वह बेहद खुश था। वह पटना के मीतन घाट गया था। गंगा का दर्शन किया, पीर ‘जगजोत’ के मजार पर सिर नवाया और किसी सूफी-संत से आशीर्वाद पाया।

सो आते ही हमारे कल के सवाल पर बताने लगा – “आप ई बात जानते हैं न कि मनेर के पश्चिम में गंगा-सोन संगम पर ‘याहिया फकीर’ का मजार है? इस मजार पर सिर नवाने कभी बादशाह सिकंदर लोदी पहुंचा था और वहीं बाबर भी आया था। शेख याहिया की मृत्यु हुई 1290 में। और सन् 1529 ई. में याहिया की कब्र की परिक्रमा करने बादशाह बाबर मनेर पहुंचा था। तो बताइए कौन पहले हुआ? फकीर याहिया कि बादशाह बाबर? तो फिर गंगा के किनारे की संस्कृति बादशाहों की देन है कि फकीरों की? मनेर के आगे दानापुर है, जिसके पश्चिम में सेना की बड़ी छावनी है। यह अंगरेजी शासनकाल में बनी थी। यहां 1857 में भारतीय सैनिकों ने विद्रोह किया था। पूरी बागी सेना ने शस्त्रास्त्रों से लैस होकर कुंवर सिंह का नेतृत्व स्वीकार किया था। लेकिन इतिहास बताता है कि इसके पहले 1845 में ही इस छावनी में नेउरा के निवासी राहत अली के नेतृत्व में अंगरेजों से लोहा लेने के लिए एक योजना बनी थी। उसमें पीर बख्श, मीर बकर खां, मीर अब्दुल्ला, दुर्गा प्रसाद पंडित और भीखम खां जैसे कई लोग शामिल थे।

“अगर इतने से न समझ में आये तो पाटलिपुत्र को ठीक से देखिए। पाटलिपुत्र तो पूरी तरह से ‘गंगा’ की देन है। यहां के मुहल्लों के नाम ही इतिहास की उस समय-यात्रा के गवाह हैं, जिसे गंगा ने गति-दिशा और निर्देश दिया। पटना का महेंद्रू मुहल्ला सम्राट अशोक के पुत्र महेंद्र की याद दिलाता है। भिखना पहाड़ी मुहल्ले का टीला भिक्षु महेंद्र के आश्रम का स्मारक है। गंगा किनारे का रानी घाट अशोक की पुत्री संघमित्रा के शाश्वत स्मरण-सा है। कहते हैं, यहीं संघमित्रा गंगा में डुबकी लगा कर भिक्षुणी बनी और सिंहल द्वीप की ओर रवाना हुई थी। गाय घाट (गौतम घाट) में बुद्ध ने पाटलिग्राम से वैशाली जाने के लिए गंगा पार किया था। महावीर घाट की गंगा जैनियों के 24वें तीर्थंकर महावीर के उपदेश सुनाती है। पाटलिपुत्र का ‘किलाघाट’ मुगल साम्राज्य की नींव हिलाने वाले शेरशाह की याद दिलाता है। उसीने इस किले को बनवाया था। गंगा के किनारे पाटलिपुत्र में ही सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह का जन्म हुआ था। यहां का गुरुद्वारा संसार भर के सिखों के लिए परम पावन तीर्थ है। पटना में ही अंगरेजी सल्तनत का ‘प्रतीक’ गोलघर है, जो था तो अंगरेजी शासन की लूट संस्कृति का परिणाम, लेकिन उसे बिहार के हजारों गरीब कारीगरों ने अंग्रेज इंजीनियर के बनाये नक्शे की खामी को जानते-बूझते भी यूं बनाया कि वह बेकाम हो गया। लूटने आये अंगरेजों की बुद्धि लुटा गयी! किंवदन्ती है की बड़ी पटनदेवी और छोटी पटनदेवी मंदिर में नगर की सुरक्षा-संरक्षा के लिए स्थापित मातृदेवताएं थीं। इतिहास बताता है कि चाणक्य के आदेश से एक बार उन मंदिरों को तोड़ दिया गया था, जहां लोगों ने ‘चंद्रगुप्त’ को पकड़ लिया था। मुरादपुर मुहल्ला का नाम ‘मिर्जा मुराद इल्तफात खां’ के नाम पर पड़ा है। मिर्जा मुराद रुस्तम कंधारी का पुत्र था, जो औरंगजेब के शासनकाल में फकीर बन गया था। गंगा के किनारे ही ‘सदाकत आश्रम’ है। यह आजादी के आंदोलन के नेता ‘मजहरूल हक’ के दान से बना। इसी आश्रम में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद रहते थे। यहीं 28 फरवरी, 1963 को उनका देहावसान हुआ था।

