लोक में प्रचलित कथा के अनुसार बड़ी मछली जानलेवा बीमारी से ग्रस्त हुई। अपनी बीमारी के इलाज के लिए उसने किसी बगुला भगत से मदद मांगी। एवज में भगत जी ने उससे छोटी मछलियों को निगलने की छूट का दाम मांगा। उसके बाद बड़ी मछली स्वस्थ हुई या मरी? बगुला भगत का क्या हुआ? सबसे बड़ा सवाल यह कि छोटी मछलियों का क्या हुआ? इन सबका कोई स्पष्ट जवाब लोककथा में नहीं है। कथा सिर्फ इस क्लाइमेक्स पर खत्म होती है कि कई छोटी मछलियां बड़ी मछली के साथ बगुला भगत और उसके करीबी संगी-साथियों के पेट में गयीं तथा कई छोटी-मझोली मछलियां पलायन और विस्थापन की शिकार हुर्इं!

जेट एयरवेज के संकट की खबरें छोटी मछलियों को खाकर मोटाने वाली बड़ी मछली के जानलेवा बीमारी से ग्रस्त होने की पुरानी ‘लोककथा’ के नये पाठ की तरह सामने आ रही है।

जेट एयरवेज ने सप्ताह भर पहले गुरुवार को शेयर बाजार को दी सूचना में कहा कि नरेश गोयल ने पंजाब नैशनल बैंक के पास 2.95 करोड़ शेयर यानी 26.01 प्रतिशत हिस्सेदारी गिरवी रखी है। जेट एयरवेज (इंडिया) लिमिटेड द्वारा लिए गये नए/मौजूदा कर्ज के लिए सुरक्षा के तौर यह हिस्सेदारी चार अप्रैल को गिरवी रखी गई। यह हिस्सेदारी कर्ज के लिए सुरक्षा गारंटी है। ऋण समाधान योजना के तहत, नरेश गोयल और उनकी पत्नी अनिता गोयल पिछले सप्ताह कंपनी के निदेशक मंडल से हट गए। जानकारी के मुताबिक, इसी दिन गोयल के 5.79 करोड़ से अधिक शेयरों को जारी किया गया। ये शेयर एयरलाइन द्वारा कर्ज के लिए सुरक्षा के तौर पर ‘नहीं बिकने वाली श्रेणी’ में रखे गए। नरेश गोयल एयरलाइन में हिस्सेदारी के लिए शुरुआती बोली जमा कर सकते हैं। एसबीआई कैप ने 8 अप्रैल को जेट एयरवेज में हिस्सेदारी बिक्री के लिए (लेटर ऑफ इंट्रेस्ट) अभिरुचि पत्र आमंत्रित किया। उसने अंतिम बोली जमा करने की तिथि 10 अप्रैल से बढ़ाकर 12 अप्रैल कर दी थी। नरेश गोयल ने 25 मार्च को चेयरमैन पद से इस्तीफा दिया था।

जेट एयरवेज के बारे में अब तक जो ‘सत्य-कथा’ प्रकाश में आ चुकी है उसके अनुसार, जेट एयरवेज ने भारत में पहचान बनाते ही विदेश में नाम कमाने के लिए 2007 में एयर सहारा को 1,450 करोड़ रुपये में खरीद लिया। नरेश गोयल ने ‘एयर सहारा’ का नाम बदलकर ‘एयर जेट लाइट’ रखा गया। इसके बाद उनके सामने मुश्किलें खड़ी हो गईं। 2007 तक उनकी कंपनी में 13 हजार कर्मचारी थे। 2008 में उन्होंने करीब 2 हजार कर्मचारियों की छंटनी की, लेकिन उनको दोबारा नौकरी पर रखा गया। 2012 में जेट एयरवेज डोमेस्टिक मार्केट में पिछड़ गई। ‘इंडिगो’ ने उनको पछाड़ दिया। 2013 में यूएई के एतिहाद एयरलाइंस ने जेट के 24 प्रतिशत शेयर्स खरीद लिये। गोयल के पास 51 प्रतिशत शेयर थे। 2018 में एयरलाइंस को नुकसान हुआ, जिसके बाद इंडिपेंडेंट डायरेक्टर रंजन मथाई ने इस्तीफा दिया। कर्मचारियों को सैलरी नहीं दी गई। कंपनी ने बैंक को ईएमआई नहीं दी। कंपनी की रेटिंग गिरी और कंपनी के बुरे दिन शुरू हो गये।

