भाजपा के नेता इस बात का दावा करते रहते हैं कि भाजपा ने अलग राज्य के लिए आंदोलन किया और ‘वनांचल’ की मांग इसका प्रमाण है. ये दोनों बातें सिरे से गलत हैं. अलग झारखंड राज्य के आंदोलन के लंबे दौर में भाजपा ने अलग राज्य के आंदोलन का कभी भी समर्थन नहीं किया और नब्बे के दशक के अंतिम कुछ वर्षों में वनांचल के रूप में जो अलग राज्य की मांग उनके द्वारा उठायी भी गयी, वह एक प्रतिक्रियावादी मांग थी. यानि, झारखंड आंदोलन के काउंटर में खड़ा किया गया एक आंदोलन, जिसमें अलग राज्य के आंदोलन के तमाम विरोधी और उससे आक्रांत लोग जमा हो गये थे.

दरअसल, झारखंड बिहार का एक हिस्सा था और भाजपा पर उत्तर बिहार के नेताओं का ही प्रभाव था, जो बिहार का विभाजन कभी होने देने के पक्ष में नहीं थे. इसलिए झारखंड आंदोलन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए जब दक्षिण बिहार के कुछ भाजपा नेताओं ने ‘वनांचल’ के नाम से एक अलग राज्य की मांग करनी शुरु की, तो उनका पार्टी के भीतर बहुत विरोध हुआ. वे चाहे रीतलाल वर्मा हों, या समरेश सिंह या फिर नामधारी. समरेश सिंह और नामधारी को तो पार्टी से निकाल ही दिया गया.

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लेकिन धीरे-धीरे उनकी समझ में आने लगा कि अलग राज्य की मांग का समर्थन किये बगैर झारखंड में उनका प्रभाव नहीं बढ़ने वाला. इसलिए झारखंड के समानांतर उन्होंने ‘वनांचल’ का नारा दिया और बिहार के विभाजन के पहले ही भाजपा के वनांचल प्रदेश कमेटी का गठन कर दिया जिसके अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी को बनाया गया. हुआ यह भी था कि लालू यादव के प्रचंड राजनीति में उनकी राजनीति बिहार में चल नहीं पा रही थी. उन्हें उत्तर बिहार में चुनावी सफलता हासिल नहीं हो रही थी.

लेकिन दक्षिण बिहार के शहरी इलाकों में उनका प्रभाव बढ़ने लगा था. गिरिडीह, हजारीबाग, धनबाद, रांची, टाटा आदि शहरी और जनजातीय क्षेत्रों के बाहर उनके प्रत्याशी चुनाव में जीत रहे थे. उन्हें लगा कि यदि अलग राज्य के आंदोलन का समर्थन किया जाये तो उनका मजबूत जनाधार बन सकता है और राजनीतिक लाभ मिल सकता है. न सही बिहार, झारखंड में वे अपनी राजनीतिक सत्ता कायम कर सकते हैं. लेकिन वे 28 जिलों के वृहत झारखंड के समर्थक नहीं थे. और न झारखंड नाम ही उन्हें पसंद था. वे आदिवासी को वनवासी और झारखंड को वनांचल कहना अपनी राजनीति के अनुकूल समझते थे.

क्यों? क्योंकि झारखंड से जिस विराटता का बोध होता है, जंगल, झाड़, नदियां, पहाड़ का बोध होता है और जहां आदिवासी रहते हैं, उससे एकदम अलग भावबोध का शब्द है वनांचल. वनांचल, यानि वनों का अंचल और वनवासी तो कुछ वर्षों के लिए राम भी बने थे, उनके तमाम ऋषि, मुनी वनों में आते जाते रहते थे, जीवन का चैथा पहर उनका वानप्रस्थ ही था. लेकिन जाहिर है, वन उनका स्थायी निवास नहीं था. स्थानीय निवास स्थल तो आदिवासियों का था, जो उनसे भिन्न थे. इसलिए अपनी दूरगामी राजनीति को ध्यान में रख कर उन्होंने आदिवासियों को वनवासी कहना शुरु किया.

एक बात और समझने और जानने की है. लालू यादव ने सत्ता में आते ही झामुमो से चुनावी गठबंधन किया. पिछड़ा आदिवासी और अल्पसंख्यकों का एक मजबूत राजनीतिक गठबंधन बना जिसने दक्षिण बिहार में भी भाजपा के बढ़ते प्रभाव को रोक दिया. याद कीजिये, उसी चुनावी गठबंधन की वजह से झामुमो छह संसदीय सीटों पर जीत पायी थी, जो मुकाम वह दुबारा अब तक हासिल नहीं कर सकी है. यह गठबंधन इसलिए बन पाया क्योंकि लालू ने भी वृहत अलग झारखंड राज्य का कभी विरोध नहीं किया. वे जानते थे कि इसमें कई राज्यों का मामला बनता है. न ओड़िसा मानेगा विभाजन और न बंगाल. इसलिए एक मजबूत चुनावी गठबंधन राजद, झामुमो और कांग्रेस के बीच बन गया और झारखंड भी भाजपा के लिए एक अभेद्य किला बन गया.

इसे तोड़ने के लिए भाजपा के रणनीतिकारों ने बिहार को विभाजित कर 18 जिलों के वनांचल अलग राज्य की मांग शुरु कर दी. सभी झारखंडी दल भी इस मांग का समर्थन करने लगे और लालू ने कह दिया- झारखंड मेरी लाश पर बनेगा. झामुमो के लिए कोई चारा नहीं रहा और उसने राजद से रिश्ता तोड़ लिया. वह सामाजिक गठबंधन टूट गया जिसने सांप्रदायिक ताकतों का झारखंड में प्रवेश रोक रखा था. जैसे बांध टूटने के बाद पानी हरहरा कर घुस आता है, उसी तरह राजद और झामुमो का रिश्ता टूटते ही बांढ़ के पानी की तरह भाजपा झारखंड में पसर गयी. 14 संसदीय सीटों में से बारह-तेरह सीटें तक वह जीतने लगी

आज फिर से बन रहे उसी सामाजिक-राजनीतिक समीकरण से आक्रांत भाजपा समर्थक बार बार यह ताना मारते हैं कि झामुमो ने उस राजद से चुनावी गठबंधन कर रखा है जिसके नेता लालू यादव ने कहा था कि झारखंड मेरी लाश पर बनेगा. इस बार भी चुनाव में यदि भाजपा हारी है तो इसीलिए कि राजद, कांग्रेस और झामुमो ने एक मजबूत महागठबंधन बना रखा है.

इतनी सी कहानी है वनांचल की. भाजपा को भी उससे कोई प्रेम नहीं था. अलग राज्य पर उनका राजनीतिक कब्जा हो गया, नाम में क्या धरा है.