झारखंड में लोकसभा की सिर्फ 14 सीटें हैं. लेकिन इन सीटों का भाजपा की सत्ता की राजनीति में ऐतिहासिक महत्व रहा है. वाजपेयी की पहली सरकार महज चंद सीटों की वजह से विश्वास मत पाने में असफल रही थी और उसके बाद के मध्यावधि आम चुनाव में इन 14 में से 13 सीटें जीत कर भाजपा की स्थाई सरकार केंद्र में पहली बार बनी. और उसके एवज में ही सन् 2000 में दो अन्य राज्यों- छत्तीसगढ़ व उत्तराखंड- के साथ झारखंड अलग राज्य का गठन हुआ. हाल में हुए तीन राज्यों- राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ को खोने के बाद झारखंड के ये 14 सीटें फिर महत्वपूर्ण हो उठे हैं. क्योंकि उत्तर प्रदेश और बिहार में भाजपा पिछला चुनाव दुहरा पाये, इसकी बहुत कम आशा है, पश्चिम बंगाल में उसके लिए बहुत कम उम्मीदें, वैसे में झारखंड का अपना किला बचाना भाजपा के लिए जीवन मरण का प्रश्न बन गया है. इसलिए उसने थोड़ा झुक कर आजसू से गठबंधन भी बना लिया है. तीन पुराने दिग्गजों - रामटहल चैधरी, रवींद्र पांडे और कड़िया मुंडा को इस बार टिकट नहीं देने की वजह से थोड़ा विवाद पार्टी में उठा, लेकिन उसे उन्होंने पाट लिया है.

इस लिहाज से देखें तो महागठबंधन की उलझने चुनाव करीब आने के साथ बढ़ने लगी हैं. एक प्रमुख घटक राजद महज एक सीट मिलने की वजह से विरोध पर उतर आया. उसके कई दिग्गज नेता राजद के साथ की अपनी पुरानी निष्ठा को झाड़ पोंछ कर भाजपा में शामिल हो गये जिनमें अन्नपूर्णा यादव और गिरिनाथ सिंह प्रमुख हैं. दोनों भाजपा के टिकट पर शायद चुनाव लड़े भी.

इसी तरह किसी मुस्लिम को टिकट नहीं दिये जाने की वजह से मुस्लिम वोटरों में निराशा और मायूसी है. कई मुस्लिम नेताओं ने अपने गुस्से का इजहार किया है. रांची के एक प्रबुद्ध मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ता वशीर अहमद का कहना है कि कांग्रेस उन्हें सिर्फ अपना वोट बैंक समझती है. वरना झारखंड के मुस्लिम आबादी के अनुपात में कम से कम दो सीटें तो उन्हें दी जानी चाहिए थी.

वामदल वैसे तो हर चुनाव में अलग थलग पड़ जाते हैं, इस बार भी वे अलग थलग चुनाव मैदान में मौजूद रहेंगे. कोडरमा सीट माले चाहती थी और हजारीबाग सीट भाकपा के भुवनेश्वर मेहता. इसी तरह जन आंदोलन के नेता भी इस चुनाव में अपनी दावेदारी पेश कर रहे थे. दयामनी बारला को कांग्रेस खूंटी से टिकट देना तो चाहती है, लेकिन पार्टी के कई शीर्ष नेता - प्रदीप बलमुचू व थियोडर किड़ों- इस सीट से लड़ना चाहते हैं.

कुल मिला कर दिख यह रहा है कि मोदी के खिलाफ जितना मुखर और एकजुट विपक्ष दिख रहा था, वैसी एकजुटता अब विपक्षी दलों या मोदी विरोधी ताकतों में नहीं रह गई है. मोदी या भाजपा विरोधी ताकतों के इस अंतरकलह का भाजपा को फायदा मिलना तय है.

कुल मिला कर कहें तो संथाल परगना में झामुमो और झाविपा की एकजुटता से महागठबंधन मजबूत दिख रहा है, दक्षिणी छोटानागपुर में कांटे की टक्कर है, लेकिन उत्तरी छोटानागपुर में भाजपा का पलड़ा फिलहाल भारी दिखाई दे रहा है.

और इसके लिए मूलतः जिम्मेदार है कांग्रेस. पिछले चुनाव में उसे एक भी सीट नहीं मिली थी लेकिन वह महागठबंधन का सबसे बड़ा पार्टनर है. उसने सात सीटें झटक ली, जबकि सभी सीटों से लड़ने के लिए उनके पास योग्य प्रत्याशी तक नहीं. राजद को एक के बजाये दो सीटें और माले को कोडरमा सीट देकर महागठबंधन मोदी विरोधी वोटों के बिखराव को बहुत हद तक रोक सकती थी.

एक दिलचस्प बात यह कि एक जमाने में राजद से गठजोड़ कर झामुमो ने छह लोकसभा सीटें जीती थी. इस बार कांग्रेस को गठजोड़ का अगुआ मान कर झामुमो ने दो सीटें चुनाव के पहले ही खो दी, यानी वह सिर्फ चार सीटों पर चुनाव लड़ रही है - राजमहल, दुमका, गिरिडीह और जमशेदपुर.