अब यह खबर भी मीडिया में वायरल हो चुकी है कि संकट में घिरे दिग्गज शराब कारोबारी और ‘भगोड़े’ विजय माल्या ने जेट एयरवेज के संस्थापक नरेश गोयल के साथ एकजुटता प्रकट की है! विजय माल्या ने इसके साथ भारतीय बैंकों से लिए गये ऋण को लौटाने की अपनी पेशकश भी दोहरायी है। करीब 9,000 करोड़ रुपये की वित्तीय धोखाखड़ी एवं धनशोधन के आरोपों का सामना कर रहे कारोबारी माल्या ने कहा कि भारत सरकार निजी विमानन कंपनियों के साथ भेदभाव कर रही है। भारत सरकार ने सरकारी एयरलाइन एयर इंडिया को सहायता राशि दी, जबकि किंगफिशर एयरलाइन एवं अब जेट एयरवेज को संकट से उबारने में सरकार ने मदद नहीं की। विजय माल्या ने ‘ट्वीट’ किया कि “हालांकि एक समय में जेट, किंगफिशर की बड़ी प्रतिद्वंद्वी हुआ करती थी, लेकिन इस समय एक बड़ी एयरलाइन को विफलता के कगार पर पहुंचता देख मुझे दुख हो रहा है। सरकार ने एयर इंडिया को संकट से उबारने के लिए 35,000 करोड़ रुपये की सहायता राशि दी। पीएसयू होना भेदभाव का आधार नहीं हो सकता।” उन्होंने फिर यह भी दोहराया – “मैंने किंगफिशर में काफी अधिक निवेश किया। वह एयरलाइन तेजी से बढ़ी और भारत की सबसे बड़ी और सबसे अधिक पुरस्कृत एयरलाइन बन गयी। ये सच है कि किंगफिशर ने सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों से भी कर्ज लिया। मैंने 100 प्रतिशत कर्ज लौटाने की पेशकश की, इसके बावजूद मुझ पर आपराधिक आरोप लगाये जा रहे हैं।”

किंगफिशर एयरलाइन के पूर्व प्रमुख ने मीडिया पर भी हमला बोलते हुए दावा किया कि वह जब भी सरकारी बैंकों को पैसा लौटाने की बात करते हैं, तो मीडिया में ऐसी खबरें चलने लगती हैं कि वह ब्रिटेन से भारत में प्रत्यर्पित किये जाने से ‘डर’ गए हैं। उन्होंने सवाल किया – “मैं लंदन में रहूं या भारत की किसी जेल में, मैं रुपये लौटाने को तैयार हूं। बैंक मेरी पेशकश के बावजूद रुपये क्यों नहीं ले रहे हैं।”

अब जब जेट ऐयरवेज के संस्थापक से एकजुटता दिखाने के लिए विजय माल्या खुलकर मीडिया में आ चुके हैं, तो 7-8 साल पहले ‘किंगफिशर’ के संकट से जुडी ‘सत्य-कथा’ को याद करना प्रासंगिक होगा। जेट एयरवेज के उत्थान-पतन और उसके ‘भविष्य’ के अनुमान के लिए किंगफिशर की ‘सत्य-कथा’ नायाब ‘कसौटी’ भी बन सकती है।

