पिछले दिनों हतमा में एक हादसा हुआ. जहरीली शराब पी लेने की वजह से कई लोग मारे गये. उसके बाद जैसा होता है, खूब स्यापा हुआ. नेताओं का दौरा. झाड़ू लेकर प्रदर्शन. शराब के खिलाफ मुहिम चलाने की बातें. विशेष सफाई अभियान. लेकिन अब फिर वही सन्नाटा. जीवन बदस्तूर चल रहा है. उस समय तक चलेगा, जब कोई नया हादसा शहर के किसी कोने में फिर घटित न हो जाये.

वैसे, इस घटना से कई बातें स्पष्ट होती हैं. एक तो सब कहते हैं, क्योंकि यह सबसे आसान होता है. वह यह कि आदिवासी हड़िया और शराब पीता है और इसलिए यह हादसा होता है. आगे भी होगा. जब तक वह नशे की आदत से मुक्त नहीं होगा, तब तक उसके जीवन की विपन्नता और इस तरह के हादसों से उसकी मुक्ति नहीं.

लेकिन हम कुछ और बात कहेंगे. यह हादसा शराब पीने से हुआ है.वह शराब जहरीली थी. जिस बस्ती में यह हादसा हुआ है, वह मुख्यमंत्री आवास से महज आधा किमी की दूरी पर है. शिक्षा और ज्ञान का अलख जगाने वाले रांची विवि की कोख में बसे एक गांव में. उस बस्ती में जिसमें झारखंड के सबसे बड़े बुद्धिजीवी डा.रामदयाल मुंडा का घर है. डा. मुंडा अब रहे नहीं, लेकिन वे वर्षों यही रहे और आदिवासी सभ्यता-संस्कृति की अलख जगाते रहे.

तो, इससे कुछ बातें स्पष्ट होती है. चूंकि यह मामला जहरीली शराब का है और जैसा की अखबारों की रिपोर्ट है, पूरी बस्ती शराब माफिया के चंगुल में है, उसका अर्थ यह हुआ कि मुख्यमंत्री की नाक के नीचे तक शराब माफिया सक्रिय है. शराब से तो परहेज किसी को नहीं. खुद सरकार गांव, कस्बों में सरकारी शराब की दुकान खुलवा रही है. लोगों के विरोध के बावजूद. क्योंकि शराब सरकार के राजस्व का एक बड़ा स्रोत है. हां, वह इतना चाहती है कि जनता उनकी दुकानों से शराब खरीदे, ताकि मुनाफा सरकार को हो. लेकिन शराब माफिया को ज्यादा लाभ चाहिए. वह शहर के कुछ उजाड़ जगहों में छुप कर शराब बनाता है और बस्ती-गांवों में पहुंचा कर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना चाहता है और सरकार का उस पर वश नहीं.

दूसरी बात यह कि शिक्षा और ज्ञान के केंद्र सिर्फ किताबी ज्ञान देने के लिए होते हैं. उनसे बस्तियों की अज्ञानता दूर नहीं हो सकती. जिस बस्ती में आदिवासियत के सबसे बड़े पुरोधा रहते हों, वह बस्ती भी शराब के नशे में धुत्त रह सकती है. हम क्रांति की बात करते हैं. बदलाव की बात करते हैं. और बहुधा यह सब करते इतने आगे निकल जाते हैं कि हमसे समाज का कोई रिश्ता ही नहीं रह जाता. इसलिए हमे हमेशा इस बात का ध्यान रखना होगा या रखना चाहिए कि बदलाव या क्रांति समाज को साथ लेकर चलने में है. क्रांति या बदलाव के झोंक में समाज से हम कट जायें, तो उससे समाज को कोई फर्क नहीं पड़ता और न उसे बदलने का हमारा लक्ष्य ही पूरा होगा.

इसीलिए हमारी नजर में हतमा एक त्रासदी भी है और सबक भी.

दो दिन पहले कांके डैम के समीप की बस्ती में मैं बैठा था. और सोहराय, नशे में धुत. मुझे घबराहट हो रही थी कि कल उस बस्ती में कोई हादसा नहीं हो. सोहराय वृद्ध हो चले हैं. सामान्यतः मैंने उन्हें नशे में नहीं देखा था. लेकिन वे उस दिन खूब बोल रहे थे. उन्होंने बताया कि हतमा कोई दूर तो नहीं. बीच में पहाड़ और उस पार हतमा. लेकिन वह पूरी तरह आदिवासी गांव नहीं, जैसा कि उनका गांव, जहां सिर्फ उरांव और कुछ घर मुंडा परिवार के हैं. हतमा में सभी समुदाय के लोग हैं. आदिवासी भी और गैर आदिवासी दलित, पिछड़ी जातियों के लोग भी. वहां खूब शराब चलता है. शराब माफिया से शराब लोग खरीदते हैं और अपने ही लोगों को बेचते हैं. कोई काम नहीं. जीवनाधार नहीं. आस पास की सारी जमीन धीरे-धीरे छिन गई. विवि बन गया, पार्क बन गया, कॉलनी बन गई.

मेरा इस बस्ती में आना जाना है. जिन बच्चों को मैं पढ़ाता हूं, उनके ही परिजन मेरे साथ बैठे थे. मैंने उनसे कहा- ‘देखिये, इस बस्ती में भी कहीं हतमा जैसा हादसा न हो जाये.’

उनका जवाब था - नहीं. यहां ऐसा नहीं होगा. शराब यहां लाकर कोई नहीं बेचता. हां, हड़िया बनता है कुछ घरों में.

लेकिन सोहराय बोलने के क्रम में उत्तेजित हो रहे थे.

‘छोटानगपुरिया की सारी जमीन बहिरागतों ने छीन ली.’

यह उनकी पीड़ा थी.

ओर यह कि ‘हम पानी तो जमीन पर गिरायेंगे ही.. .’

यह उनका संकल्प!

मैं समझा नहीं. किसी ने बताया - ‘वे सरना स्थल पर हड़िया चढ़ाने की बात कह रहे हैं.’

आदिवासी समाज परंपरागत रूप से हड़िया पीता है. हर सुख और गमी में, पर्व और त्योहार में सरना स्थल पर हड़िया चढ़ाता है. लेकिन शराब माफिया या सरकार के लिए शराब के उसके धंधे में वह एक बड़ा अवरोध है. जैसे सरकार और कारपोरेट परंपरागत बीजों की जगह कारपोरेट द्वारा उत्पादित बीज का इस्तेमाल चाहता है, उसी तरह हड़िया की जगह शराब.

इस तथ्य को समझते हुए ही हमे कोई रणनीति तय करनी होगी और उस पर सतत काम करना होगा. तभी हम इस तरह के हादसों को रोक सकेंगे.