आदिवासी प्रकृति से तालमेल कर चलने वाला जीव है और उसके पास जीवन के संसाधन भी. इसलिए कठिन परिस्थितियों में भी वह अब तक जिंदा रहने का हुनर जानता है. लेकिन जल, जंगल, जमीन पर छिनते उसके अधिकार और भीषण प्रदूषण ने उसके जीवन को भी दूभर बना दिया है और हाल के दिनों में आदिवासी समाज से भी भूख से मौत की खबरें आने लगी है. बीते दिनों झारखंड में भूख से एक और मौत हुई- दुमका के 45 वर्षीय कलेश्वर सोरेन की. आधार से लिंक न होने के कारण उनके परिवार का राशन कार्ड रद्द कर दिया गया था.

वैसे, सितंबर 2017 से लेकर अब तक राज्य में कम-से-कम 17 लोगों की मौत भूख से हो चुकी है. मृत व्यक्तियों में आठ आदिवासी थे, चार दलित और शेष पांच पिछड़ी जाति के. लेकिन सरकार इनके लिए खाद्य सुरक्षा मुहैया करने के बजाय इस कोशिश में लगी रहती है कि कैसे भूख से होने वाली मौतों को किसी अन्य वजह से होने वाली मौतें साबित की जाये.

जमीनी छानबीन कहती है कि सभी के परिवारों के लिए पर्याप्त भोजन व पोषण का अभाव सामान्य बात थी. कई परिवारों में तो महीनों से दाल तक नहीं बनी थी. मरने के दिन घर में न अनाज था और न ही पैसे. परिवार के सदस्यों के पास आजीविका और रोज़गार के पर्याप्त साधन नहीं थे.

ये मौतें झारखंड में व्यापक भुखमरी की स्थिति के सूचक मात्र हैं और चर्चा में इसीलिए आ पाईं क्योंकि स्थानीय अख़बारों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इन्हें उजागर किया. ऐसे अनेक मौतों का तो पता भी नहीं चलता होगा.

राज्य में कुपोषण की भयंकर स्थिति भी खाद्य असुरक्षा की ओर इशारा करती है. लेकिन राज्य गठन के 18 वर्षों के बाद भी भुखमरी के निराकरण पर राजनीतिक प्रतिबद्धता की कमी दिखती है. खाद्य असुरक्षा की स्थिति में जी रहे परिवारों के लिए सामाजिक-आर्थिक अधिकार— जैसे राशन, मध्याह्न भोजन, पेंशन, मनरेगा में काम आदि जीवनरेखा समान हैं. भूख से मौत के शिकार हुए अधिकांश परिवार विभिन्न कारणों से सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) से मिलने वाले अनाज से वंचित थे. कई महीनों से मनरेगा में काम भी नहीं मिला था. कुछ एकल महिलाएं व वृद्ध सामाजिक सुरक्षा पेंशन से भी वंचित थे.

इन मौतों से जन कल्याणकारी योजनाओं के सीमित दायरे एवं उनके लापरवाह कार्यान्वयन की समस्याएं उजागर होती हैं. हालांकि राज्य में 2015 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून लागू होने के बाद सार्वजनिक वितरण प्रणाली का दायरा काफी बढ़ा, लेकिन अभी भी कई वंचित परिवारों का राशन कार्ड नहीं बना है.

आधार से न जुड़ने के कारण पिछले दो वर्षों में लाखों राशन कार्डों को ‘फ़र्ज़ी’ बोलकर रद्द भी किया गया है. सार्वजनिक वितरण प्रणाली में आधार-आधारित बायोमेट्रिक सत्यापन की अनिवार्यता के कारण हर महीने लाखों राशन कार्डधारी राशन नहीं ले पाते. राशन की दुकानों के चक्कर काटना आम बात हो गई हैं.

सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजनाओं के दायरे से राज्य के लगभग आधे वृद्ध, विधवा व विकलांग बाहर हैं. राज्य सरकार ने 2017 में दावा किया था कि आधार की मदद से तीन लाख फ़र्ज़ी पेंशनधारियों को सूची से हटाया गया है. लेकिन सरकार ने व्यापक पैमाने पर वैसे पेंशनधारियों को भी सूची से हटाया है जिनकी पेंशन योजना या बैंक खाता आधार से नहीं जुड़ा था.

हाल में, स्वतंत्र शोधकर्ताओं अनमोल सोमंची और ऋषभ मल्होत्रा द्वारा खूंटी में सूची से हटाए गए ऐसे 103 ‘फ़र्ज़ी’ पेंशनधारियों के सर्वेक्षण से पता चला है कि उनमें से एक तिहाई व्यक्ति ऐसे थे जो गांव में ही रहते हैं, पर उनको पेंशन मिलनी बंद हो गया है.

औपचारिक रोज़गार के साधनों की कमी में झारखंड के मज़दूरों के लिए मनरेगा अत्यंत महत्वपूर्ण सहारा है. लेकिन आजकल गांवों में मनरेगा की कच्ची योजनाएं न के बराबर चलती हैं.

मज़ेदार बात है कि मनरेगा की वेबसाइट में उन्हीं गांवों में अनेक चालू योजनाएं दिखती हैं. ज़मीनी आकलन से प्रतीत होता है कि एक ओर मनरेगा में लोगों को रोज़गार नहीं मिल रहा है और दूसरी ओर राशि की बड़े पैमाने पर फ़र्ज़ी निकासी हो रही है.

भुखमरी पर प्रहार करने के लिए, कार्यान्वयन संबंधित समस्याओं का निराकरण करने के साथ-साथ, सामाजिक-आर्थिक अधिकारों का दायरा बढ़ाने की भी ज़रूरत है. जन वितरण प्रणाली में वर्तमान में मिल रहे अनाज की मात्रा 5 किलो प्रति व्यक्ति से बढ़ानी होगी और इसे ग्रामीण क्षेत्र में सार्वभौमिक करना होगा.

कुपोषण कम करने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सस्ती दरों पर दाल व खाद्य तेल शामिल करना होगा. बच्चों के पोषण में सुधार के लिए मध्याह्न भोजन व आंगनबाड़ियों में मिलने वालों अंडों की संख्या व गुणवत्ता बढ़ानी होगी.

पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली में मासिक प्रति व्यक्ति 7 किलो अनाज और साथ में दाल दी जाती है. राज्य के सभी वृद्ध, एकल महिलाओं व विकलांगों को बिना किसी शर्त पेंशन योजनाओं से जोड़ना होगा. साथ ही, पेंशन की वर्तमान राशि 600 रुपये प्रति माह से बढ़ानी होगी. इन योजनाओं का आधार से जुड़ाव इनमें अपवर्जन का एक बड़ा कारण बन गया है. इसलिए, सभी कल्याणकारी योजनाओं से आधार की अनिवार्यता समाप्त करनी होगी.

लेकिन विकास के दावों के घनघोर शोर में इन बातों की फिक्र आज की राजनीति को नहीं, यह चिंता का विषय है.