किंगफिशर की ‘सत्य-कथा’ की पटकथा उस वक्त लिखी जाने लगी थी, जब उस पर कर्ज का बोझ बढ़कर 7500 करोड़ रुपए (औसत ब्याज करीब 18 फीसद) पर पहुंच गया था। किंगफिशर कंपनी भारी कर्ज लेती थी और ‘डेट प्रबंधन’ के बल पर कर्ज का इस्तेमाल कर अपने कारोबार को बढ़ाती थी। लेकिन जब कर्ज का बोझ बढ़ा, तब विजय माल्या ने सरकार के सामने त्राहिमाम संदेश भेजा। उन्होंने सरकार से सहायता की गुहार लगाई। घाटे को पाटने के लिए ‘बेल-आऊट’ की मांग की। ‘बेल-आऊट’ का अर्थ था जनता के पैसे, जो सरकार के पास जमा हैं, में से अनुदान देना। हालांकि यह गुहार माल्या साहब ने इस ठसक के साथ लगाई थी कि उन्हें सरकार से ‘बेल आउट’ पैकेज नहीं चाहिए। उन्हें सिर्फ कुछ सस्ती दर पर बैंक से कर्ज और विमानन के लिए सस्ती दर पर र्इंधन चाहिए। (यह सूचना तो अब किसी भी सरकार के लिए बेमानी हो चुकी है कि विजय माल्या की ही ‘ब्रुअरीज’ कंपनी देश की सबसे बड़ी और स्पिरिट कारोबार में एक प्रमुख वैश्विक कंपनी है।)

वैसे, उस वक्त ‘किंगफिशर’ ही नहीं, कई हवाई जहाज की कम्पनियों की हवा निकल रही थी। यहां तक कि सरकारी हवाई कंपनी ‘एयर इंडिया’ की भी हालत खस्ता थी। यह माल्या भी जानते थे और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी। सो किंगफिशर को ‘बेल आउट’ करने का अर्थ था कई और कंपनियों के लिए भी ‘बेल-आउट’ करना। कुल मिलाकर यह कदम भारतीय भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए आत्मघाती कदम होता, यह मानकर उन्होंने विजय माल्या के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री उस वक्त भी आश्वासन देने के मूड में थे। क्यों? इसलिए कि विजय माल्या की हार ‘कॉरपोरेट’ की हार होती। और, कारपोरेट की हार घुमा-फिराकर सरकार के ‘इकनॉमिक्स’ की हार होती। मनमोहन सरकार की बुनियाद ही था - कॉरपोरेट। अगर यह बुनियाद ही हिलने लगे तो इमारत की हालत क्या होती! सो, उस वक्त की सरकार ने भारतीय विमानन कंपनियों को 26 फीसद तक की हिस्सेदारी खरीदने की छूट के प्रस्ताव पर विचार किया। जबकि उसके पूर्व के दस बरसों से सरकार ने कभी इस क्षेत्र के लिए विदेशी निवेश का रास्ते खोलने पर विचार नहीं किया था। सरकार ने टाटा की सिंगापुर एयरलाइंस से संयुक्त उपक्रम बनाने की योजना को मंजूरी नहीं दी थी। लेकिन वही सरकार किंगफिशर के लिए ‘बाइपास’ रोड निकालने जैसे उपाय पर विचार करने लगी! उसने विमानन कंपनियों को सीधे विदेश से विमान इंधन खरीदने की इजाजत दे दी। यानी सरकार द्वारा शुल्क वसूली बंद! कर्ज में डूबे माल्या जैसे कारपोरेट ‘देशभक्तों’ ने तब यह कहा कि विमानन कंपनियों को होनेवाले नुकसान की यही बड़ी वजह है, इसीसे विमान र्इंधन काफी महंगा हो जाता है। किंगफिशर करीब 1200 करोड़ रुपए की कंपनी थी। उसके लिए बैंक तो सख्त नजर आये, लेकिन मनमोहन सिंह की तत्कालीन केंन्द्र सरकार ‘उदार’ थी। सो मनमोहन जी ने जीवन बीमा निगम को कहा कि वह किंगफिशर एयरलाइंस में 10 फीसद हिस्सेदारी खरीदे। ‘निजी इक्विटी फंड’ को भी एक विकल्प माना गया। लेकिन उस फंड को जुटाने के लिए माल्या को अपनी कंपनी में हिस्सेदारी के लिए मोलभाव करना पड़ता। माल्या साहब को यह मंजूर नहीं था। उनका कहना था — ‘निजी इक्विटी वाले हमेशा मोलभाव करना चाहते हैं, और मैं अपनी संपत्तियों को सस्ते में नहीं बेचूंगा।’

