औरत का समय पर घर लौटना जरूरी है. क्योंकि सुबह से लेकर रात तक उनके कामों का एक सिलसिला बना रहता है. और हर हालत में उसे ही करना है. सुबह उठ कर पति या बेटा से यह पूछा जाता है कि आज खाने में क्या बनेगा? उसे घर के पुरुष से महिला दिवस में जाने की अनुमति लेनी पड़ती है या वहां तक पहुंचने में उसकी मदद लेनी पड़ती है.

आठ मार्च के आने का आहट यानि महिला दिवस मनाने का उत्साह महिला संगठनों तथा अनेक सचेतन महिलाओं में दिखने लगती है. महिला दिवस में महिलाओं को कहां जुटना है, समय क्या होगा, कौन् महिलाएं वक्ता होंगी, विषय क्या होंगे, इन सारे प्रश्नों का हल ढ़ूढ़ा जाता है. स्थान ऐसा होना चाहिए जहां महिलाएं आसानी से पहुंच सकें, क्योंकि सभी महिलाओं के पास अपने वाहन नहीं होते हैं. दूरी और पैसे का उनके सामने समस्या होती है. समय का तो सबसे बड़ा प्रश्न होता है, क्योंकि महिलाओं के उपर घर की जिम्मेदारियां होती हैं.

अमूमन दिन के दो बजे से चार बजे का समय निश्चित किया जाता है, क्योंकि तब तक महिलाओं के पास अपना कहने लायक समय होता है जिसे वे इस कार्य में लगा सकती हैं. कार्यक्रम के बाद घर पहुंचते-पहुंचते पांच बज जायेंगे जहां घर के काम उनका इंतजार करते हैं. भारत में तो महिला दिवस की कोई छुट्टी नहीं होती है. खैर, महिलाओं को तो उनके अनार्थिक, निरर्थक घरेलु कामों से तो छुट्टी को कोई प्रश्न ही नहीं है.

प्रखर तथा श्रेष्ठ वक्ता महिला अपने विचार रखती हैं. यह विचार भी हर वर्ष एक ही तरह के होते हैं- जैसे, स्त्री-पुरुष की गैर बराबरी, स्त्री हिंसा, शोषण, इनके विरुद्ध महिलाओं के संघर्ष का लंबा इतिहास, विकट परिस्थितियों में भी प्रगति करती हुई महिलाएं, बगैर-बगैरह. इस तरह हम महिलाएं महिला दिवस की रश्म अदायगी कर अपने बैनर और नारे लेकर घर लौट जाती हैं. औरत का समय पर घर लौटना जरूरी है. क्योंकि सुबह से लेकर रात तक उनके कामों का एक सिलसिला बना रहता है. और हर हालत में उसे ही करना है.

सुबह उठ कर पति या बेटा से यह पूछा जाता है कि आज खाने में क्या बनेगा? उसे घर के पुरुष से महिला दिवस में जाने की अनुमति लेनी पड़ती है या वहां तक पहुंचने में उसकी मदद लेनी पड़ती है. घर से संबंधित कोई भी चीज खरीदना हो तो पुरुष से सलाह नहीं बल्कि अनुमति लेनी पड़ती है, क्योंकि पैसा स्वीकृत करने का अधिकार पुरुष को होता है. अनेकों ऐसे उदाहरण हैं जो बताती है कि घर में दायित्वों के बोझ से दबी औरत जिसे घर का मालकिन कहा जाता है,उसे अधिकार के नाम पर कुछ भी उपलब्ध नहीं है.

बेटा किस स्कूल में पढ़ेगा, या बेटी की शादी किससे होगी, इसका निर्णय भी वह नहीं ले सकती है. महिलाओं की इस स्थिति से खूंटे से बंधी उस गाय की याद आती है जो समय पर घर पहुंच कर दूध देती है. यंत्रवत काम करती हुई औरत की यह स्थिति ही उसके घर के अंदर और बाहर शोषण का आधार बनती है.

21वीं शताब्दी की हम महिलाओं ने घर के बाहर पुरुषों के बराबर ही हर क्षेत्र में बड़ी-बड़ी उपलब्धियां हासिल की है. अब हमे स्त्री का जो परंपरागत रूप है, उसे बदलना है. इसका अर्थ यह नहीं कि हम औरत की कल्पना एक पुरुष के रूप में करती हैं, एक ऐसी औरत के रूप में करती हैं जो घर के कामों में पुरुष की समान भागिदारी चाहती हैं. घर के निर्णयों में बराबर का अधिकार हो. अपने स्वास्थ के बारे में सोचने और अपने समय का उपयोग करने की अजादी और अपने शौकों को पूरा महत्व दे और उन्हें पूरा करे.

इस तरह जब प्रतिदिन महिला दिवस हो, तभी 8 मार्च की सार्थकता है.