भारत में कितनी गरीबी है? यह सवाल उठते ही सरकारों ने सोचना तय किया कि भारत में गरीबों की संख्या कितनी है? लेकिन यह काम कौन करे? सरकार करेगी, लेकिन सरकार में कौन? और, इसके लिए कहीं दूर जाने की जरूरत क्या है? अपना योजना आयोग (अब नीति आयोग) तो है ही, जो देश की ‘निर्माण और विकास’ के लिए योजना बनाता है। सो आयोग की एक समिति गठित की जाएगी जो इस सवाल का हल बताएगी।

लेकिन इससे बड़ा सवाल यह है कि आखिर किसे गरीब माना जाय? योजना आयोग की समिति में जो लोग हों, वे कैसे गरीबी के पैमाने तय करें? पैमाने तय किये बिना संख्या कैसे निश्चय की जाय? जो व्यक्क्त खुद को ‘गरीब’ कहेगा, वह गरीब कैसे हो सकता है? उसका ‘दिमाग’ गरीब नहीं है, वह सोच सकता है। जो सोच सकता है, वह अपने पेट के लिए भोजन जुटा सकता है। वह भीख मांग सकता है या चोरी कर सकता है या किसी की रोटी छीन सकता है।

तो ऐसे व्यक्क्त को ‘गरीब’ कैसे कहा जा सकता है? गरीब तो वह होगा न, जो यह जान नहीं पाये या सोच नहीं पाये कि वह आज क्या खाएगा? और तो और, वह व्यक्क्त गरीब होगा, जो यह तय नहीं कर पाता कि आज कितना खाने से काम चल जाएगा। इसलिए उसे जितना मिलता है एक ही बार में ‘भकोस’ लेता है। फिर शाम को खाना मिले न मिले। न मिले तो भी चलेगा। एक बार ही खूब खा लिया तो शाम तक खाना सड़ने से तो बच गया।

वैसे भी, अभी सुबह खाने को नहीं मिला, तो वह मर तो नहीं जाता, शाम को कुछ मिलेगा इसका जवाब अनिश्चित होने के बावजूद। अगर शाम को कुछ मिल जाएगा, यह तय हो तो वह सुबह भूखे रह जाएगा, और कुछ न कुछ ‘काम’ भी कर लेगा, ताकि दूसरे दिन वह जिंदा रहेगा - वह कुछ ‘खाना’ भीख या चोरी के बिना भी मिलने की गारंटी कर लेगा। इसलिए सवाल ही पेचीदा है। जो गरीब है, वह गरीब इसलिए है कि वह नहीं जान सकता कि गरीबी क्या है?

यानी कोई व्यक्ति जो यह नहीं बता सकता कि गरीबी क्या है, वह गरीब है। इसलिए उससे गरीबी के पैमाने तय नहीं करवाए जा सकते। लेकिन जो गरीबी के पैमाने तय करने का माद्दा रखते हैं, दावा करते हैं, वे कैसे यह तय करें कि देश में गरीबों की संख्या कितनी है? ‘गरीबी’ का आधार ‘भूख’ है। यह हमारा ‘साइंस’ पता लगा चुका है कि आदमी कितने दिन तक भूखा रह सकता है। यानी गिनती में वह कितनहवां दिन होगा, जब पेट में अन्न जाए तो आदमी मर जाएगा?

और उस दिन कितना अन्न पहुंचे कि वह मर न जाए? क्योंकि अक्सर पचाने की हैसियत से अधिक पेट भरने से भी मौत आती है। यही तो गरीबी के आकलन की असली कसौटी है! इससे यह तय करना आसान है कि देश में ‘गरीबों’ की संख्या कितनी है। देश के लगभग हम सभी लोग, जो गरीबों के प्रति संवेदनशील हैं, ख़ास कर वे हम सब जिनका सुबह-शाम ‘दो टाइम’ का खाना रखा हुआ है, यानी यह सुनिश्चत है कि हम कल क्या खाएंगे और कितना खाएंगे; हममें से कई लोग यह प्रयोग करते ही हैं उपवास कर, व्रत रखकर, मनौती मना कर कि कितने दिन ‘न’ खाने से शरीर ‘स्वस्थ’ होता है, उसके बाद कितने दिन न खाने से शरीर बिगड़ने लगता है, और उसके कितने दिन बाद क्या खाने से ‘शरीर’ फिर पहले जैसा निरोग हो जाता है!

तो गरीबी के पैमाने और गरीबों की पहचान तय करने वालों का चयन करना हो तो, हममें से उन लोगों को चुनना चाहिए, जो उक्त प्रयोग से अपनी ‘बौद्धिक क्षमता’ और ‘मानसिक योग्यता’ यानी संवेदनशीलता की जांच कर चुके हों, सहानुभूति और समानुभूति की कसौटी पर खुद को परख चुके हों और उसमें खुद को खरा उतरा मानते हों। है कि नहीं?