2018 की चंपारण यात्रा में हमें लगा कि कई मामलों में गाँधी के बारे में सब दुविधाग्रस्त हैं। कई सवाल ऐसे हैं,जिनके समाधान की तलाश में गाँधी ने क्या और कैसे प्रयोग किये या उनके बारे में क्या कहा, इसकी स्पष्ट जानकारी नहीं है। रास्ते में सामान्य सन्दर्भ में भी हमने यह शिद्दत से महसूस किया कि आज गांधी की ‘प्रतिमा’ की पूजा करनेवाले या उसे पीटनेवाले लोग, जमात और पार्टी-संगठन - चाहते या न चाहते हुए भी - अपने हर सवाल या समस्या या संकट के वक्त गांधी को अपना ‘मुकुट’ या ‘मुखौटा’ बनाते हैं। लेकिन किसी न किसी दुविधा, द्वंद्व, उलझन, परेशानी या कठिनाई में फंसे रहते हैं।

हर यात्रा से लौट कर हम मित्रों ने कई सवाल सीधे गांधी के सामने रखे, जो आज भी प्रासंगिक लेकिन अनुत्तरित हैं। यानी इसके लिए हमने दिल्ली-कलकत्ता और मुंबई की यात्रा की ; उन सवालों के जवाब हमने गाँधी के लिखे या गाँधी पर लिखे ग्रन्थों में खोजने का प्रयास किया। गांधी को जानने-समझने का दावा करनेवाले कई विशेषज्ञ मित्रों से मुलाक़ात की, खूब बहस की। उनके जवाबों की ‘प्रामाणिकता’ और ‘सत्यापन’ के लिए ‘इतिहास’ को खंगालने, और संबद्ध तथ्यों, घटनाओं, स्रोत-सन्दर्भ, तारीखों से जुडी तवारीख आदि के संकलन-संग्रहण की कोशिश की। इसी कोशिश का एक छोटा-सा प्रमाण है –’गांधी से मुलाकात’। यह ‘चम्पारण डायरी’ पुस्तक (अभी तक अप्रकाशित) का एक अध्याय है। यहां उस अध्याय के कुछ अंश दिए जा रहे हैं।

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गांधी से मुलाक़ात –(1)

प्रश्न : आप कब तक जीते रहने की आशा करते हैं?

गांधी : अनंत काल तक।

प्रश्न :क्या आप अमरत्व में विश्वास करते हैं ?

गांधी : हां, आत्मा का पुनर्जम और शरीर-परिवर्तन हिंदू धर्म के दो मूलभूत सिद्धांत हैं।

प्रश्न : यदि सब लोग आपके अनुसार सादा जीवन, उपवास और साधना आदि को अपना लें, तो क्या आप सोचते हैं कि वे शतायु होंगे?

गांधी : जी हां, पर इसका निर्णय मेरे मरने पर अधिक अच्छी तरह किया जा सकता है।

प्रश्न : आपअपनी मूर्ति या स्मारक खड़ा करने के समर्थक हैं या विरोधी ?

गांधी :विरोधी, क्योंकि मनुष्य का सर्वोतम स्मारक पत्थर की कोई इमारत नहीं, वरन उनके जीवंत कार्य ही उसका स्मारक हैं। यह स्मारक उन लोगों के मन में हमेशा बना रहता है जिनकी उसने सेवा की है। धन का उपयोग गरीबों के उत्थान-कार्य में किया जाना चाहिए न कि जिस व्यक्ति ने सेवा की है, उसे संगमरमर की मूर्ति बनाकर अमरत्व प्रदान करने और गौरव देने में।

प्रश्न : कौन-सी सरकार आपके आदर्श सरकार के विचार के सबसे नजदीक बैठती है? गांधी : कोई भी नहीं। आदर्श सरकार ऐसी होनी चाहिए जिसमें आदमी जीवन के प्रत्येक पहलू में अपने उच्चतम शिखर तक पहुंचे और जिसमें उसके हितों को अन्य सब बातों से महत्वपूर्ण माना जाये।

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गांधी से मुलाक़ात –(2)

प्रश्न : आपने अपना अंतिम जन्म दिवस कब मनाया? आपको याद है? आपने उसे कैसे मनाया, उसके बारे में कुछ बताएंगे?

गांधी : अक्तूबर, 1947 की 2 तारीख मेरे पार्थिव जीवनकाल में मनाया जाने वाला अंतिम जन्म-दिवस था। मैंने अपना जन्म-दिन हमेशा की तरह उपवास, प्रार्थना और विशेष कताई करके मनाया। उपवास आत्म-शुद्धि के लिए और कताई द्वारा मैंने ईश्वरीय सृष्टि के सबसे दीन-हीन लोगों की सेवा में जीवन अर्पण करने के अपने प्रण को दोहराया। चरखा अहिंसा का द्योतक था। वह प्रतीक समाप्त-सा हो गया था। मगर इस आशा से कि शायद चरखे के संदेश के प्रति निष्ठावान कुछ थोड़े से लोग जहां-जहां हो सकते हैं, मैंने यह आयोजन बंद नहीं किया था।

