आज महात्मा गांधी जयंती है. इसका उपयोग गांधीजी के जीवन और दर्शन के बारे में दो शब्द बोलने के लिए मैं करूंगा. मैं उन्हीं बातों को रखूंगा जो मैंने उनके बारे में समझा और जाना, क्योंकि गांधीजी ने जीवन के हल पहलू पर विचार किया है, उन तमाम बातों को यहां रखना संभव नहीं. इसके अलावा गांधीजी की कुछ बातों का मैं कायल भी नहीं हो सका. मसलन, उनके ट्रस्टीशिप का सिद्धांतं. जाति व्यवस्था के बारे में उनकी अवधारणा या फिर ब्रह्मचर्य को लेकर उनके गूढ प्रयोग. मैं उन्हीं बातों को आपके साथ शेयर करना चाहता हूं जो मेरी समझ में आया.

सबसे पहली बात तो यह कि गांधी को सबसे अधिक उनकी अहिंसा के लिए जाना जाता है. उनके इस कथन को लेकर उनकी खिल्ली उड़ाई जाती है कि कोई तुम्हें एक थप्पड़ मारे तो तुम उसकी तरफ अपना दूसरा गाल बढा दो. यह गांधीवादी दर्शन की एक प्रमुख बात तो है लेकिन यह एकांगी नहीं. गांधीवादी दर्शन के अन्य पहलुओं- सादगी, सदाचार, आत्मनिर्भरता, सहिष्णुता आदि जीवन मूल्यों को समझे बगैर अहिंसा को समझना मुश्किल है. और गांधी की अहिंसा कभी भी हमे कायर बनने की शिक्षा नहीं देती. इतिहास गवाह है कि उन्होंने अंग्रेजों के हरेक हमले का मुंहतोड़ जबाब दिया था. कभी भी उनके सामने समर्पण नहीं किया. जालियांवाला बाग की घटना से पूरा देश हतप्रभ और सहमा हुआ था और उस वक्त उन्होंने एलान किया था कि अंग्रेजों को भारत छोड़ कर जाना होगा. अंग्रेजों ने हंस कर उनकी खिल्ली उड़ाई- क्या आप समझते हैं, हम यू ही चले जायेंगे. उनका जबाब था कि 34 करोड़ भरतीय यदि आपको नकार दें, आपसे असहयोग कर दें, तो आप यहां नहीं रह सकते. आपको जाना ही होगा. और सभी जानते हैं कि 42 के भारत छोड़ों आंदोलन के बाद अंग्रेजों ने यहां से जाने की तैयारी शुरु कर दी.

अंग्रेजों का पदार्पण इस देश में 1657 के आस पास हुआ था. लगभग सौ वर्ष लग गये उन्हें यहां अपना पैर जमाने में. 1857 के सिपाही विद्रोह के बाद इस्ट इंडिया कंपनी की जगह ब्रिटिश संसद ने इस देश की बागडोर अपने हाथों में ले ली. 1918 के आस पास गांधीजी का भारतीय राजनीति में प्रवेश हुआ और तीस वर्षों के संघर्ष के बाद वे यहां से जाने के लिए विवश हो गये. महज तीस वर्षों में भारत से उस महाशक्ति की विदाई हो गई जिसके राज में कहा जाता था कि सूरज कभी डूबता नहीं.

गांधी का अमोघ अस्त्र था सत्याग्रह, असहयोग और सिविल नाफरमानी. गांधीजी ने अंग्रेजों के खिलाफ तो इन अस्त्रों का सफलता पूर्वक उपयोग किया ही, वे आगे के संघर्षों के लिए भी उसे हमारे पास छोड़ गये. मेरा मानना है कि अच्छी से अच्छी सामाजिक -आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था से कुछ लोगों को विरोध हो सकता है. तो वे व्यवस्था के खिलाफ अपना विरोध कैसे दर्ज करें? गांधीजी ने यह रास्ता दिखाया था. व्यक्तिगत सत्याग्रह, धरना, प्रदर्शन, घेराव, अनशन और फिर सविनय अवज्ञा. आजादी के बाद के कई बड़े आंदोलन इन्हीं तरीकों से चले. चाहे वह बिहार, गुजरात व असम का छात्र आंदोलन. अभी भी देश भर में बहुदेशीय कंपनियों और सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ इन्हीं तरीकों से आंदोलन चल रहा है. नेतरहाट में फायरिग रेंज के खिलाफ चला आंदोलन या फिर सुवर्णरेखा परियोजना के विस्थापितों का आंदोलन इन्हीं तरीकों से चला.

यह अलग बात कि आज की सत्ता आंदोलन के इन तरीकों को कुंठित करने, उनकी अवज्ञा करने में लगी है. परिणाम स्वरूप अब एक जमात उस रास्ते पर भी चल पड़ी है जिनकी समझ है कि सत्ता बंदूक की नली से ही निकलती है. जो मानते हैं कि हिंसा के तरीकों से ही जनता की समस्याओं का समाधान हो सकता है. लेकिन हमलोग इस बात को करीब से देख और समझ सकते हैं कि हिंसा के रास्ते भीषण रक्तपात और जान-माल की हानि के बावजूद हम शोषणमुक्त समाज के लक्ष्य की दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ सके हैं.

