1995-96 की बात है. जब मैं हाई स्कूल मैं पढ़ती थी. मेरी गैर-आदिवासी सहेलियां संथालों के परंपरा और पहनावे के बारे में बहुत ही जिज्ञासा से पूछती थी. उनकी बातचीत से मुझे यह समझ में आया कि उन्हें हमारे सूअर का मांस खाने और पंची- पड़हाट (जिसके लिए वह कहते थे कि संताल औरतें, क्या ऊपर से गमछा लपेट लेती हैं, और नीचे केवल लूंगी जैसा बांध लेती है?) से दिक्कत थी. कोई पूछती भी — क्या तुम भी सूअर का मांस खाती हो?

मेरे जवाब देने से पहले ही दूसरी लड़की बचाव में कहती — ‘अरे यह कैसे खा सकती! ये पढ़े- लिखे लोग हैं. इसके मम्मी - पापा टीचर हैं. इसकी मम्मी इतनी सुंदर तरीके से साड़ी पहनती हैं. यह लोग नहीं पहनते पंची- पड़हाट. वह तो अनपढ़ गंवार लोग पहनते हैं.

‘फिर ठीक है. लेकिन तुम लोगों के सरनेम भी कितने अजीब है ना! मुर्मू, मुरमुर से मूर्ख वाली फीलिंग आती है. यह तो फिर भी ठीक है, ‘मरांडी’ से ‘म’ हटा दो तो कितना गंदा शब्द बनता है.अच्छा किया तुम्हारा सरनेम कुमारी है. तुम बिल्कुल हमारी तरह हो गोरी.

‘अच्छा तुम्हें पुलाव बनाना आता है ?

‘नहीं ‘

‘कोई बात नहीं. हम सिखा देते हैं, और हां, पूजा पाठ करती हो?

‘हां, हम लोग सोहराय मनाते हैं ना साल मे एक बार.’

‘अरे . उससे क्या होता है. पूजा रोज करना होता है. मन को आराम मिलेगा. तरक्की होगी. ओह ! तुम्हें तो पूजा करना भी नहीं आता होगा. ठीक है, मैं सब कुछ सिखा दूंगी.’

प्राइमरी स्कूल में इतने प्यार से कोई नहीं पूछता था. डायरेक्ट आरोप लगाया जाता था कि यह लोग सूअर का मांस खाते हैं. दूर रहो सब इससे. लगभग दुश्मनों वाला हाल था. इसी दुश्मनी में मैं ने एक लड़की के हाथ में नाखून गड़ा दिया था इतनी जोर से की खून निकलने लगा. खास बात यह कि उसने मेरी शिकायत स्कूल में ना करके घर में कर दी. उसका घर मेरे रास्ते में ही पड़ता था. उसने पहले दौड़ कर अपने पिता जी को बुला लिया. मैं भाग ही रही थी कि एक सीनियर लड़के ने मेरा हाथ पकड़ लिया. आते ही उसके पापा ने डांटना शुरू किया. फिर उसने पिता जी का नाम पूछा. पिता का नाम सुनते ही उसने लड़के को हाथ छोड़ने के लिए कहा और मुझे आगे से ना झगड़ने की हिदायत देकर घर भेज दिया.

इन सब बातों ने दिमाग पर इतना असर किया कि सालों तक मैंने अपनी जीवन शैली के बारे में किसी गैर आदिवासी लड़की से कोई बात नहीं की. हालांकि, बाबा हमेशा हम भाई-बहनों का उत्साहवर्धन करते रहे. अंबेडकर और फुले की चर्चा हमारे घर में आम थी. जिस कारण से मेरे मन में हीन भावना कभी आई नहीं. उल्टा मेरा व्यवहार गैर आदिवासियों के प्रति आक्रामक होता गया.

खैर, मेरा परिवार अपनी जगह के हिसाब से ठीक ठाक रईस कहलाता था. लेकिन यह मुझे अंदर से कचोटता था कि हमें समाज में सम्मान इसलिए मिल रहा है, क्योंकि हमने लगभग इनकी जैसी जीवनशैली अपना ली थी. पहनावा, उनका खान-पान उनके.

क्या खराबी है हमारे पहनावे में?

उनका पहनावा अच्छा कैसे हो गया?

आज भी गांव की महिलाएं पंची पहनती हैं. साड़ी भी पहनती हैं, तो अलग तरीके से. मैं ने गौर किया कि हमारे यहां साड़ी को जिस तरीके से पहना जाता है, वह खूबसूरत दिखने के लिए नहीं बल्कि इस तरीके से पहना जाता है कि काम करने या चलने फिरने में सुविधा हो. जबकि उन्हें सर से लेकर पैर तक अपना शरीर ढकना होता था. गर्मी में भी सिंथेटिक साड़ी के पल्लू को बार-बार सर से ना गिरने देने की जद्दोजहद करते हुए काम करना पड़ता था.