“दानापुर के पूरब गंगा के दाहिने तट पर ‘दीघा’ है। दीघा के सामने गंगा के बायें किनारे ‘दिघवारा’ है। पुराना नाम ‘दीर्घवाह’ या ‘दीर्घ द्वार’। गंगा का यह स्थल उस काल का साक्षी है, जब इस पार मगध साम्राज्य चलता था और उस पार ‘वैशाली का गणतंत्र!’ इतिहास के ऐसे ही कई-कई कालखंड के अध्याय बक्सर से राजमहल-सकरीगली (झारखंड) तक गंगा के किनारे बिखरे पड़े हैं। सकरी गली जानते हैं न आपलोग? यहीं संतालपरगना है। गंगा का पूर्वी भाग, जो ‘दामिन-ई-कोह’ कहलाता है। दामिन-ई-कोह आदिवासी गणतंत्र का इतिहास है। वैज्ञानिकों का मत है कि प्राचीन काल में राजमहल के आसपास समुद्र लहराता था। भागलपुर में अवस्थित ‘मंदार पर्वत’ के बारे में तो यह लोकगाथा प्रचलित है कि उसी पर्वत से देव-दानवों ने समुद्र-मंथन किया था। पौराणिक आधार पर लोग मानते भी हैं कि समुद्र मंथन के बाद अमृत-पान और लक्ष्मी पर अपना वर्चस्व साधने के लिए देव-दानवों के बीच जो संग्राम हुआ, वह राजमहल में सकरीगली के आसपास हुआ होगा। ये सब सत्ता की छीना-झपटी के बीच विकसित होनेवाली जन-संस्कृति की जीवट और जीवंत तस्वीरें हैं।

“कहने का मतलब ये है कि दरअसल बिहार की गंगा का इतिहास उस संस्कृति के जन्म और विकास का प्रमाण है, जो आज ‘गंगा-जमुनी संस्कृति’ कहलाती है। बिहार की गंगा बहुभाषिक, बहुधार्मिक और मिश्रित भारतीय संस्कृति का प्रत्यक्ष प्रमाण है। आज धार्मिक उन्माद और साम्प्रदायिक कट्टरपन उसी भारतीय संस्कृति को चुनौती दे रहे हैं। गंगा को पटना के नजदीक लाने में जुटे लालूजी ई सब जानते तो होंगे ही। लेकिन जानने और ग्रहण करने में फर्क होता है। ग्रहण करने पर ही न कोई अभियान प्रभु-राजनीति से अलग प्रजा-संस्कृति का हिस्सा बनेगा?”

वह उठा गांव लौटने के लिए। लेकिन जाते-जाते वह इतिहास से वर्तमान में उतर गया। बोला – “इस बार आप छठ में गंगा किनारे जाइए, तो वहां सिर्फ मेला देखते न रह जाइएगा। जरा गंगा को ठीक से निहारिएगा। आप लोग तो पढ़े-लिखे लोग हैं। सुना कि केंद्र सरकार भारत की सभी नदियों को जोड़ने की महायोजना तैयार कर चुकी है। उस पर आपलोग खूब बहस चला रहे हैं। आप लोग तो उस महायोजना को आधुनिक विकास का महान काम समझते होंगे। हम बिहारियों को मालूम है कि इस नदी-जोड़ योजना के केंद्र में यही जवान गंगा है, जो बिहार में बहती है। सत्ता में बैठे आज के प्रभु लोग खुद को ‘भगीरथ’ बनाने में जुटे हैं। ई सही है कि नहीं हमको मालूम नहीं। लेकिन आशंका तो है कि नदी-जोड़ महायोजना से गंगा-जमुनी संस्कृति की गंगा की मूल छवि मटियामेट हो जाएगी। मन में सवाल उठता है कि ये महायोजना गंगा-जमुनी संस्कृति और भारतीय संस्कृति में निहित ‘विविधता में एकता’ की ताकत को ध्वस्त करने की सदियों से जारी अपवित्र कोशिशों का हिस्सा तो नहीं है?”

हम उलझ गये। उसे रोक पर पूछ ही दिया – “आपको क्या लगता है? नदी-जोड़ महायोजना सही है कि गलत?”

वह खड़े-खड़े बोल गया – “ई तो हम नहीं जानते। बाकी इतना जानते हैं कि आज भी बिहार की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक-सांस्कृतिक दशा-दिशा की पहचान ‘गंगा’ को देखे बिना की ही नहीं जा सकती। हमारे बिहार के विकास और बिहारियों के भविष्य का कोई भी आकलन इस सवाल पर टिका है कि बिहार में गंगा कैसी है? वह खुश है कि रूठी है? वह स्वस्थ है या बीमार? गंगा बिहार के लिए ‘मैया’ है - गंगा मैया! बिहार के विकास की हर कल्पना के लिए पहला और अंतिम सवाल यही है कि क्या ‘गंगा मैया’ का मूल चरित्र और भूमिका अक्षुण्ण रहेगी?

“हवलदार त्रिापाठी जैसे कई ‘सहृदय’ जल-संस्कृति विशेषज्ञ कहते हैं – “सच पूछिए, तो बिहार में फैली सारी नदियां इसकी रक्तवाहिनी शिराएं हैं, जिनमें सुषुम्ना नाड़ी गंगा है। इस गंगा से बिहार का मेरुदंड सबल सशक्त बना रहता है और मस्तिष्क सर्वदा उर्वर एवं क्रियाशील। अतः माता गंगा बिहार प्रदेश की आत्मा, प्राण और श्रृंगार है।”

वह चला गया। हम चुप खड़े रह गये।