बीता साल झारखंड के लिए बहुत बुरा रहा. सिर्फ इसलिए नहीं कि झारखंड में भी लिंचिंग की अनेकानेक घटनाएं हुई, औरत के उत्पीड़न की अनेक वारदातें और दर्जनों लोगों पर देशद्रोह के मुकदमें. गये साल ने यह दिखाया कि स्थानीय मीडिया को मिला कर किस तरह लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन हो सकता है. किस तरह जनता के वोट से निर्वाचित सरकार जनता के साथ ही बर्बरतार्पूक व्यवहार कर सकती है. खूंटी का इलाका इस बर्बरता की मिसाल बन गये हैं, जहां बलत्कार की एक कथित घटना को आधार बना कर दर्जनों गांवों को पुलिस और सुरक्षा बल के जवानों ने रौंद डाला.

विरोधाभास तो यह कि शहरी अभिजात, पढ़ा लिखा तबका लोकतंत्र का तो हिमायती है, लेकिन आदिवासी समाज के दमन पर सामान्यतः मौन रह जाता है. क्योंकि वहां उनके हित टकराते हैं. टाटा हो या बोकारो या फिर धनबाद, हजारीबाग और रांची, ये सब आदिवासी समाज की कब्रगाह पर ही तो खड़े हैं. समृद्धि के द्वीप बन कर खड़े इन शहरों में घूम आईये, वहां अब वे आदिवासी नहीं मिलेंगे, जिनका वहां सदियों से घर-गांव था. मिलेंगे भी तो शहर के हाशिये पर. इसलिए वे आदिवासी समाज के दमन और उत्पीड़न को, उनके जल, जंगल, जमीन की लूट को विकास की एक स्वाभाविक परिणति बतायेंगे. उनकी ईमानदारी , उनके भोलेपन पर तो निछावड़ होंगे, लेकिन साथ ही उन्हें काहिल, नशे में टुन्न और विकास विरोधी भी बतायेंगे.

एक सामान्य तकिया कलाम यह कि आदिवासी को मोबाईल नहीं चाहिए? टीवी, फ्रिज और अन्य लुभावनें उपभोग की वस्तुएं नहीं चाहिए? हां साथी, चाहिए, लेकिन क्या यह जल, जंगल, जमीन की लूट से ही संभव है? झारखंड सरकार के पास आज की तारीख में भूमि बैंक के रूप में अफरात जमीन है. सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के लिए अफरात जमीन पूर्ववर्ती सरकारों ने अधिग्रहित की. वे तमाम औद्योगिक प्रतिष्ठान अब मिटने के कगार पर हैं. वे सभी अब भी सत्ता प्रतिष्ठानों के कब्जे में. फिर भी उन्हें जमीन चाहिए. तमाम भूमि कानूनों को ठेंगा दिखा कर. तमाम नदियां जहरीली बन गई, जंगल बेशुमार कट रहे हैं, लेकिन आदिवासी समाज के लिए तो दो वक्त का भोजन भी कठिन होता जा रहा है, पीने के लिए साफ जल तक नहीं रह गया. जिस आदिवासी समाज में भूख से मौत की घटनाएं विरल थीं, अब वहां से भूख से मौत की खबरंे भी आने लगी हैं.

आदिवासी और गैर आदिवासी समाज के हितों के टकराव का एक परिणाम यह भी कि मोदी सरकार की समाज विरोधी नीतियां, फासीवादी तौर तरीके भले देश के अन्य हिस्सों में अलोकप्रिय हों, आदिवासीबहुल इलाकों में गैर आदिवासी तबका मोदी के पक्ष में गोलबंद रहता है. इसलिए आदिवासीबहुल इलाकों में एनडीए सरकार का मजबूत जनाधार दिखाई देता है. विकास के खोखले नारों, सांप्रदायिक तनाव, जातीय समीकरण के नीचे एक अंडर करंट आदिवासी और गैर आदिवासी के बीच का द्वंद्व, स्थानीय और बरिागत हितों के टकराव का द्वंद्व, आदिवासी क्षेत्र की राजनीति को गैर आदिवासी क्षेत्र की राजनीति से अलग करता है. बहिरागतों का बड़ा हिस्सा तो उनके पक्ष में है ही, स्थानीय आबादी के बीच फूट डाल कर वह अपनी स्थिति मजबूत बनाये रखता है और झारखंड में शून्य से 37 विधानसभा सीटों तक पहुंच जाता है.

तो, क्या हमे लोकतंत्र और वयस्क मताधिकार पर आधारित संसदीय व्यवस्था को नकार देना चाहिए? उन्हें बेमतल करार देना चाहिए? ऐसा हमारे समाज का एक तबका, बुद्धिजीवियों की एक जमात कहती है, उनमें वे लोग भी शामिल हैं जो इस लोकतंत्र का सबसे अधिक मजा ले रहे हैं. हमे याद रखना चाहिए कि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था ही हमें अपना जनप्रतिनिधि चुनने का अधिकार देती है, शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ प्रतिवाद का अधिकार देती है. इस अधिकार की बदौलत ही हम स्वर्णरेखा परियोजना के विस्थापितों को भरसक बेहतर मुआवजा दिलवा सके, इचा में विनाशकारी डैम के निर्माण को रोक सके, नेतरहाट में फायरिंग रेज के खिलाफ संघर्ष कर सके, जिंदल और मित्तलों को चांडिल, पोटका, आसनबनी, खूंटी से खदेड़ सके, पिछले कई उपचुनावों में भाजपा को उसकी औकात बता सके, ओड़िशा में उनके किले को ढाह सके.

नया वर्ष इस लिहाज से चुनौती भरा होगा. लोकसभा के चुनाव तो होने ही हैं, हो सकता है कि उसके साथ ही या कुछ अंतराल पर विधानसभा के लिए भी चुनाव हों. इसके लिए हमें तैयार रहना होगा. अपने अधिकारोें के प्रति सजग और उन्हें बचाने के लिए लड़ने को तैयार. टुच्ची भावुकता की जगह एक जनोन्मुख राजनीति आज की सबसे बड़ी जरूरत है.

सबों को नये वर्ष की हर्दिक शुभकामनाएं.