हिन्दी की साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ में - दिसंबर 2007 के अंक में - एक सम्पादकीय छपा था (तकनीकी दिक्कतों के कारण यहां मूल आलेख नहीं दिया जा सक रहा है। सो यहां सारांश दिया गया है। क्षमा करेंगे।) संपादक राजेन्द्र यादव (दिवंगत) ने अपने संपादकीय लेख में नन्दीग्राम – सिंगूर की घटनाओं के सिलसिले में एक वामपंथी बुद्धिजीवी की पीड़ा, परेशानी, दुविधा और आक्रोश को अभिव्यक्ति दी। उन्होंने खुलकर माकपा और पश्चिम बंगाल सरकार की आलोचना की।

राजेंद्र जी ने अपने संपादकीय में आक्रोश व्यक्त किया कि “वे सिर्फ अपना ही नहीं, हमारा भी मुंह काला कर रहे हैं। सिंगूर-नन्दीग्राम का नरसंहार जनता और बुद्धिजीवियों के साथ विश्वासघात है।”

उन्होंने पूछा कि कम्युनिस्ट पार्टी क्यों अपनी मूल प्रतिज्ञाओं से हटकर दमन व अत्याचारों पर उतर आई है? पश्चिम बंगाल में गुंडा तत्व को वर्चस्व क्यों सौंप दिया गया है? उन्होंने पश्चिम बंगाल की घटनाओं की तुलना गुजरात में मोदी की करतूतों से की।

राजेंद्र जी ने आत्ममंथन और आत्मालोचना पर जोर दिया। उन्होंने स्टालिन की तानाशाही, चीन की चौकड़ी के शासन तथा भद्रलोक बंगालियों के मार्क्सवाद की निंदा की। हालांकि उन्होंने यह सफाई भी दी कि आज भी वाम-विचारधारा में उनका अटूट विश्वास है, क्योंकि मानव – इतिहास में आज भी वही सबसे अजेय विचारधारा है। यही विचारधारा सबसे वैज्ञानिक भी है। दुनिया में जहाँ भी अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए जमीनी संघर्ष हुए उनकी एकमात्र प्रेरणा मार्क्सवाद ही रहा है। दलित, स्त्री आंदोलनों की वैचारिक रीढ़ सिर्फ मार्क्सवाद ने प्रदान की है।

श्रीयुत राजेंद्र यादव के उक्त संपादकीय के धूप-छांव में चलते-बढ़ते हुए समाजवादी एक्टिविस्ट चिंतक श्री सुनील (समाजवादी युवजन सभा) ने एक लंबा आलेख लिखा – “तलाश एक नए मार्क्सवाद की”।

अपने आलेख की भूमिका में सुनील जी ने लिखा - “खरा सच बोलने और भारत के वामपंथी नेताओं को आईना दिखाने के लिए श्री राजेन्द्र यादव की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी। उन्होंने एक बुद्धिजीवी के दायित्व को निभाया है। लेकिन अफसोस है कि इतना साहस दिखाने के बाद आगे श्री यादव ने जो कहा है, उससे देश के मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों की सीमा का पता चलता है। उन्होंने आत्ममंथन और आत्मालोचना पर जोर दिया, लेकिन इसे सिर्फ एक पार्टी - माकपा - तक सीमित कर दिया। उन्होंने स्टालिन की तानाशाही, चीन की चौकड़ी के शासन तथा भद्रलोक बंगालियों के मार्क्सवाद की निंदा तो की, किंतु इसके बीज उस मार्क्सवादी विचार एवं दर्शन में भी हो सकते हैं, यह देखने से बिलकुल इंकार कर दिया। मानो उन पर मार्क्सवाद विरोधी या पथभ्रष्ट होने का आरोप न लग जाए, उन्होंने सफाई दी कि आज भी वाम-विचारधारा में उनका अटूट विश्वास है ; और, अपनी निष्ठा साबित करने के उत्साह में वे यह भी कह गए कि “दुनिया में जहाँ भी अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए जमीनी संघर्ष हुए उनकी एकमात्र प्रेरणा मार्क्सवाद ही रहा है ; दलित, स्त्री आंदोलनों की वैचारिक रीढ़ सिर्फ मार्क्सवाद ने प्रदान की है!”

जारी..