चुनावी वर्ष में बड़ी परियोजनाओं की घोषणा का अनेकानेक लाभ है. एक तो जनता को लुभाना और सब्जबाग दिखाना आसान होता है, साथ ही चुनाव के लिए पैसे जुटाना भी. वरना मंडल डैम परियोजना की शुरुआत की घोषणा करने के पहले सरकार इस बात पर गौर करती और जनता को यह जानकारी देती कि दामोदर वैली कारपोरेश से बिजली जो मिली सो मिली, कितनी भूमि के सिंचाई का लक्ष्य था और कितनी सिंचाई का लक्ष्य पूरा हुआ? सभी जानते हैं कि यह बहुदेशीय परियोजना इस लिहाज से एकदम फेल रही.

पूरे देश में बड़े बांध को लेकर एक बहस छिड़ी है. इसे पर्यावरण के लिए नुकसानदेह माना गया है. क्योंकि बंड़े बांध जिस नदी को आधार बना कर बनती है, सबसे पहले उस नदी को ही खा जाती है. झारखंड के लिए तो बड़ी तमाम योजनाएं केवल लूट का सबब बनी क्योंकि झारखंड पठारी क्षेत्र है और जमीन उंची नीची. इस वजह से डैम तो बन जाता है, लेकिन डैम का पानी खेतों तक नहीं पहुंच पाता. चांडिल डैम इसका एक ठोस उदाहरण बन गया है. वहां अफरात पानी है, लेकिन खेतों तक पानी नहीं पहुंचा, जबकि करोड़ों करोड़ रुपये कैनाल बनाने पर खर्च किये जा चुके और अब भी खर्च हो रहा है.

आदिवासी जनता इस तथ्य को जानती और समझती है कि बड़े डैमों से उन्हे विस्थापन के सिवा और कुछ नहीं मिलने वाला, इसलिए झारखंड में हमेशा से बड़ी परियोजनाओं का विरोध होता रहा है. सुवर्णरेखा परियोजना का विरोध हुआ, वैसे बाद में बेहतर पुनर्वास को लेकर एक समझौता हो गया. ईचा डैम को भी प्रबल विरोध के कारण बंद करना पड़ा. मंडल परियोजना को भी बंद करना पड़ा, एक बड़े आंदोलन की वजह से. वैसे, मीडिया का प्रचार यह है कि नक्सली हिंसा की वजह से इस परियोजना को बंद किया गया.

अब भाजपा सरकार नेहरु को लगातार गाली देने के बावजूद उनके जमाने में शुरु की गई और जनविरोध के कारण बंद हुई योजनाओं को फिर से शुरु कर रही है, क्योंकि उनके पास अपनी कोई परिकल्पना और सोच तो हैं नहीं, उन्हीं योजनाओं को फिर से चालू कर वाहवाही भी लूटना चाहती है और चुनावी वर्ष के लिए आमद का एक रास्ता भी. लूट तो योजनाओं के नाम पर ही हो सकती हैं और जितनी बड़ी योजना, उतना ज्यादा लूट.

अब इस परियोजना से कितने लोग विस्थापित होंगे, कितने गांव डूबेंगे, यह सब यहां बता कर हम आपको बोर नहीं करेंगे, क्योंकि हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा यह मान कर चलता है कि विकास के लिए यह सब सहना पड़ेगा ही. हम यहां सिर्फ इसबात की चर्चा करेंगे कि पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर आज पूरा विश्व चिंतित है. हमारे प्रधानमंत्री को पर्यावरण की सुरक्षा का ख्याल रखने के लिए एक पुरष्कार भी गये वर्ष मिला है. क्या उन्हें इस बात की जानकारी नहीं कि इस बांध को बनने के क्रम में करीबन साढ़े तीन लाख वृक्ष काटे जायेंगे. वह भी देवतुल्य शाल के वृक्ष जिनके जंगल निरंतर कम होते जा रहे हैं. और शाल के वृक्ष आप लगा नहीं सकते, वह प्राकृति जंगल हैं. इनके अलावा जो इलाके जलमग्न होंगे सो अलग.