यह पहनावा परफेक्ट कैसे हो सकता है?

जबकि मेरे यहां तो ज्यादा गर्मी हुई तो औरतें ब्लाउज भी उतार कर रख देती हैं.

कपड़ों का उपयोग केवल इतना होना चाहिए कि वह आपको गर्मी और ठंड से बचा सके और यह चले हैं खुद को प्लेट लगी साड़ी पहनकर श्रेष्ठ घोषित करने.

2015 में मेरा संपर्क उड़ीसा के एक व्यक्ति से हुआ, जिसका यह कहना था कि हमें अपनी भाषा, संस्कृति को बढ़ावा देना चाहिए. उनके पास पंची के अच्छे कलेक्शन थे. मैं ने खरीदा और उसे पहनकर सोशल मीडिया में अपलोड कर दिया. यह वह दौर था जब पूरे संथाल समाज में पंची- पड़हाट को लेकर वहीं भावना हिलोरें मार रही थी जो मेरे मन में चल रही थी. जिओ सिम ने आदिवासियों को अपने पहनावे और खानपान को लेकर खुलकर एक्सप्रेस करने का मौका दिया. क्योंकि हर आदिवासी पहनावे के कारण अपमानित हुआ है कम या ज्यादा. सब की तरह मैंने भी पर्व त्योहारों में पंची पहनना शुरू कर दिया और बाकियों को भी प्रोत्साहित किया. शुरू में लड़कियों को संकोच हुआ कि दिकू क्या कहेंगे? वे हंसेगे हम पर.

पढ़े-लिखे नौकरी पेशा लोग पंची पहनने लगे हैं, तो लोगों को पता चल रहा है कि यह हमारा पहनावा है और इससे हमें पहनने में कोई शर्म नहीं है. सब कुछ अच्छा होगा. पंची- पड़हाट को लेकर गाने बनने लगे. फैशन शो का आयोजन होने लगा. जिसमें मैं भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगी.

इस पहचान की लड़ाई में मैंने एक बात गंभीरता से महसूस की. पंची- पड़हाट पहनने का खास निर्देश केवल लड़कियों को दिया जा रहा था. यह भी कि आप पंची पहनकर नहीं आए तो कार्यक्रम में घुसने नहीं दिया जाएगा. जो लड़की पंची नहीं पहनेगी वह आदिवासी विरोधी होगी. उसका संबंध दिकू से होगा. पंची हमारी संस्कृति है, जो नहीं पहनेगा वह आदिवासी नहीं कहलाएगा. पंची-पड़हाट के आधार पर लोग आदिवासी सर्टिफिकेट बांटने लगे.

समझ में आया की अस्मिता की इस लड़ाई ने पंची पड़हाट को व्यवसायियों ने हथिया लिया था. उनको अपना कपड़ा बेचना था हर हाल में. उनका आदिवासी उत्थान के नाम पर संगठन होता था हर जगह. जिसमें केवल पंची पहनकर पर्व -त्योहार मनाना मुख्य होता है. इन्हें ना आदिवासियों की गरीबी से कोई मतलब था, न ही नशे से मरते लोगों से. इनका संपर्क गांव के गरीबों से नहीं था, ना वे संपर्क करना चाहते थे. यह केवल शहरी एलिट आदिवासियों का ‘धाड़नाचा’ (ढोंग) था. आदिवासी उत्थान के नाम पर लड़कियों के लिए केवल फतवे जारी करना इनका मुख्य शगल हो गया.

पेशे से सरकारी शिक्षिका नीता तीयू कहती हैं— “यह जो ड्रेस कोडिंग है, इसे परंपरा में कैसे जोड़ दिया गया है, जबकि पहले समय में हमारे लोग कपड़े— कपड़े ही नाम का पहनते थे और अगर कपड़े पहनते भी थे तो रंगीन नहीं हुआ करते थे. बल्कि कपास और रेशम के अपने प्राकृतिक रंग में हुआ करते थे. तो, यह किसने और कब तय कर लिया कि ड्रेस कोड भी हो और ऊपर से विवाहित और अविवाहित में भेद किया जा सके, इसकी भी व्यवस्था ड्रेस कोड में कर दी गई. वहीं पुरुषों के लिए ऐसा कोई अस्पष्ट दिखने वाला ड्रेस कोड ही नहीं है.”

वास्तव में कौन सा कपड़ा कब और कैसे पहनना चाहिए यह तय करने का हक केवल और केवल पहनने वाले को होना चाहिए. आदिम आदिवासियों ने कपड़े अपनी जरूरत और सुविधा के अनुसार धारण किया है इसे संस्कृति से जोड़ना अनावश्यक है.