1947 की ‘आकारिक आजादी’ के बाद भारत सरकार कीे विकास की पूंजीवादी नीति के चलते लगातर भारत में पूंजी का संकेन्द्रण बढ़ता गया है। क्रेडिट सूइस के अनुसार हमारे देश में सम्पत्ति का बंटवारा काफी असमान है।

सबसे धनी 1 प्रतिशत के पास सम्पत्ति का 51.5 प्रतिशत हिस्सा है और 4 प्रतिशत एवं 5 प्रतिशत के पास सम्पत्ति का क्रमशः 17.1 प्रतिशत एवं 8.8 प्रतिशत हिस्सा। सबसे धनी 10 प्रतिशत के पास देश की सम्पत्ति का 77.4 प्रतिशत हिस्सा है। सबसे गरीब 60 प्रतिशत के पास देश की सम्पत्ति का केवल 4.7 प्रतिशत हिस्सा है और 20 प्रतिशत एवं 10 प्रतिशत के पास क्रमशः 8.6 प्रतिशत एवं 9.2 प्रतिशत हिस्सा। देश की जनता के सामने पूंजीवादी विकास नीति का असर इसी रूप में परिलक्षित होता है।

मार्क्सवादी विश्लेषण के अनुसार पूंजीवाद का मौलिक अन्तर्विरोध उत्पादन के सामाजिक चरित्र और प्रत्याहरण (अप्रोप्रीएशन) के निजी चरित्र के बीच होता है। इसी अन्तर्विरोध के चलते अति उत्पादन का संकट पैदा होता है। पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया में आम जानता की खरीद क्षमता सीमित होती जाती है और उत्पादित वस्तुओं को खरीदने में वे सक्षम नहीं होती हैं। पूंजीवाद का यह संकट एक खास अंतराल के बाद पूंजीवादी दुनिया को झकझोरता रहता है।

एंगेल्स पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विकास की इस प्रक्रिया को ‘संकट से संकट की ओर’ की संज्ञा देते हैं, जहां ‘उत्पादन की पद्धति विनिमय की पद्धति के खिलाफ विद्रोह करती है।’ इस प्रक्रिया में बेरोजगारी भयानक हद तक बढ़ जाती है और वर्ग अन्तर्विरोध काफी तेज हो जाता है। चूंकि भारतीय शासक वर्ग देश के विकास की पूंजीवादी पद्धति को अपना रहा है और विश्व के पैमाने पर पूंजीवादी का संकट गहरा होता जा रहा है, जिसका सीधा असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है, इसलिए हमारे देश में बेरोजगारी का स्तर ‘भयानक हद तक’ बढ़ गया है।

ऐसी हालत में बेरोजगारी की समस्या का कोई टुकड़े-टुकड़े में समाधान नहीं हो सकता है।

भाजपा नीत सरकार केन्द्र की गद्दी पर हो या कांग्रेस नीत सरकार, वे चाहे जितनी भी कोशिश कर लें, वे पूंजीवाद के संकट, और खासकर बेरोजगारी की समस्या का समाधान नहीं कर सकती। इस समस्या के वास्तविक समाधान के लिए बेरोजगारी पैदा करने वाली व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करने की लड़ाई को तेज करना जरूरी है।