यहां यह बताते की जरूरत शायद नहीं कि मंडल बांध नार्थ कोयल नदी पर बनने जा रहा है. 260 किमी लंबी यह नदी हिमालय से नहीं निकलती, रांची की पहाड़ियों से ही जन्म लेती है और गंगा की एक सबसिडरी सोन नदी से मिलती है. इसकी घाटी में ही फैला है पलामू टाईगर रिजर्व और बेतला नैशनल पार्क. उत्तर पश्चिम में यह उत्तरप्रदेश से सटा है और इस मनोरम धरा का सैकड़ों वर्षों से अकूत शोषण उत्पीड़न हो रहा है. कभी पार्क के लिए, कभी सेंचुरी के लिए इस इलाके के आदिवासियों का लगातार विस्थापन होता रहा है. यहां दवंग जातियों द्वारा अदिवासी, दलितों के शोषण उत्पीड़न के खिस्से मशहूर हैं.

इस इलाके में 80 के दशक में इस बांध के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन चला था. धरना, प्रदर्शन, जेल भरो अभियान. इसके अलावा पर्यावरणी चिंता की वजह से इस डैम के निर्माण को स्थगित कर दिया गया था. लेकिन मोदी के सत्ता में आने के बाद पर्यावरणीय चिंता दिखावटी बन कर रह गई है. जिस पर्यावरण मंत्रालय ने कभी इस पर रोक लगाया था, उसी ने अब इस परियोजना के लिए 1007.29 हेक्टेयर वनभूमि क्षेत्र में खड़े 344644 वृक्षों को काटने की अनुमति दे दी है.

यह योजना जब 70 के दशक में शुरु हुई थी तो लगभग 1622 करोड़ की थी जिसमें बंद होने के पहले तक करीबन 800 करोड़ रुपये खर्च हो चुके थे. अब 2400 करोड़ रुपये और खर्च होंगे.

मोदी सरकार वनों की कटाई रोकने के लिए और पेड़ लगाने के लिए विज्ञापनों पर करोड़ों रुपये खर्च करती है. अब उनके निहित स्वार्थों के लिए लाखों खड़े पेड़ काट दिये जायेंगे. इसके पहले सड़कों के चैड़ीकरण के लिए भयानक रूप से पेड़ कटे हैं. पहाड़ों को नष्ट किया गया है, चाहे वह राजमहल की पहाड़ियां हो या चुटुपालू घाटी, हर तरफ तबाही का यह मंजर है. परिणाम यह कि झारखंड का मौसम बदल रहा है. औसतन दो डिग्री तापमान बढ़ चुका है. भूमिगत जल लगातार भागा जारहा है. दामोदर, सुवर्णरेखा, मयुराक्षी सबकी सब सूख चली हैं.

यह सवाल तो इनसे पूछना बेमानी है कि क्या इस इलाके के ग्रामीण जनता और ग्रामसभाओं से इस योजना को फिर से शुरु करने के लिए परामर्श किया? इसकी वे जरूरत नहीं समझते.

वे यह भी समझने के लिए तैयार नहीं कि झारखंड की अधिकतर नदियां हरी भरी पहाड़ियों और नैसर्गिक झरनों से ही सृजित होती हैं और पहाड़ों और पेड़ों को नष्ट कर वे उन नदियों के प्राकृति स्रोतों को ही नष्ट कर रहे हैं.

दावा यह किया जा रहा है कि जितने पेड़ काटे जायेंगे, उतने ही लगाये भी जायेंगे. यानी, पेड़ लगाने के नाम पर भी लूट का यह रास्ता. यह कैसी मूढ़ता कि हम लगे जंगल को काटें और फिर पेड़ लगाने का ढ़ोंग करें.