हर कार्पोरेट दिग्गज की तरह, यह जाहिर है, माल्या साहब अपना कारोबार चलाने के लिए शेयर बाजार पर काफी भरोसा करते हैं। लेकिन उस वक्त बाजार में पब्लिक ऑफर के लिए आकर्षण नजर नहीं आया था। इस कारण से वह किंगफिशर को संकट से उबारने का उपाय अपने साथ काम करनेवाले अधिकारियों के साथ ढूंढ रहे थे। उपाय क्या? यह कि उन्होंने पिछले 30 साल में काफी लोगों को पैसा बनाकर दिये, वे ही लोग अब दोस्त बनकर उनके साथ खड़े हों। माल्या साहब अपने करीबियों को करीब 700 करोड़ रुपए जुटा चुके थे। उन्हें उन्हीं से सहयोग की उम्मीद थी। उन दोस्तों में रिलायंस इंडस्ट्रीज, सहारा, समूह, टाटा समूह, फोर्टिस हेल्थकेयर और रेलिगेयर शामिल थे।

किंग फिशर की ‘सत्य-कथा’ को ठीक से समझने के लिए इस खबर का स्मरण दिलाना आज भी जरूरी है कि उस वक्त ‘वॉल स्ट्रीट’ में आंदोलन चल रहा था। ‘वॉल स्ट्रीट’, जिसे कॉपोरेट का स्वर्ग कहा जाता है, में हजारों लोग जमा थे। उस वक्त ‘वॉल स्ट्रीट’ से कॉरपोरेट के खिलाफ ऐसी आवाज उठी थी जो दुनिया के 1000 के ज्यादा शहरों में फैल गई थी। कॉपोरेट के खिलाफ वह अब तक की सबसे बड़ी लड़ाई थी। और, भारत में ‘कॉरपोरेट सेक्टर’ को बचाने के लिए सरकार उपाय ढूंढ रही थी! (आज की मोदी सरकार इसी कार्य को ‘सबका साथ-सबका विकास’ की धमकी के साथ नयी बुलंदी पर पहुंचा रही है!)

पूर्व की मनमोहन सरकार हो या आज की मोदी सरकार, दोनों के आर्थिक विकास का चिंतन का बुनियादी सूत्र एक है कि कारपोरेट हवाई ‘कम्पनियां’ देश के विकास के लिए महत्वपूर्ण होती हैं। लेकिन कौन-सी कंपनी फायदेमंद है? कौन-सी कंपनी अपना मुनाफा कमाते हुए भी जनता की ‘कुछ’ सेवा करती है? कौन-सी कंपनी जनता की जेब काटती है? इसका आकलन जरूरी है। क्योंकि ये कंपनियां ‘जनता की गाढ़ी कमाई की लूट पर’ आधारित हवाई यात्रा कराती हैं और इसके साथ विकास का भ्रमपूर्ण हवाई सपने भी दिखाती हैं। इस तरह की कंपनियों को ‘बेल आऊट’ करने के किसी भी कोशिश का अर्थ है जनता की कमाई का दुरुपयोग। आज खुद को ‘देशभक्त’ दिखाने की निर्लज्ज होड़ में शामिल देश के कई कार्पोरेट उद्योगपति यह कहते हैं कि बेल आउट माँगने वाली कम्पनी को बाजार में मरने वाली कंपनियों की श्रेणी में शामिल होने के लिए छोड़ देना चाहिए। इसकी मौत में देश की भलाई है! यानी ज़िंदा हाथी लाख का, तो मरा हाथी सवा लाख का!

तो किंगफिशर की सत्यकथा का अब तक का क्लाइमेक्स क्या है? और, अब जेट एयरवेज का भविष्य क्या है? यह बीमार बड़ी मछली की प्राचीन ‘लोककथा’ की तरह अनुत्तरित है।