एक ओर प्रधानमंत्री कहते हैं कि लैंगिक समानता और लैंगिक न्याय के बिना कोई राष्ट्र उन्नति नहीं कर सकता है, इसीलिए उनकी सरकार ने ‘बेटी पढ़ाओं, बेटी बचाओ’ का नारा देकर महिलाओं को हर क्षेत्र में समान अवसर प्रदान किया है. फिर सरकार या सरकार बनाने वाली राजनीतिक दल की और से स्त्री-पुरुष विभेद के इस तरह के बयान क्यों आते हैं?

शास्त्रों में कहा गया है कि विद्या से विनम्रता प्राप्त होती है. तब आरएसएस प्रमुख यह कैसे कहते हैं कि शिक्षित हो कर महिलाएं अहंकारी हो गयी हैं? वे परिवार और बच्चों के प्रति अपने दायित्व को नहीं निभा पा रही हैं. इसी के चलते तलाक की दर बढ़ गयी है. इसके पहले भागवत जी यह भी कह चुके हैं कि विवाह रूपी समझौते में पुरुष स्त्री को भोजन और सुरक्षा देता है, तो इसके बदले में स्त्री पुरुष को सुख देती है, उसके लिए बच्चे पैदा करती है और उसका लालन पालन करती है. उनके कहने के अनुसार पढ़ लिख कर महिलाएं अपने इन घरेरु दायित्वों से विमुख हो रही हैं, फलतः पुरुष उन्हें तलाक दे रहे हैं. तलाक देने का अधिकार तो पुरुष को ही है, लेकिन यह अपराध स्त्री का है.

अब यह प्रश्न उठता है कि क्या शिक्षा स्त्रियों को अहंकारी बना रही हैं, पुरुषों को नहीं? दूसरी बात, इक्कीसवी शताब्दी में यदि महिलाएं पढ़ लिख कर नौकरियां कर पुरुष को आर्थिक सहयोग दे रही हैं तो क्या पुरुष का यह दायित्व नहीं बनता कि वह पत्नी के घरेलु कामों में सहयोग करे. यह किस शास्त्र में लिखा है कि पुरुष घर के काम नहीं कर सकते हैं या बच्चों का लालन-पालन नहीं कर सकते हैं. संविधान में लिखा स्त्री-पुरुष बराबरी का अधिकार केवल घर के बाहर ही है क्या, घर के अंदर नहीं?

ऐसा भी तो देखा गया कि घर से बाहर निकल कर नौकरियां करने वाली महिलाओं को निरंतर यह एहसास दिलाया जाता है कि स्त्री होने के कारण कई काम पुरुषों के बराबर नहीं कर सकती हैं. इस तरह सारी योग्यताओं के बावजूद उनके आत्मसम्मान को चोट पहुंचायी जाती है. जिन कामों में शारीरिक बल या बौद्धिक कुशलता की जरूरत होती है, वह स्त्रियों के लिए अयोग्य माना गया है. स्त्रियों ने अपनी मेहनत और दृढ़ इच्छाशक्ति से इन क्षेत्रों में भी प्रवेश कर पुरुषों को कड़ी चुनौती दी है. लेकिन यह स्थिति भारतीय समाज को रुचति नहीं है.

महिला सैन्य अधिकारियों को स्थाई कमीशन देने के मामले में उच्चतम न्यायालय के सामने सरकार की दलीलें इसी मानसिकता को प्रदर्शित करती हैं. सरकार के अनुसार स्थाई कमीशन देने पर महिला अधिकारी को अपने काम में ज्यादा समय देना पड़ेगा, जिसका खराब असर उसके परिवार और बच्चों पर पड़ेगा. दूसरे, महिला अधिकारी के अधीन काम करने की मानसिकता पुरुषों को नहीं है. उच्च्तम न्यायालय ने सरकार के इन दलीलों को दकियानूसी विचार कहा है.

एक ओर प्रधानमंत्री कहते हैं कि लैंगिक समानता और लैंगिक न्याय के बिना कोई राष्ट्र उन्नति नहीं कर सकता है, इसीलिए उनकी सरकार ने ‘बेटी पढ़ाओं, बेटी बचाओ’ का नारा देकर महिलाओं को हर क्षेत्र में समान अवसर प्रदान किया है. फिर सरकार या सरकार बनाने वाली राजनीतिक दल की और से स्त्री-पुरुष विभेद के इस तरह के बयान क्यों आते हैं? पुरुष की श्रेष्ठता और स्त्री को दोयम दर्जे की नागरिक मानने वाले भारतीय पुरुष की मानसिकता स्त्री के कायाकल्प से भयभीत है? या उन्हें ईर्ष्या हो रही है?