नये लोगों के पास इतना वक्त नहीं कि वे अपने अतीत के बारे में ढूंढ़े, अपने से पीछे की पीढ़ी के सम्बन्ध मे जानने को उत्सुक हो। रही समकालीन पीढ़ी, तो उनकेे लिए सहज हो गया है, सामाजिक संजाल मे संवेदना के चंद शब्द उकेर देना और अपनी श्रद्धांजली का इतिश्री मान बैठना। आम लोगों की रूझान कैसी हो गयी है यह देखकर आश्चर्य लगता है, वे अंग्रेजी में “रीप” लिखकर भाग चलतें है। यह हमारे समय की संवेदनाहीनता का सूचक है। वैसे सामाजिक कार्यकर्ता जो बड़े निष्ठा के साथ जीवन पर्यंत सेवा में जुटे रहे जिनकी मृत्यु उन बैरंग चिठ्ठियों की तरह है जिन पर कोई पता नहीं है।

गनीमत है कि सामाजिक संजाल है,जिससे लोगों के गुजरने का पता तो चलता है। आज की मीडिया को मूल्यनिष्ठ जमीनी कार्यकर्ताओं के लिए स्पेस नहीं है, किसी के निधन के समाचार की जगह कोइ बर्गीकृत विज्ञापन मिल जाए। इसलिए हमलोग पाते है आजकल किसी के मरने की सूचना भी विज्ञापन के कलेवर मे आता है। यही इस समय की शोकांतिका है।

बिहार के सामाजिक आंदोलन कर्मी अरूण दास जी के गुजरने की खबर फेसबुक से हुई। जानकर तो स्तब्ध हो गया। करीब पांच वर्ष से उनकेे सम्पर्क में रहने का सौभाग्य मिला। पिछले समय में हम एक-दूसरे से भावनात्मक रूप से इस तरह जुड़ गए थे कि हर एक - दो दिन पर हमारी बातचीत और विमर्श हुआ करती थी। हमलोग नेपाल के तराई क्षेत्र और उत्तर बिहार में पानी संकट पर कुछ अधिकारमुखी काम करने की योजना पर बात करते, तो कभी निर्वाचित सत्ता कैसे लोकतांत्रिक आयतन को संकुचित करता जा रहा है? इस पर चिंतित होते। वे नेपाल और बिहार की भूमि व्यवस्था का तुलनात्मक अध्ययन करना चाहते थें, कुछ सामग्री संकलन भी किया था। उनकेे पास नेपाल से जुड़ी हुई कई ऐतिहासिक भारतीय पुस्तकों का निजी संग्रह था।

अरूण दास मानवीय चेतना के सामाजिक स्वर थे। आजीवन संघर्षधर्मिता का सम्पूर्ण आस्था और कर्मभक्ति से पालन करते रहें थे। मानव - मानव का शोषण कैसे कर लेता है, उनकी परेशानी एवं उद्विग्नता का यही मुख्य कारण था। उनका समग्र चिंतन इसी के इर्द-गिर्द घूमता रहा था। उनकी अन्तश्चेतना में समग्र मानव जाति की पीड़ा विलुलित हो रही थी। वे मानव को कष्टदायक स्थिति से उबारना चाहतें थे और इसके लिए उन्होंने आजीवन कठोरतम प्रयत्न किये थे। उनकेे जीवन का एक एक पल संघर्षों का अक्षय कालपात्र है। वे जहां भी जिस किसी भी अवस्था मे यदि न्याय के लिए संघर्ष हो रहा हो तो वे अपने को स्वस्फूर्त सक्रिय पाते थे।

उनका व्यक्तित्व अनगढ था। वे स्वभाव से फक्खड थे। वे आदत से स्पष्टवक्ता थे। उनमें एक प्रकार का फकीराना भी था। वे नाना प्रकार से अपने इस अक्खड्पन और फकीराना तबीयत को जाहिर करते रहते थें।

वे पिछ्ले कुछ वर्षो से दरभंगा, जहां उनका पुस्तैनी घर था, वहां रहने लगें थे, पटना को छोड़कर। उनका निधन पटना से लौटकर जब वे दरभंगा में अपने घर की ओर जा रहे थे, उस समय सड़क पर गिर जाने की वजह से हो गया. वे अचेतावस्था मे पाए गये और अंततः उपचार के क्रम मे मृत घोषित किए गए।

दरभंगा में भी नगरप्रशासन की कुव्वस्था देखकर आहत हो गये थे। सार्वजनिक पोखर का अतिक्रमण देखकर चिंतित हो गये। फिर क्या था, उन सबों से टकराते रहे. कभी धरना, तो कभी प्रदर्शन करने लगें। वे सदैव जनमत को जागृत करने की दिशा में पहल करते रहे, यही उनकेे जीवन की साधना भी रही। वे किसी भी प्रकार की हिंसा से घृणा और अन्याय का अहिंसात्मक प्रतिकार पर अधिक जोर देते थे।

यथार्थत: जानकारी देना लोकहित है, न कि जानकारी छिपाना। वे बताते थे, आज किसी भी तरह की सरकार में सेंसरशिप बढ गया है। सरकारें सूचनाएं छुपाने मे अपने को पराक्रमी समझती हैं। छिपाना उनकी दृष्टि में पाप था। वे इसे सचाई तथा ईमानदारी के प्रति दुरभिसंधी मानते थे।

