उच्चतम न्यायालय के पांच जजों की खंडपीठ ने एक स्वर में भारतीय दंड संहिता की धारा 479 को असंवैधानिक घोषित करते हुए इसे खारिज कर दिया. यह संहिता 156 साल पुरानी है और अंग्रेजों के शासन की देन है. इसके अनुसार कोई भी पुरुष विवाहिता स्त्री के साथ उसकी सहमति से ही शारीरिक संबंध स्थापित करता है तो स्त्री का पति उस पुरुष पर इल्जाम लगा सकता है और दोषी को पांच साल की सजा का भी प्रावधान है. न्यायालय ने कहा कि सबसे पहले तो यह धारा संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार का उल्लंघन है. भारतीय संविधान स्त्री हो या पुरुष, सबको बराबरी से जीने का अधिकार देता है. स्त्री को अपने तन और मन पर पूर्ण अधिकार है और वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए स्वतंत्र है. विवाह के बाद वह पुरुष की संपत्ति नहीं बन जाती है. पति की इच्छा के अनुसार चलना उसकी बाध्यता नहीं है. पुरुष यदि विवाह के बाद किसी अन्य अविवाहिता, विधवा या विवाहिता स्त्री के साथ ही शारीरिक संबंध बनाता है तो पत्नी को यह अधिकार नहीं है कि वह उसे अन्य महिला पर किसी तरह का मामला दायर कर सके, क्योंकि पुरुष स्त्री की संपत्ति नहीं होता है.

विवाह संस्था स्त्री और पुरुष को एक साथ रहने का एक ऐसा धरातल प्रदान करता है जिसमें स्त्री और पुरुष समान अधिकारों के साथ एक दूसरे पर विश्वास तथा प्रेम के साथ जीवन यापन की शपथ लेते हैं. इसीलिए हमारे न्यायालय के इतिहास में कोई ऐसा केश नहीं आया जो औरत के किसी तरह के व्याभिचार को आधार बना कर दर्ज किया गया हो, हालांकि पुरुष तलाक के लिए स्त्री पर तथाकथित व्याभिचार का आरोप लगाता रहा है. इस तरह यह कानून पुरुष के हाथ में एक अस्त्र के रूप में है जिससे वह औरत को अपमानित कर सकता है. इस विषय पर बने दो चार सिनेमा इस तरह के विवाहेतर संबंध को दिखाते हैं. विवाहेतर संबंधों के कारणों के रूप में बताया गया है कि स्त्री के लिए पति की अस्वीकारिता, महत्वहीनता या अविश्वास ही उसे विवाहेतर संबंध बनाने को मजबूर करते हैं.

वैसे, व्याभिचार को विभिन्न धर्मों में अपराध माना गया है और दंड का प्रावधान भी देखने को मिलता है. न्यायमूर्ति आरएफ नरिमन ने विशेष रूप से इसका उल्लेख किया है. जैसे 1754 बीसी में हमरूआबी के कोड में कहा गया है कि पति या पत्नी किसी के भी व्याभिचारी होने पर उसे पानी में डुबो कर मार देना चाहिए. प्राचीन यहूदी धर्म में व्याभिचारी स्त्री या पुरुष को मृत्यु दंड की बात कही गई है. इसी तरह ईसाई धर्म में व्याभिचारी स्त्री या पुरुष को अनैतिक या पापी कहा गया है. जीसस ने खुद कहा है कि किसी भी स्त्री को वासना की दृष्टि से देखने मात्र से ही पुरुष पाप का भागी बनता है. इसीलिए उन्होंने यहूदी धर्म में व्यभिचारिणी स्त्री को पत्थर से मारने के सजा के संदर्भ में कहा है कि ऐसी स्त्री को पहला पत्थर वही पुरुष मारेगा, जिसने खुद कोई पाप न किया हो.

भारत में मनु स्मृति में भी ऐसे पुरुषों के लिए, जो दूसरों की पत्नियों के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं, उन्हें आतंकित कर देश निकाला की सजा बताई गई है. बौद्ध धर्म के धर्म सूत्र में भी व्याभिचार को अपराध माना गया है और सजा का भी प्रावधान है. लेकिन यह सजा स्त्री या पुरुष के जाति और वर्ग पर निर्भर करता है. यदि कोई पुरुष व्यभिचारी है तो उसे दो वर्ष तक शुद्धता का जीवन जीना होगा. लेकिन वह व्याभिचार किसी वेद पंडित की पत्नी के साथ हो तो यह शुद्धता का जीवन तीन वर्ष का होगा. 17 वीं शताब्दी के इंग्लैंड में व्याभिचार तलाक का आधार मात्र था, लेकिन 1650 के क्रोमवेल के पवित्रतावादी काल में व्याभिचार अपराध माना गया और मृत्युदंड की सजा होती थी. इंग्लैड में चार्लस द्वीतिए ने गद्दी पर बैठते ही व्याभिचार को दंडनीय मानने से इंकार कर दिया.

1860 में भरतीय दंड विधान में जब 497 धारा का समावेश हुआ तो विवाह या तलाक संबंधी कोई कानून नहीं था. उस समय यहां के बहुसंख्यक हिंदु लोगों के लिए शादी एक धार्मिक कार्य होता था. एक हिंदू पुरुष कई विवाह कर सकता था. पुरुष का कई महिलाओं के साथ शारीरिक संबंध बनाना व्यभिचार नहीं कहलाता था क्योंकि वह उस स्त्री से विवाह कर लेता था. 1955-56 में हिंदू कोड बिल बनने के बाद ही किसी पुरुष के लिए एक ही स्त्री से विवाह करना कानून बना और इस कानून में व्याभिचार पुरुष या स्त्री के लिए तलाक का आधार बना. ये सारी बातें तो कानूनी हुई. 497 धारा को निरस्त करते हुए न्यायालय ने औरत की आजादी और गरिमा को स्थापित करने की पुरजोर कोशिश की, वहीं दूसरी ओर भारतीय समाज है जो हमेशा से औरत को पुरुष का अनुगामी माना है. विवाह का मतलब है स्त्री की प्रतिबद्धता परिवार के लिए ज्यादा होती है न कि पुरुष के लिए. इसीलिए इस कानून के खत्म होने से कुछ लोगों को परिवार बिखर जाने या विवाह संस्था खतम हो जाने का डर हो गया. जब तक समाज में औरत की स्थिति नहीं बदलती, औरत की आजादी के संबंध में पुरुषवादी दृष्टिकोण नहीं बदलता, तब तक कानून होना या न होना बहुत मायने नहीं रखता.