प्रचलित मुहावरा है कि अर्जुन की तरह लक्ष्य को ध्यान में रखें, लेकिन हमारे लिए मौजू है, एकलव्य की तरह लक्ष्य को ध्यान में रखना और अपनी अस्मिता और पहचान को बनाये रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना. क्योंकि दाव पर द्रौपदी या सिंहासन नहीं, भारतीय लोकतंत्र है. जल, जंगल, जमीन पर जन का अधिकार है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है.

स्ंासदीय लोकतंत्र में चुनाव एक अवसर है अपने मनोनकूल सरकार बनाने का, समाज के प्रभु वर्ग को वंचित जमात की ताकत दिखाने का. यह अवसर हजारों वर्षों के संघर्ष के बाद आम आदमी ने हासिल किया है और इस अवसर को किसी तरह के प्रलोभन या मूढ़ता से नहीं गंवाना है. वैसे भी एक चूक की सजा पांच वर्षों तक भोगनी पड़ती है और इस बार तो संकट यह है कि भाजपा और संघ परिवार दुबारा सत्ता में आई तो पता नहीं, आम आदमी के पास अपने मताधिकार का प्रयोग करने का अवसर फिर आयेगा या नहीं.

पिछले कुछ दिनों से अजीबोगरीब घटनाएं देश में हो रही हैं. निठल्ले साधुओं की जमात सक्रिय राजनीति में स्तक्षेप करते दिखती है. कभी सबरीमाला में स्त्रियों के प्रवेश को टारगेट बनाया जाता है तो कभी मंदिर बनाने का अध्यादेश लाने का दबाव सरकार पर बनाया जाता है. बेरोजगारी के हहाकार करते रेगिस्तान में सवर्णो के लिए दस फीसदी आरक्षण का सब्जबाग दिखाया जाता है. फिर एकबारगी रहस्य से परिपूर्ण आतंकवादी कार्रवाई में चालीस से अधिक सीआरपीएफ जवानों की हत्या हो जाती है. सर्जिकल स्ट्राईक की तरह पाक अक्यूपाईड कश्मीर में बमो के धमाके होते हैं. एकबारगी जीएसटी, नोटबंदी, रफेल विवाद, सकल घरेलु उत्पादन में गिरावट, बेरोजगारी जैसे मुद्दे युद्धोन्माद में दब कर रह जाते हैं.

इस बात से किसी को इंकार नहीं कि आतंकवाद एक गंभीर समस्या है, लेकिन हमारे लिए यह भी एक गंभीर सवाल है कि एक पढ़ा लिखा कम उम्र युवक खुद को जिंदा बारुद में क्यों तब्दील कर लेता है? तर्क यह दिया जायेगा कि मौलवी और मुल्ला धार्मिकता की जहरीली घुट्टी पिलाकर उसे फिदाईन दस्ते में शामिल करते हैं. लेकिन कट्टर हिंदूत्ववादी जमात धार्मिक उन्माद पैदा करने में कोई कसर रखते हैं? फिर कोई हिंदू युवक फिदाईन हमलावर क्यों नहीं बन जाता?

मान कर चलिए कि देश के आर्थिक हालात जिस तरह बिगड़ते चले जा रहे हैं, लोकतांत्रिक मूल्यों को जिस तरह खत्म किया जा रहा है, संवैधानिक संस्थाओं का जिस तरह अवमूल्यन हो रहा है, सेना और उसके शौर्य का राजनीतिकरण किया जा रहा है, उससे हालात आने वाले दिनों में और खराब होने वाले हैं. देशभक्ति का अर्थ सिर्फ युद्धोन्माद नहीं होता, अपनी धरती, अपने जल, जंगल, जमीन और मनुष्यमात्र से प्रेम भी देशभक्ति ही है.

और इस सरकार के आने के बाद से धरती आक्रांत, जंगल समाप्तप्राय, जल भीषण प्रदूषण का शिकार और समाज के अंतिम जन की हालत दयनीय होती जा रही है. जल की शुद्धता के लिहाज से हम कुल 176 देशों की सूची में 170 वें स्थान पर पहुंच गये हैं. दुनिया के तीस प्रदूषित शहरों में आधे से ज्यादा भारत में हैं. अपने देश में जैसे बिहार, बंगाल, ओड़िसा, झारखंड जैसे पिछड़े राज्य सिर्फ मजदूर उपलब्ध कराने वाले राज्य हैं, उसी तरह पूरी दुनियां में भारत एक सस्ता श्रम उपलब्ध कराने वाले देश के रूप में पहचाना जाता है.

वर्तमान सत्ता की साजिश यह है कि हम देश के समक्ष खड़े ज्वलंत मुद्दों को भूल जाये, और युद्धोन्माद में बह कर उना को, खूंटी और गोड्डा को भूल जायें. यह सही है कि भाजपा के जाने और महागठबंधन के आने के बाद भी हालात तुरंत बदल नहीं जाने वाले, लेकिन वे और बद्त्तर होने से बचाये जा सकते हैं. इसलिए बचे हुए समय का उपयोग भाजपा के खिलाफ व्यापक गोलबंदी में करने की जरूरत है.