विकास और सौंदर्यीकरण के नाम पर जिस तरह के काम हो रहे हैं, वे चलते रहे तो आने वाले कुछ वर्षों में रांची और उसके आस पास का इलाका इस कदर विरूपित हो जायेगा कि उसे पहचानना भी मुश्किल हो जायेगा.

अंग्रेजों के जमाने से औपनिवेशिक शोषण और आजादी के बाद आंतरिक औपनिवेशिक शोषण का शिकार रहा झारखंड अंततोगत्वा लंबे संघर्षों के बाद सन् 2000 में अलग राज्य बना. इसके पीछे समाज के प्रभु वर्ग और कारपोरेट घरानों की दृष्टि कुछ भी रही हो, आदिवासी, मूलवासी जनता के लिए अलग राज्य के निर्माण के लिए संघर्ष की मूल भावना झारखंडी अस्मिता, पहचान, भाषा और संस्कृति को बचाना रहा था. लेकिन अलग राज्य बनने के बाद लगातार जिस तरह आदिवासी अस्मिता और पहचान के प्रतीक चिन्हों को मिटाया जा रहा है, वह झारखंड के इतिहास की मार्मिक परिघटना है. झारखंड की पहचान और समृद्धि मुख्यतः यहां के पहाड़, पहाड़ी झरनों से उतरती दोमोदर, कांची, सुवर्णरेखा जैसी नदियां, देवतुल्य आकाश छूते साल वृक्षों से भरे जंगल, जीवन के स्पंदन से भरी यहां की स्थानीय भाषाएं, यहां के सामूहिक नृत्य गीत, मांदल और नगाड़े जैसे अनूठे वाद्ययंत्र ही है. लेकिन इन सब पर चतुर्दिक आक्रमण हो रहा है. दोमोदर और सुवर्णरेखा जैसी पावन नदियां गंदे-जहरीले नाले में तब्दील हो चके हैं और उनकी गणना संसार के सर्वाधिक प्रदूषित नदियों के रूप में होती है. कोल्हान के जंगल नष्टप्राय हैं. कभी मुंडा राज के रूप में इतिहास में मौजूद रहे रांची टाटा मार्ग के दोनों तरफ के सैकड़ों साल पुराने वृक्ष विलुप्त हो गये. चुटूपालू घाटी चैड़ी सड़क में बदल गयी. रांची और उसके आस पास के बड़े इलाके में उरांव जनजाति रहती थी, लेकिन उनकी भाषा मिटने के कगार पर है. शहर के बीच बसी बस्तियों व ग्रामीण इलाकों से मांदल गायब हो रहे हैं.

रांची और उसके आस पास के परिवेश पर गौर करें तो आदिवासी गौरव के कई प्रतीक चिन्ह और धरोहरों को बेरहमी से मिटाया जा रहा है. शहर हृदयस्थली में बना जयपाल सिंह स्टेडियम इतिहास के पन्नों से मिट गया. पहाड़ी मंदिर विशाल ध्वज के बोझ से कांप रहा है, उरांव और मुंडा आदिवासियों का एक प्रमुख क्षेत्र हथियागोंदा जो प्राकृति सुषमा से भरा एक सार्वजनिक क्षेत्र था और आज जिसकी पहचान राॅक गार्डेन, कांके डैम आदि के रूप में की जाती है, एक निजी क्षेत्र में बदलता जा रहा है. इतिहास पुरुष बिरसा की जन्म स्थली उलिहातू स्थित बिरसा की विशालकाय मूर्ति को माला पहनाने के लिए जिस तरह उसे सीढियों से घेर दिया गया है, यह न सिर्फ वितृष्णा पैदा करता है, बल्कि व्यथित भी. इसी तरह रांची शहर के बड़ा तालाब में एक विशाल मूर्ति का निर्माण, रांची का पुराना बिरसा कारागार, सबको सौंदर्यीकरण के नाम पर नष्ट करने की साजिश हो रही है. बहुत सारे काम तो सिर्फ लूट खसोट के लिए हो रहे है. और विकास और सौंदर्यीकरण के नाम पर जिस तरह के काम हो रहे हैं, वे चलते रहे तो आने वाले कुछ वर्षों में रांची और उसके आस पास का इलाका इस कदर विरूपित हो जायेगा कि उसे पहचानना भी मुश्किल हो जायेगा.