इस बात को हमेशा ध्यान रखने की जरूरत हैं कि बलात्कारी भी हमारी समाज व्यवस्था की ही उपज हैं. बलात्कार की शिकार होने वाली बेटियों को जो मां बाप पैदा करते हैं, उसी तरह के मां बाप बलात्कारी को भी पैदा करते हैं. कोई बच्चा सहृदय इंसान न बन कर बलात्कारी बन जाता है तो इसके लिए सबसे बड़ जिम्मेदार उसका घर, उसके माता पिता और वह परिवेश हैं जहां वह पलता बढता है.

आप सबों से क्षमायाचना सहित मैं कहना चाहता हूं कि बलात्कार की घटना और उससे उपजे आक्रोश और गुस्से के प्रदर्शन को मैं थोड़े भिन्न नजरिये से देखता हूं. बलात्कार की दिल्ली घटना को जब मीडिया पूरी बारीकी से बता रही थी और जब उसके खिलाफ जनाक्रोश दिल्ली के जंतर मंतर पर चरम पर था, उस दौरान भी मैं ने युवा जोड़ों को पूरे विश्वास और भरोसे के साथ अपने शहर के पार्कों आदि में आत्मलीन अवस्था में देखा. स्त्री-पुरुष संबंधों की यही सहज और स्वाभाविक अवस्था है. चराचर जगत में तो दिखाई यही दिखाई देता है कि मादा और नर अपने अपने तरीके से पहले एक दूसरे को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं. इसमें काफी समय बिताते हैं और उसके बाद ही समागम के लिए प्रवृत्त होता है. यह सिर्फ एक शारीरिक अवस्था नहीं, मानसिक अवस्था भी है.

इसका अर्थ यह नहीं कि समाज में बलात्कार नहीं होते. स्त्रियों का उत्पीड़न नहीं होता. होता है. निश्चत रूप से होता है. लेकिन ऐसा क्यों होता है, इसका समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण बहुत जरूरी है. बहुत ब्योरे में गये बगैर हम कह सकते हैं कि जिस समाज में औरत मर्द के बीच गैर बराबरी है, उस समाज में ही बलात्कार की घटनाएं सबसे ज्यादा होती हैं. श्रम आधारित समाज में बलात्कार की घटनाएं कम होती हैं और श्रम के शोषण पर विकसित होने वाली समाज-व्यवस्था में बलात्कार की घटनाएं अधिक होती हैं. तुलनात्कम दृष्टि से देखें तो मनुवादी व्यवस्था के प्रभावक्षेत्र वाले समाज में स्त्री उत्पीड़न और बलात्कार की घटनाएं सबसे अधिक होती हैं, उसके बाहर के समाज में अपेक्षाकृत कम. हिंदी पट्टी में अधिक और गैर हिंदी प्रदेशों में कम. दिल्ली में सबसे अधिक और आदिवासीबहुल झारखंड में कम.

आदिवासीबहुल इलाकों में तो बलात्कार की घटनाएं विरल थी. अप संस्कृति और तथाकथित मुख्यधारा के संसर्ग में आने के बाद हाल के वर्षों में यहां भी छिटपुट बलात्कार की घटनाएं होने लगी हैं. यानी जिस समाज और सभ्यता को हम विकसित मानते हैं, बलात्कार की घटनाएं वहां ज्यादा होती हैं और जिस समाज को हम असभ्य और पिछड़ा मानते हैं, वहां बलात्कार की घटनाएं कम होती हैं या नहीं होती. सामंती समाज में यह चरम पर था और निर्मम रूप में होता था- जहां हर दलित औरत पर सामंत अपना अधिकार समझता था. पूंजीवादी व्यवस्था में अब सभ्यता के आवरण में वह बर्बरता दिखाई नहीं देती, लेकिन यहां तो औरत पूरी तरह एक जिंस में बदल दी गई है. तरह तरह के सौंदर्य प्रशासधनों में औरत के जिस्म की नुमाईश किस तरह हो रही है, यह हम सभी देख रहे हैं. बार गर्ल के रूप में औरतों के नाचने की बेबसी को उसके जीने के हक के नारे में तब्दील कर दिया गया है. वेश्यावृत्ति को भी एक पेशे के रूप में परिभाषित किया जाने लगा है. कुछ महिलाएं जिस्म की नुमाईश गर्व से करती हैं, यह कहते हुए कि यह तो उनका पेशा है और धुरंधर मीडिया आपको यह बताता है कि वास्तविक जीवन में वे कितना सात्विक जीवन जीती हैं. इन बातों का मतलब यहां सिर्फ यह इंगित करना है कि पूंजीवादी व्यवस्था ने औरत को एक माल में बदल दिया है. बलात्कार तो उसकी एक विकृत अभिव्यक्ति मात्र है.