वे नेपाली लोकतंत्र और जनता के हितैषी थे। नेपाल में लोकतंत्र के लिए किया गया जनसंघर्ष हो या सामाजिक न्याय के लिए मधेश आन्दोलन, अरूण दास बिहार में जनमत बनाने एवं ऐक्यबध्दता दिखाने वाले अग्रपंक्ति के नागरिक अगुवा थे। वे नेपाल- भारत जन—सम्बन्ध के हिमायती थे। इसलिए वे जन सम्वाद पर अधिक जोड देते थे। पिछले दिनों में वे नेपाल कई मौकों पर आए, जिसमें बागमती नदी केन्द्रीत नेपाल-भारत नागरिक अध्ययन उल्लेखनीय है। यह अध्ययन उन्हीं की परिकल्पना थी। वे मानते थे कि दोनों तरफ के नागरिक समाज में समन्वय और सामंजस्य हो सकें तो सीमावर्ती क्षेत्र में बेहतर सम्बन्ध बनाए जा सकते हैं।

उनके नजदीकी प्रभात कुमार बताते हैं, वे 1974 में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी,बिहार, के प्रथम संयोजक थे। लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी के आह्वान पर अपनी इंन्जिनियरिंग की पढ़ाई छोड़कर आंदोलन में कूद पड़े। फिर जाति तोड़ो, जनेऊ छोड़ो आह्वान पर 1974 आंदोलन में सक्रिय सिपाही आशा जी के साथ अंतरजातीय विवाह किया था। जीवन भर सामाजिक कामों में सक्रिय रहे। वो महात्मा गाँधी, बिनोवा भावे एवं लोकनायक जयप्रकाश नारायण के विचारों से प्रभावित थे। आचार्य राममूर्ति के नेतृत्व में लोकमोर्चा में सक्रिय रहे। बाद में वे अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में सक्रिय हुए। बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने जब जयप्रभा अस्पताल को वेदांता को बेच दिया, तो पटना में काफी सक्रियता से प्रतिरोध किया।

भारत गोवा से सामाजिक अभियंता कुमार कलानन्द मणी के शब्दों में, “अरूण जी उन सहकर्मियों में थे जो घोर असहमति के बावजूद संबंध निभाने में बड़े ही कुशल थे। अपनी बात बेबाकी से कहना और दूसरे ही पल रसगुल्ले खाने या खिलाने की तैयारी रखना, ऐसे बिरले वैचारिक सहकर्मी कम ही मिले। बिहार आंदोलन के उत्कर्ष भरे दिन, आपातकाल का संघर्षमय क्षण, छात्र युवा संघर्ष विहिनी के निर्माण का क्षण में उनकी भूमिका को आज भी याद करने वाले लोग कम नहीं है। बिहार के कई जगहों पर उनकी श्रद्धांजलि सभा रखा गया। वे कोई सार्वजनिक पद पर नहीं थे। वे तो जन्मजात आंदोलनकारी थे। जयप्रकाश नारायण से प्रभावित युवाओं का एक धार सक्रिय राजनीति मे लग गई, वही एक धार जल, ज़मीन , जंगल , सामाजिक बदलाव, न्याय के संघर्ष में लग गया. अरूण दास दूसरे धार के अनुयायी रहें।

वे पिछले समय से आर्थिक संकट से भी गुज़र रहें थे । जेपी आंदोलन से जुड़े पेसंन सुविधा प्राप्त हो, इसके लिए वे पटना का चक्कर लगा रहें थे। यह कैसी विडम्बना है जहां बिहार में एक तरफ़ जयप्रकाश नारायण आंदोलन का एक सिपाही नीतीश कुमार मूख्यमंत्री है, वहीं अरूण दास जैसे लोग सामान्य सुविधा से बंचित रहें। सवाल सिर्फ बिहार,भारत का नहीं है, नेपाल में भी जो लोग मूल्यनिष्ठ होकर सार्वजनिक सेवा में जुटे हुए हैं, कालान्तर में वे अभावों से गुजरते हैं। वैसे लोग अपने को हाशिए पर धकेल दिया गया पाते है। जबकि सत्ता में पहुंचे लोग नव अभिजात्य के रूप मे उभर जाते हैं।

वे कलम के धनी थे । हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं में लेखनी के स्तर पर समान अधिकार रखने वाले वे नेपाल और भारत के पत्रिकाओं में छपते रहे हैं। उनकी बाढ़, बालक एवं बंधुवा मजदूर पर छोटी-छोटी पुस्तिकाएं प्रकाशित हैं। बंचित समाज की संस्कृति पर उनकी आलेख कई पुस्तकों में सम्पादित हुईं हैं। वे कविता भी लिखते थे। वे अपनी और दूसरों की रचनाएं बड़े ही प्रभावकारी शैली में वाचन भी करते थे।

जनमुक्ति संघर्ष वहिनी का मूम्बई में २५ वीं वर्षगांठ पर सम्मेलन था। पटना(बिहार)के समाजवादी नेता अशोक प्रियदर्शी ने इसमें सहभागिता के लिए नेपाल से कुछ प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया था, जिसमें हम तीन लोग गए हुए थे। पटना से मूम्बई जाने और लौटने के क्रम में अरूण दास ने हमलोगों को मार्गनिर्देशन किया था। लम्बी यात्रा के क्रम में हम एक-दूसरे को अधिक समझ सके थे। अरूण जी की सादगी,वाकपटुता,हास्यचेत,सरलता से हम सभी नेपाली लोग प्रभावित हुए थे। सम्मेलन का आयोजन जिस तरह से बिना किसी वैदेशिक व सरकारी सहयोग, स्वयं कार्यकर्त्ताओ के स्वयंसेवी सहयोग द्वारा सम्पन्न हुआ,सचमुच में प्रेरक था।