एक पुराने माओवादी नेता पहाड़ सिंह ने पिछले महीने छत्तीसगढ़ पुलिस के सामने आत्मसपर्मण कर दिया. छत्तीसगढ़ के अलावा वे महाराष्ट्र तथा मध्यप्रदेश पुलिस के लिए भी सबसे बड़े आतंक थे. इन तीनों राज्यों के द्वारा उनके सर का पुरस्कार संयुक्त रूपसे 47 लाख था. उन्होंने अठारह वर्ष की अपनी गुमनाम जिंदगी को छोड़ कर मुख्यधारा में प्रवेश करने का निर्णय क्यों लिया, यह जानना दिलचस्प है.

छत्तीसगढ़ के राजनंद जिला के फाफामार नामक आदिवासी गांव में जन्में पहाड़ सिंह का असल नाम कुमारसे कटलाम है. माओवादी बनने के बाद वे कई अन्य नामों से भी जाने जाते रहे. लेकिन पहाड़ सिंह नाम सबसे अधिक प्रचलित हुआ. पढ़ने में तेज होते हुए भी बारहवीं पास होने के बाद निर्धनता के कारण आगे की पढ़ाई नहीं कर सके. रोजी रोटी के कई प्रयास किये. शिक्षक, पुलिस तथा सेना की नौकरी के लिए भी प्रयास किये. उनके एक पैर में कुछ खराबी थी, इसलिए कई बार विकलांग कोटा की सूची में नाम निकलने के बावजूद उनको नौकरी नहीं मिली. अंत में वे जंगल से केंदू पत्ता तोड़ कर बेचने का काम करने लगे.

इन सारी कठिनाईयों के बीच वे लगातार अपने आदिवासी समाज के बारे में सोचते रहते थे. उनकी गरीबी के बारे में सोचते थे. इन्हीं जंगलों में उनकी माओवादियों से मुलाकात हुई. पहले तो वे अपनी पहचान को जाहिर किये बिना इनसे आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन की समस्याओं की बात करते रहे. उन्हें यह भी समझाया जाता था कि किस तरह गैर आदिवासी या ब्राहम्णवादी समाज उनके उन्नत संस्कृति को नष्ट करने में लगा हुआ है. उनकी ये बातें पहाड़ सिंह को बहुत अच्छी लगती थी, क्योंकि वे भी चाहते थे कि अपने आदिवासी समाज की भलाई के लिए कुछ करें और वे इस तरह गांव-गांव घूम कर लोगों को यह सारी बातें समझाने लगे. आदिवासियों को जल, जंगल, जमीन से विशेष प्रेम होता है, इसकी पूजा ही उनकी संस्कृति है. ‘मूलवासी, आदिवासी, भारतवासी’ यह उनका नारा होता था. उसके अनुसार आदिवासी इस धरती के पुत्र हैं और वे ही सच्चे भारतवासी हैं. गांव- गांव घूम कर जब उन्होंने ये सारी बातें लोगों को समझाई, तो लोग उनसे प्रभावित हुए और अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए उनके पीछे चल पड़े. इस तरह इन आदिवासी युवक- युवतियों का माओवादी कैडर बनता चला गया है और पहाड़ सिंह माओवाद के बड़े नेता बन गये. उन्हें बंदूक दे दिया गया और कई गुरिल्ला कार्रवाईयों में उन्होंने भाग लिया.

अपने इन सारे क्रियाकलापों के बीच भी पहाड़ सिंह को एक चीज बहुत चोट करती थी कि माओवाद के बड़े या चोटी के नेता स्थानीय कैडर को शक की निगाह से देखते थे. उन्हें लगता था कि ये स्थानीय लोग पुलिस से मिले हुए हैं. पुलिस की कोई भी कार्रवाई होती तो शक की सूई इन पर ही उठती थी. पहाड़ सिंह को ये बातें आहत करती थी. गैर आदिवासी नेता जो अपने को ज्यादा बुद्धिमान और शिक्षित समझते थे, उनका व्यवहार इन आदिवासी कैडरों के साथ अच्छा नहीं था. इस कैडर का काम केवल पहाड़ के उपरी सिरे पर रहने वाले अपने नेताओं की रक्षा करना और उनको पानी पहुंचाना था. स्थानीय कैडर इन कठिन कामों को करने से पीछे नहीं हटता था, लेकिन उस पर शक करना उन्हें सहन नहीं होता था. उपर का नेतृत्व हमेशा एक डर में रहता था कि किसी भी समय उन पर आक्रमण हो सकता है. इसलिए वे अपने निवास को हमेशा गुप्त रखते थे. मनमोहन सिंह की सरकार ने जब यह ऐलान किया की माओवाद देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं, तो इन माओवादियों का डर और बढ़ गया. उनको लगता था कि हवा से हो या जमीन से, कभी भी उन पर आक्रमण हो सकता है. अपनी रक्षा करना ही उनका मुख्य उद्देश्य हो गया और माओवादी आंदोलन कमजोर पड़ता गया.

पहाड़ सिंह अठारह वर्ष तक इस आशा से माओवादी आंदोलन से जुड़े रहे कि इसके द्वारा आदिवासी समाज का कल्याण होगा, लेकिन उनको ऐसा कुछ होता नहीं दिखा. उन्होंने अपने इस संशय का जिक्र केंद्रीय कमेटी के सामने भी रखा. उनका जवाब था कि हां, हम माओवादी अस्तित्व को बचाना चाहते हैं. हम आदिवासियों को नारा देते हैं और उनसे कहते हैं कि खड़े हो जाओ और अपनी अस्मिता, संस्कृति और परंपराओं को बचाओ. पहाड़ सिंह सोचते हैं कि अस्सी से नब्बे प्रतिशत आदिवासी इस लड़ाई में मारे जाते हैं तो किसकी अस्मिता और संस्कृति की यह लड़ाई होगी. इस तरह तो माओवादी आदिवासियों को ही समाप्त कर देंगे. पुलिस के मुखबिर के नाम पर आदिवासी को मारा जाता है. पुलिस मुठभेड़ में आदिवासी को लड़ने के लिए आगे किया जाता है मरने के लिए और शीर्ष नेतृत्व आराम से रहता है. जब आदिवासियों के लिए संविधान की पांचवीं अनुसूचि में पेसा कानून है, तो इसको लागे करने की लड़ाई ये क्यों नहीं लड़ते? क्यों आदिवासियों को बंदूक थमा दिया जाता है? गुरिल्ला युद्ध के जरिये आदिवासी अस्मिता की लड़ाई लड़नी है तो यह असंभव है.

इन्ही सब प्रश्नो सं जूझते, दूसरों से चर्चा करते पहाड़ सिंह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि माओवाद आदिवासी अस्मिता की रक्षा का रास्ता नहीं हो सकता. इसलिए उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया. पार्टी छोड़ने के बाद उन्हें अपने तथा अपने परिवार के लिए खतरा महसूस हुआ, इसलिए समर्पण के समय उन्होंने अपनी तथा अपने परिवार की सुरक्षा की मांग की. उन्होंने अब अपने जीवन का उद्देश्य माओवाद को समाप्त करना बताया. इस काम में वे सरकार को मदद करने की भी पेशकश की है.

पहाड़ सिंह का इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित इंटरव्यू के आधार पर तैयार आलेख