खूंटी पत्थलगढ़ी केस में 20 और लोगों के खिलाफ एफआईआर किया गया है. इन पर लोगों को सरकार के खिलाफ उकसाने, हिंसा के लिए भड़काने आरोप है. कहा गया है कि इन्होंने पत्थलगढ़ी का समर्थन किया. लेख लिखे, फेसबुक पर लिखा. निष्कर्ष यह कि खूंटी के आदिवासियों ने इनके लिखे को पढ़ा और भड़क गये!

एफआईआर में इन पर आइपीसी की धारा 121, 121 ए और 124 लगायी गयी हैं.

धारा 121- देश के विरुद्ध युद्ध करना या करने के लिए प्रेरित करना; धारा 124- देश के खिलाफ लिख कर, बोल कर विद्रोह करना; और 121 ए- देश के विरुद्ध युद्ध करने की साजिश रचना.

बाकी दो तो एक हद तक समझ में आती भी हैं कि ये लिख और बोल कर लोगों को देश के विरुद्ध प्रेरित कर रहे थे. मगर ये देश के विरुद्ध युद्ध करने की ‘साजिश’ भी रच रहे थे!

इस पत्थलगढ़ी आंदोलन के दौरान जो कुछ हुआ, उस पर मतभेद हो सकता है. गांव गांव में लगाये गये शिलालेखों में जो भी लिखा गया, वे सचमुच संविधान के अनुरूप ही थे, यह भी विवाद का विषय है. प्रारंभ में प्रशासन की उदासीनता ने उनका मनोबल भी बढ़ाया. उनके बयानों में राज्य सत्ता को चुनौती देने का बचकाना अंदाज भी था. मगर इसके पीछे इरादा सचमुच देशद्रोह था, अभी ऐसा मान लेना उचित नहीं लगता.

जहां तक मुझे याद है, राज्य के अनेक विपक्षी नेताओं ने, संगठनों ने पत्थलगढ़ी का समर्थन किया था. आज पत्थलगढ़ी करनेवालों को संविधान विरोधी और देशद्रोही भी बताया जा रहा है. लिखी गई बड़ी बड़ी बातों को छोड़ दें, जो सिर्फ लिखने के लिए होती हैं, तो आम आदिवासियों के लिए जो मुद्दा है, वह आज की व्यवस्था है, जो संवेदनशील नहीं है. सरकार से इस क्षेत्र के ग्रामीणों को नाउम्मीदी बढ़ी असंतोष है, गुस्सा है. और उन्होंने अपने असंतोष को व्यक्त करने के लिए पत्थलगढ़ी को माध्यम बनाया.

तंत्र की मनमानी और कुव्यवस्था के खिलाफ विरोध कई बार अतिवाद का शिकार हो जाता है. हिंसा और तोड़फोड़ तो सामान्य बात हो गयी है. लेकिन ऐसे हर विरोध को देशद्रोह मान लेना क्या उचित है? सरकारी स्कूलों में बच्चों को नहीं भेजना, सरकारी अस्पताल में नहीं जाना, बैंकों का विरोध, यह सब क्या गैरकानूनी है? तब तो सारे बड़े अधिकारियों, ज्यादातर नेताओं और वैसे नागरिकों, जो अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाते, न ही सरकारी अस्पताल में इलाज कराते हैं, पर संविधान विरोधी होने का आरोप लग सकता है.

जहां तक सरकारी योजनाओं के विरोध की बात है, तो कौन नहीं जानता कि विकास योजनाओं में कमीशनखोरी और भ्रष्टाचार व्याप्त है. आये दिन कभी इस बीडीओ, कभी उस सीओ के खिलाफ मामला सामने आता है. अन्य कर्मचारियों की तो बात ही छोड़ दें. अब आम आदमी के पास इनके खिलाफ विरोध का क्या तरीका है?

आज प्रशासन जिस तरह खूंटी के उन इलाकों की दौड़ लगा रहा है, वह उसी आंदोलन का परिणाम नहीं है? कुछ तो लाभ हुआ है. अब शायद स्कूलों में शिक्षक आने लगें और पढ़ाने भी लगें. कुछ दिन ही सही और कुछ मात्रा में ही सही, कमीशनखोरी और लूट-खसोट बंद हो जाये, यही क्या कम है?

पत्थलगढ़ी आदिवासियों का परंपरागत रिवाज है. उसे आंदोलन का हथियार बनाया गया. और जब उसमें अतिवाद और बिना सोचे समझे कार्रवाई हुई, इस पर आघात भी लगा.

हर आंदोलन में कभी कभी या कुछ लोग अतिवादी होते हैं. पुलिसकर्मियों का अपहरण ऐसी ही कार्रवाई साबित हुई. मगर इस आंदोलन ने जो सवाल उठाये, वे अपनी जगह मौजूद हैं. जो आपराधिक मामले हैं, उन पर वैसी ही कार्रवाई हो रही है. होनी चाहिए.

पत्थलगढ़ी के समर्थन में लिखने बोलने वालों पर एफआईआर कर प्रशासन क्या साबित कर रहा है? क्या किसी आंदोलन का सैद्धांतिक समर्थन करना गैरकानूनी है, देशद्रोह है? इस तरह तो भूमि अधिग्रहण कानून का विरोध करना भी जनता को भड़काने का ही काम है, और सरकार की किसी भी नीति और फैसले का विरोध करना भी. जबकि विपक्षी दल व अनेक संगठन हर सरकार के बहुतेरे फैसलों का, उसकी नीतियों को जनविरोधी बता कर, विरोध करता ही है. कई बार ऐसे विरोध के चलते फैसले बदलते भी हैं.

मॉब लिंचिंग केस के आरोपियों का केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने माला पहना कर अभिनंदन किया. राज्य के एक मंत्री ने स्वामी अग्निवेश को फ्रॉड कह उन पर हमला करने वालों का मनोबल बढ़ाया. और अभी एक नेता का बयान आया कि लोग गाय खाना छोड़ दें, मॉब लिंचिंग रुक जाएगी (पता नहीं, गोवा और पूर्वोत्तर राज्यों के निवासियों के विषय में उनकी नेक सलाह क्या है). क्या ये सभी कृत्य और बयान सौहार्द बिगाड़ने और भड़काने वाले नहीं हैं?

इतना बड़ा देश, इतने तरह के विचार, अलग अलग सोचने का तरीका. इनसे तो यही अनुरोध किया जा सकता है कि थोड़ी सहिष्णुता रखें. तभी देश बचेगा, समाज बचेगा. देशद्रोह कानून को हल्का मत बनाइये; विरोधियों या आम आदमी को डराने या सबक सिखाने का हथियार भी नहीं.