बलात्कार की हर घटना निंदनीय है और उसको रोकने की हरचंद कोशिश होनी चाहिए, लेकिन मीडिया और कैमरों की चमकती रौशनी पर कैट वाॅक करती लड़कियों और उसके जिस्म को निहारते अमीरजादों-कला-प्रेमियों वाली संस्कृति के प्रति भी आक्रोश व्यक्त कीजिये. बलात्कार की घटना पर तो जरूर आक्रोश व्यक्त कीजिये, लेकिन इस बात को भी याद रखिये कि बगैर किसी बाहरी हलचल के हजारों की संख्या में कम उम्र लड़कियां जिस्मफरोशी के धंधे में उतार दी जाती हैं और उन्हें जिंदा लाश में तब्दील कर दिया जाता है. आर्थिक रूप से पिछड़े इलाकों से बड़ी संख्या में रोजगार दिलाने के नाम पर लड़कियों को ले जाया जाता है, उन पर होने वाले जुल्मों और उनकी चीख पुकार आम तौर पर अनसुनी रह जाती है. इस सड़ी गली व्यवस्था को टिकाये रखने के लिए भारतीय सेना के जवान कश्मीर, मिजोरम जैसे इलाकों में औरतो के साथ जिस तरह का व्यवहार करते हैं, नक्सलियों से निबटने के लिए गये सुरक्षा बल के जवान जिस तरह की घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं, यह सब एक अंतहीन कहानियां हैं जिन्हें कोई तव्वजो भी नहीं देता, क्योंकि इससे पुलिस और सेना का मनोबल कमजोर होने का खतरा रहता है. यानी, जब तक हम शोषण और गैर बराबरी पर आधारित व्यवस्था का खात्मा नहीं करते, तब तक इस रोग से पूरी तरह निजात पाना भी मुश्किल है.

बलात्कार का एक मनोवैज्ञानिक पक्ष भी है. हमारे धर्म-शास्त्रों में औरतों को पाप का मूल बताया गया है. यह बताया गया है कि उनकी कामाग्नि पुरुष का सर्वस्व जला कर राख कर देती है. जीवन में कुछ सार्थक-महान करना है तो ब्रह्मचर्य का धारण करना होगा. औरत तो आग समान होती है और पुरुष पुआल समान. सेक्स संबंधी इसी तरह की ढेरों वर्जनाओं ने युवाओं को किस कदर कुंठित कर रखा है इसे समझना हो तो जरा ‘विवाह के पहले और बाद’ आकर नीम हकीमों से मिलने वाले पोस्टरों, पर्चों पर गौर कर लीजिये. यह भी इत्तफाक नहीं कि रांची से दक्षिण जाने वाली रेल यात्रा के दौरान रेलवे लाईन के दोनों तरफ के घरों की दीवारों पर इस तरह के पोस्टर या विज्ञापन कम दिखेंगे, लेकिन उत्तर पश्चिम यानी, दिल्ली जाने वाली रेलवे लाईन के दोनों तरफ शहरों-कस्बों की दीवारें इस तरह के विज्ञापनों से पटी दिखाई देती हैं. देख कर लगेगा जैस पूरी हिंदी पट्टी नपुंसकता की शिकार हो गई है. सेक्स संबंधी यह यौन कुंठा, सेक्स संबंधी अतृप्त यौन इच्छाएं तरह तरह की विकृत घटनाओं के रूप में सामने आती रहती हैं. औरतें चलती बसों में भी बलात्कार की शिकार होती हैं, लेकिन घर और पड़ोस में भी बलात्कार की शिकार होने वाली लड़कियों की खबर आती रहती है. बलात्कारी सिर्फ आपराधिक किस्म के लोग ही नहीं होते, निहायत शरीफ से दिखने वाले लोग, लड़की के परिजन, उसका तथाकथित प्रेमी, कोई भी हो सकता है. बलात्कारी मानसिक रोगी होता है. जैसे हर सामान्य व्यक्ति खून नहीं कर सकता, उसी तरह हर आदमी बलात्कारी भी नहीं हो सकता. सूत्र रूप में कहें कि जो प्रेम नहीं कर सकते, वे ही बलात्कार करते हैं.