यहां हम इस बात का उल्लेख करना चाहेंगे कि गांधीवादी दर्शन न सिर्फ हमें संघर्ष करने के तरीके बताता है, बल्कि साथ ही नव निर्माण का एक मुकम्मल चित्र भी प्रस्तुत करता है. संभवतः कोई राजनीतिक दर्शन संघर्ष के साथ नव निर्माण का चित्र प्रस्तुत नहीं करता. और नव निर्माण की बुनियाद का सूत्र वाक्य है गांधी का यह कथन- यह धरती सभी की जरूरतों को पूरा कर सकती है लेकिन किसी एक व्यक्ति के भी हवस को पूरा करने में असमर्थ है. गांधीजी संघर्ष के साथ सतत नव निर्माण की प्रक्रिया भी चलाते रहे. चरखा उसका प्रतीक रूप है. इसे आपको व्यापक अर्थों में ग्रहण करना होगा और वह है आत्मनिर्भरता पर आधारित ग्राम स्वराज्य की उनकी कल्पना. अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए खेतीबाड़ी के साथ चलता कुटिर उद्योंगों का जाल. मुनाफे के लिए नहीं, मनुष्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए उद्योग धंधा.

बहुत सारे लोग इस बात बात से उत्तेजित हो उठते हैं. बड़े उद्योगों के बगैर समाज की जरूरतें पूरी नहीं हो सकती. रोजगार कहां से मिलेगा? तरक्की कैसे होगी? गांधीवादी दर्शन तो हमे बैलगाड़ी वाले दौर में बनाये रखेगा. विडंबना यह कि आजादी के बाद कई दशकों से हम उन्हीं रास्तों पर चल रहे हैं जो गांधी के रास्ते से अलग है, लेकिन समस्यायें पहले से ज्यादा विकराल रूप में प्रगट हो रही है. गैर बराबरी बढी है. गरीबी और बेरोजगारी बढती जा रही है. हां, बहुसंख्यक आबादी को जीवन की बुनियादी सुविधाओं से महरूम कर हमने कुछ महानगरों की सृष्टि जरूर की जहां, भौतिक विलास के तमाम साधन मौजूद हैं. जगमग रौशनी, गगन चुंबी इमारते, कोलतार की चिकनी सड़के, उन पर दौड़ती नित नये माडलों की गाड़िया आदि आदि. लेकिन उन महानगरों के बाहर चतुर्दिक अंधकार है. भरपेट भोजन के लिए तरसते लोग हैं. कुपोषित बच्चे और एनीमिया, यानी रक्त की कमी की शिकार औरतें हैं. और इनकी संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा हमारे यहां हैं.

ज्यादा मत सोचिये. क्या आप रात के वक्त रांची या टाटा रेलवे स्टेशन पर कभी गये हैं? वहां दतवन की डंठलों से घिरी औरतों को प्लेटफार्म पर सिकुड़ कर सोते देखा है? क्यों बढती जा रही है ऐसे मुफलिस लोगों की जमात प्राकृतिक संसाधनों और खनिज संपदा से भरपूर इस राज्य में? झारखंड में तो पिछले तीन दशकों में सबसे अधिक कल कारखानों की स्थापना हुई. देश का सबसे बड़ा और पहला खाद कारखाना सिंदरी में, तमाम स्टील कारखाने आदिवासीबहुल इलाकों में, सबसे बड़ी मशीन निर्माण की कंपनी एचइसी रांची में. देश के बड़ी नदी घाटी परियोजनाओं में से एक डीवीसी झारखंड में. दुनियां में अपनी अमीरी का झंडा बुलंद करने वाली टाटा कंपनी का प्रमुख कार्य क्षेत्र झारखंड. फिर अपना राज्य सबसे पिछड़ा और गरीब क्यों है? लाखों लोगों को रोजगार तो मिला, बोकारो, धनवाद, टाटा जैसे नये शहर तो अस्तित्व में आये, लेकिन झारखंड के आदिवासियों मूलवासियों के हालात नहीं बदले. अमीरी तो बढी, लेकिन आम आदमी की क्रय शक्ति नहीं बढी.

इसका यह अर्थ कदापी नहीं कि गांधी या उनके समर्थक नई तकनीक के विरोधी हैं. गांधीजी के जमाने में इंटरनेट नहीं था, लेकिन बेतार का तार यानी, टेलिग्राम था और गांधीजी ने उसका जितना उपयोग देश— दुनियां में अपने विचारों को फैलाने के लिए किया, उतना शायद और किसी ने नहीं. आम जनता को भी मोबाईल, सड़क, बिजली , वाहन, सड़के सभी कुछ चाहिए. सवाल यह है कि उत्पादन के संसाधन और मशीनों के साथ मनुष्य का रिश्ता क्या होगा? मशीन तो हों, लेकिन हम मशीन का गुलाम न बन जायें. समृद्धि तो चाहिए लेकिन व्यक्ति की नहीं, समाज की. और गांधी के अनुसार विकास का पैमाना यह तथ्य होना चाहिए कि समाज के अंतिम जन का जीवन स्तर क्या है. यदि हमारा विकास इस कसौटी पर खड़ा नहीं उतरता है तो वह विकास हमारे काम का नहीं.

गांधीजी जीवन में पारदर्शिता के बहुत हिमायती थे. साथ ही मन, वचन और कर्म की एकरूपता उनके जीवन का आदर्श था. उनका मानना था कि यदि छूआछूत मिटाने के आप हिमायती हैं तो अपने घर का संडास पहले अपने हाथों से साफ करना शुरु कीजिये. यदि आप ऐसा नहीं कर रहे तो समाज में बदलाव लाने की आपकी सारी बातें एक ढकोसला है.