सुबह साढ़े आठ बजे स्नान के बाद जब मैं अपने कमरे में प्रविष्ट हुआ। और शुरू में ही एक मजेदार बात हो गयी। कई लोग मेरा अभिवादन करने आ गये। उनमें से एक ने कहा – “बापूजी, हम अपने जन्म दिन पर अन्य लोगों से चरण छूकर आशीर्वाद ग्रहण करते हैं, लेकिन आपके मामले में बात इसके बिल्कुल विपरीत होती है। क्या यह उचित है?” मुझे बहुत अच्छा लगा। मैं खुलकर हंसते हुए बोला – “महात्माओं के तरीके भिन्न होते हैं। इसमें मेरा कोई दोष नहीं। आपने मुझे महात्मा बना दिया, हालांकि बोगस महात्मा, इसलिए आप लोगों को सजा तो भुगतनी पड़ेगी।” कुछ अतरंग साथी प्रतीक्षा कर रहे थे - पंडित नेहरू, सरदार पटेल, घनश्यामदास बिड़ला और बिड़ला परिवार के समस्त सदस्यगण शामिल थे। मीरा बहन ने मेरे बैठने के लिए बिछे आसन के सामने रंग-बिरंगे फूलों से कलापूर्ण ‘क्रॉस’, ‘हे राम’ और ‘ऊं’ लिखकर खूबसूरती से सजाया था। एक संक्षिप्त प्रार्थना हुई, जिसमें सबने भाग लिया। उसके बाद मेरी एक प्रिय अंग्रेजी भजन ‘WhenI survey the wondrous Cross” गाया गया। साथ ही एक और प्रिय हिंदी भजन ‘हे गोविंद राखो शरण’ का भी गायन हुआ।

सारे दिन अपनी श्रद्धांजलि अर्पण करने के लिए आगंतुकों एवं मित्रों का तांता लगा रहा। राजदूतावासों के प्रतिनिधिगण भी आये, उनमें से कुछ अपनी सरकार की ओर से मेरे लिए शुभकामना-संदेश लेकर आये। अंत में लेडी माउंटबैटन अपने साथ पत्रों और तारों का पुलिंदा लेकर आईं।

मैंने सब लोगों से अनुरोध किया : आप इस बात की प्रार्थना करें कि ईश्वर या तो देश में जारी अग्निदाह (conflagration)को शांत कर दे अथवा मुझे उठा ले। मैं कतई नहीं चाहता कि आग से जलते भारत में मेरी दूसरी वर्षगांठ आये।”

मैं सरदार से बोला : “मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया था कि जो ईश्वर ने मुझे इस सारे संत्रास का साक्षी बनने के लिए जीवित छोड़ रखा है?”

मुलाकाती लौटने लगे तभी मुझे खांसी का एक और दौरा आया। मैं बूढ़ा ठहरा, मन ही मन बोलने लगा - बड़बड़ाने लगा – “यदि प्रभुनाम मेरे लिए सब रोगों की रामबाण दवा सिद्ध नहीं होता, तो मैं इस शरीर को छोड़ देना अधिक पसंद करूंगा। एक भाई द्वारा दूसरे भाई की हत्या का इस सतत जारी सिलसिला के कारण सवा सौ वर्ष जीने की मेरी इच्छा बिल्कुल नहीं रह गयी है। मैं इन हत्याओं का असहाय साक्षी बनकर नहीं रहना चाहता…।”

तभी किसी ने बीच में कहा - “तो आप सवा सौ वर्ष से शून्य पर उतर आये?

“हां, अगर यह दावानल शांत नहीं हो…।”

उस दिन आकाशवाणी पर मेरा जन्म दिन मनाने के लिए एक विशेष कार्यक्रम प्रसारित करने का आयोजन किया गया था। मुझसे पूछा गया – “क्या आप अपवाद-स्वरूप सिर्फ एक बार रेडियो का विशेष कार्यक्रम नहीं सुनेंगे?” मैंने कहा – “नहीं, मुझे रेडियो के बजाय रेंटियो (गुजराती में चरखे को रेंटियो कहते हैं) ज्यादा पसंद है। चरखे की गूंज मुझे अधिक मीठी लगती है। उसमें मुझे मानवता का शांत और करुणापूर्ण संगीत सुनाई देता है।” मैंने ने विश्व के सभी भागों से मेरे जन्मदिन पर आये बधाई संदेशों, तारों और पत्रों को प्रकाशनार्थ जारी करने से इनकार कर दिया। मुसलमान मित्रों से और पाकिस्तान से भी मुझे अनेक आकर्षक संदेश प्राप्त हुए, लेकिन मैंने महसूस किया कि जब आम जनता में सत्य और अहिंसा के प्रति, कम-से-कम फिलहाल, अविश्वास नजर आता है तो यहवक्त इन पत्रों को प्रकाशित करने का नहीं है।

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गांधी से मुलाकात की अगली कड़ियां अगले अंक में.