इसका यह अर्थ कदापी नहीं कि बलात्कार की घटनाओं की रोकथाम के उपाय नहीं होने चाहिए. उसके खिलाफ आंदोलन नहीं होना चाहिए. लेकिन बलात्कारियों को फांसी देने का कानून बना देने से यह रुकने वाला नहीं. इस मामले में सबसे बड़ी समस्या तो आज की तारीख में यह है कि बलात्कार की शिकार औरतें समाज में वहिष्कृत हो जाती हैं. वे जुल्म का शिकार होने के बावजूद स्वयं अभियुक्त बना दी जाती हैं. यौन शुचिता को उनकी पवित्रता से जोड़ दिया जाता है. परिणाम यह कि औरतें भी इसे एक आपराधिक घटना के रूप में नहीं ले पाती और शेष जीवन सहज रूप में जीना उनके लिए असंभव हो जाता है. इसलिए हादसे की शिकार लड़की अपने साथ हए दुराचार की बात सबसे पहले छुपाने का ही प्रयास करती है. और यदि उसने मुंह खोला भी तो पुरुष मानसिकता की शिकार हमारी पुलिस और न्याय व्यवस्था से जुड़े लोग उसकी इतनी बर्बर तरीके से जांच-पड़ताल करते हैं कि पीडि़ता जीते जी मर जाती है. भंवरी देवी कांड में हमारे माननीय जजों ने क्या फैसला सुनाया था, वह बहुतों को याद होगा. समस्या यह भी है कि इस तरह के जघन्य मामलों में भी मुकदमें साल दर साल खिंचते चले जाते हैं और अधिकतर मामलों में बलात्कार की शिकार औरतों का न्याय पाने का जज्बा खत्म हो जाता है. करीबन दस वर्ष पहले बोकारो में बलात्कार की घटना हुई थी. चूंकि बलात्कारी अल्पसंख्यक समुदाय के थे, इसलिए राजनेताओं के प्रयास से वहां दंगे वाली स्थिति पैदा हो गई. कई दिनों तक कर्फ्यू रहा. उस मामले के सभी अभियुक्त बरी हो चुके हैं.

इस बात को हमेशा ध्यान रखने की जरूरत हैं कि बलात्कारी भी हमारी समाज व्यवस्था की ही उपज हैं. बलात्कार की शिकार होने वाली बेटियों को जो मां बाप पैदा करते हैं, उसी तरह के मां बाप बलात्कारी को भी पैदा करते हैं. कोई बच्चा सहृदय इंसान न बन कर बलात्कारी बन जाता है तो इसके लिए सबसे बड़ जिम्मेदार उसका घर, उसके माता पिता और वह परिवेश हैं जहां वह पलता बढता है. इसलिए कानून भी बनाईये लेकिन उसके पहले परिवार और समाज बनाईये. औरतों के प्रति अपना नजरिया बदलिये. और जरा दिल्ली से बाहर निकल कर भी देखिये. तभी बलात्कार पर अंकुश लग सकेगा.