें संक्षेप में बोलशेविज्म की परिभाषा दे दी है। अब वे विचार करें और कहें कि बोलशेविज्म ईश्वर को नकारता है या क्या करता है। जब तक वे वैयक्तिक सम्पत्ति और निहित स्वार्थों को ईश्वरीय विधान न मान लें, तब तक उनके उन्मूलन को वे ईश्वर को नकारना नहीं कह सकते। कारण, इसमें शक नहीं कि बोलशेविज्म वैयक्तिक सम्पत्ति और स्थापित स्वार्थों को, जो इतिहास के आदिकाल से ही मनुष्य-समाज के लिए अभिशाप-रूप सिद्ध हुए हैं, अमान्य करता है।

बोलेशेविज्म के व्यावहारिक कार्यक्रम में ईश्वर या धर्म का कोई सवाल ही नहीं उठता। वह न ईश्वरवादी है और न अनीश्वरवादी है। उसका संबंध मनुष्य के ऐहिक जीवन से है। ईश्वर या धर्म के साथ उसका झगड़ा यदि होता है तो तब होता है, जब ईश्वर और धर्म उसके आड़े आते हैं। ऐसी हालत में, साम्यवाद कल्पित सर्वशक्तिमान से भी टक्कर लेने में नहीं हिचकिचाता और नास्तिक बन जाता है और इस तरह वह महात्मा गांधी के समर्थन को खो बैठने का खतरा मोल लेता है। लेकिन ऐसा करके वह न केवल जनता के भौतिक अधिकारों का प्रबलतम समर्थक बन जाता है बल्कि शासित वर्ग ने सदियों से जनता को जिस अज्ञान और अंधविश्वास के अंधकार में रख छोड़ा है, उसे नष्ट करने के लिए बौद्धिक और आत्मिक मुक्ति की मशाल को भी प्रज्ज्वलित करता है।

महात्माजी यदि खुले तौर पर उच्च वर्गों का समर्थन नहीं करते हों तो वे इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि बोलशेविज्म एक मानव कल्याणकारी आंदोलन है। लेकिन हां, उसे सरलतापूर्वक कार्यान्वित नहीं किया जा सकता। रूप में क्रांति के बाद निर्विवाद रूप से जो आतंक का साम्राज्य रहा और विनाशकारी गुहयुद्ध छिड़ा उसका मूल कारण यह था कि इस कार्यक्रम को कार्यान्वित करने में बहुत ज्यादा बाधा उपस्थित की गई थी और हिंसा बरती गई थी। न केवल रूसी अभिजात वर्ग और बुर्जुआ वर्ग ने, जिन्होंने स्वभावत: अपनी खोई हुई स्थिति को पुन: प्राप्त करने की भरसक चेष्टा की, बाधा उपस्थित की बल्कि उसे अंतर्राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग का समर्थन भी प्राप्त था, जिसे रूसी क्रांति के रूप में अपने गढ़ की दीवारों में दरार पडऩे के प्रथम चिन्ह दिखाई पड़ने लगे थे। इस अनवरत विरोधी कार्रवाई और प्रचार का एक अंग था - बोलशेविज्म को बहुत ही डरावने रूप में चित्रित करना, और इस चित्र के प्रभाव से महात्मा जी भी बिल्कुल अछूते नहीं रह पाये।

किंतु सवाल यह है कि उस परिस्थिति में बोलशेविक लोग करते क्या? दो ही रास्ते थे या तो रूसी श्रमिकों और किसानों से ईश्वर का भय रखते हुए चुपचाप फिर उन्हीं बेड़ियों में जकड़ जाने को कहा जाता, जिन्हें उन्होंने इतनी बहादुरी से तोड़ डाला था, या फिर प्राप्त स्वतंत्रता की रक्षा करने और उसे स्थायी बनाने के लिए, ईश्वर और धर्म बाधक बनें तो उनके खिलाफ भी, लड़ाई जारी रखने को कहा जाता। बोलशेविज्म को दूसरा विकल्प स्वीकार करना पड़ा, क्योंकि रूसी मजदूरों और किसानों को फिर से पूंजीवाद और अत्याचारी जारशाही के अधीन होने को मजबूर करने के लिए न केवल सभी भौतिक शक्तियां एकजुट हो गई थीं, बल्कि ईश्वर और धर्म की भी तमाम ताकतें मोर्चे पर लगा दी गई थीं। बोलशेविज्म कोई ईश्वर से संबंधित सिद्धांत नहीं है। बोलशेविक लेाग फरिश्ते नहीं हैं। किंतु साथ ही बोलशेविज्म का मतबल शैतानी प्रवृत्ति भी नहीं है। महात्माजी “जनसाधारण के हृदय को झकझोरकर”, उसकी उच्चतर वृत्तियों को जगाकर उसे अपनी बात समझाना चाहते हैं। यह योजना तो बहुत आकर्षक है और अगर यह जनसाधारण को वर्ग प्रभुत्व और साम्राज्यवादी अत्याचार से मुक्त कराने में व्यवहारत: काम के लायक साबित हुई होती तो बोलशेविज्म को इस पर कोई आपत्ति नहीं होती। उनका ‘‘संयम-विषयक सिद्धांत” भी बहुत शंकास्पद है। जनसाधारण के आध्यात्मिक विकास के लिए यह अच्छी चीज हो सकती है, लेकिन निश्चय ही इससे अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ने का जनता का मनोबल कमजोर होता है। जो लोग (शायद अनजाने ही) वर्ग-प्रभुत्व के साधन सदृश रहे हैं, वे न जाने कब से “हृदय”, “उच्चतर वृत्तियों”, “संयम” आदि से संबंधित इन तमाम सिद्धांतों की चर्चा करते आये हैं। कोई कर्तव्य चाहे कितना भी अप्रिय या कठिन हो, बोलशेविज्म उससे जी नहीं चुराता। यह ईश्वर के अस्तित्व को इसलिए अस्वीकार करता है और तज्जनित धार्मिक तथा नैतिक विधानों की भर्त्सना इसलिए करता है कि स्वातंत्र्य संग्राम में ईश्वर, धर्म और नैतिकता के सिद्धांत निरंकुशता, दमन और अन्याय के दल में खड़े दिखाई देते हैं।

अगर ईश्वर और धरती पर ईश्वर की ध्वजा फहराने वाले लोग भौतिक मामलों में हस्तक्षेप न करने को राजी हो जायें तो बोल्शेविज्म ईश्वर को अपनी जगह पर बने रहने देने को तैयार है। लेकिन, अगर उन्हें अपनी लोकोत्तर स्थिति से संतुष्ट रहना मंजूर नहीं है और वे दुनिया में संकट और कठिनाई पैदा करना चाहते हैं तो वोल्शेविज्म जनसाधारण को धर्म द्वारा बुने अज्ञान के जाल से मुक्त करने के लिए नास्तिकता का प्रचार अवश्य करेगा.