यदि दिल्ली के नतीजे उसके पक्ष में आते हैं तब तो देश में बहुसंख्यकवाद का बुलडोजर और भी खतरनाक और निरंकुश तरीके से चलेगा.

जब आप इस लेख को पढ़ रहे होंगे, तब भी दिल्ली चुनाव के नतीजे आने में कुछ विलम्ब होगा. इसे लिखने तक तो बहुत विलम्ब है. यानी दिल्ली का ताज अभी उसके दावेदारों की पहुंच से दूर है. इसलिए महज एक्जिट पोल के आधार पर नतीजों का विश्लेषण करना मुनासिब नहीं है. लेकिन इस पर विचार जरूर किया जा सकता है कि यदि भाजपा जीत जाती है तो क्या होगा; और यदि नतीजे एक्जिट पोल के नतीजे के अनुरूप ही आते हैं, यानी केजरीवाल पुनः मुख्यमंत्री बनते हैं, तो क्या होगा? कि देश की भावी राजनीति पर इन उलट नतीजों का क्या प्रभाव पड़ेगा?

तो पहले ‘आप’ की जीत, जिसकी अधिक सम्भावना है, पर विचार करते हैं. निश्चय ही इसका सकारात्मक असर पड़ने की उम्मीद की जा सकती है. इसलिए कि यह महज एक व्यक्ति-केजरीवाल- या एक पार्टी की जीत नहीं होगी, बल्कि यह सकारात्मक राजनीति की जीत होगी. इसलिए कि पहली बार किसी सत्तारूढ़ दल ने पूरा चुनाव अभियान अपनी सरकार के काम के आधार पर चलाया. कहा जा सकता है कि केजरीवाल ने ऐसा रणनीति के तहत भी किया, क्योंकि अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआती काल में मोदी पर हमलावर रहे (यहाँ तक कि वे 2014 के संसदीय चुनाव में बनारस में मोदी के खिलाफ भी खड़े हो गये थे), और केंद्र सरकार पर दिल्ली सरकार के काम में रोड़े अटकाने के आरोप लगाते रहे और मुख्यमंत्री रहते हुए धरने पर बैठ गये केजरीवाल को अंततः समझ में आ गया कि ‘ब्रांड मोदी’ का मुकाबला करना उनके लिए आसान नहीं है, नुकसानदेह भी है. 2019 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सारी सात सीटों पर भाजपा की आसान जीत से भी स्पष्ट हो गया था कि मुख्यमंत्री के रूप में उनको पसंद करने वाले दिल्ली के मतदाता भी राष्ट्रीय राजनीति के सन्दर्भ में भाजपा और मोदी को ही पसंद करते हैं.

बेशक केजरीवाल में अनेक कमियां हैं. लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनकी समझ स्पष्ट है, बहुधा यह संदेह भी होता है. धारा 370 हटाने का उन्होंने समर्थन किया. ‘शाहीनबाग’ से दूरी बनाये रखी, इस भय से कि कहीं उन्हें हिंदू विरोधी न मान लिया जाये, अपने दल के अंदर उनका अंदाज निरंकुश नेता जैसा ही है. इस सबके बावजूद अभी वे तुलनात्मक लिहाज से एक बेहतर विकल्प तो नजर आ ही रहे हैं.

तो रणनीति के तहत ही सही, लेकिन ‘आप’ ने अपनी सरकार के बेहतर काम को मुद्दा बनाया. ऐसे में यदि परिणाम ‘आप’ के पक्ष में जाते हैं, तो सारे देश में और सारे राजनीतिक दलों के लिए एक संदेश जाएगा कि कोई किसी दल की सरकार अच्छा काम करे, तो मतदाता इसी आधार पर उसे दोबारा मौका दे सकते हैं. कि जनता को हमेशा नकारात्मक और संकीर्ण भावनात्मक प्रचार से बहलाया नहीं जा सकता.

उधार ‘आप’ के दावों को ठोस चुनौती देने में अक्षम भाजपा केजरीवाल के सामने मुख्यमंत्री के कोई नाम- चेहरा तक पेश नहीं कर सकी. अतः एक ओर तो उसने ‘ब्रांड मोदी’ को सामने रखा, दूसरे केंद्र सरकार की उपलब्धियों के आधार पर जनता को लुभाना चाहा; लेकिन अंतत जब यह लगने लगा कि इससे काम नहीं चलेगा, तो अपने आजमाये नुस्खे- धार्मिक भावनात्मक मुद्दों पर केन्द्रित हो गयी. संयोग से इन चुनावों के दौरान सीएए –एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ देश भर में हो रहे आंदोलन का एक बड़ा केंद्र दिल्ली का ‘शाहीनबाग़’ बन गया, जहां मूलतः मुसलिम महिलाओं का बेमियादी धरना चल रहा है. भाजपा नेताओं ने उसे देशद्रोह के अड्डे के रूप में प्रचारित किया. धरना में शामिल महिलाओं, उनके समर्थकों को पकिस्तानपरस्त बता कर उसे देश के (यानी हिंदुओं के) खिलाफ साजिश बताने का हर संभव प्रयास किया. एक्जिट पोल के नतीजों, जिनमें बिना अपवाद ‘आप’ को भारी बहुमत मिलता दिखाया जा रहा है, के बाद भी भाजपा नेताओं का अंदाज नहीं बदला है; वे अपनी जीत के दावे भी कर रहे हैं. ऐसे में एक नया सस्पेंस भी जुड़ गया है कि कहीं परदे के पीछे कोई खेल तो नहीं हो रहा है. हालांकि अब नतीजे जो हों, सबों को उसे स्वीकार करना चाहिए.

वैसे यदि भाजपा जीत जाती है, तो भाजपा के नेतागण कुछ भी कहें, ऐसा केजरीवाल सरकार की विफलता के कारण नहीं होगा. ऐसा हुआ तो भाजपा की नकारात्मक और निम्नस्तरीय राजनीति और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कारण ही होगा. और इसका नतीजा यह होगा कि आगे भी वह इसी रास्ते पर चलती रहेगी. शायद अन्य दल भी मान लेंगे कि अच्छा काम करने से वोट नहीं मिलता है. हालांकि पहले भी तमाम दल काम और जन सरोकार के मुद्दों के बजाय जाति, धर्म सहित अन्य गैर जरूरी मुद्दों तथा चमकदार प्रचार के दम पर चुनाव जीतने का प्रयास करते रहे हैं. जातीय समीकरण का हिसाब किताब तो सभी करते ही हैं. बहुधा सफल भी हो जाते हैं. मगर दिल्ली में यदि ‘आप’ सफल होती है, तो दलों को यह एहसास हो सकता है कि नकली मुद्दे अब काम नहीं करेंगे, सरकार में रहते हुए काम भी करना पड़ेगा. और नतीजा उलट हुआ तो विपरीत संदेश जायेगा. जाहिर है, यह देश की भावी राजनीति के लिए बहुत बुरा होगा.

वैसे ऐसा भी नहीं है कि दिल्ली में पराजित होने पर भाजपा का चाल चरित्र बदल ही जायेगा, कि वह आगे सांप्रदायिक कार्ड खेलना बंद कर देगी. फिर भी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि उसके नेता भी आत्मचिंतन करें, कि वे भी जनता से जुड़े मुद्दों पर फोकस करें. लेकिन यदि दिल्ली के नतीजे उसके पक्ष में आते हैं तब तो देश में बहुसंख्यकवाद का बुलडोजर और भी खतरनाक और निरंकुश तरीके से चलेगा.

उम्मीद और कामना करें कि ऐसा नहीं होगा.