उत्तराखंड और छत्तीसगढ के साथ 15 नवंबर 2000 को झारखंड अलग राज्य का गठन हुआ था. अलग राज्य के गठन का मूल उद्देश्य आदिवासियों की विरल संस्कृति और अस्मिता की सुरक्षा और उनके जीवन की भौतिक परिस्थितियों में सुधर लाना था. लेकिन इस उद्देश्य में राजसत्ता बुरी तरह विफल रही है. पिछले 20 वर्षों में, बिहार से अलग झारखंड में सत्ता का एक केंद्र बन गया और उसके इर्द गिर्द रहने वाले लोग मालामाल हो गये. राजनेता, ब्यूरोक्रैट, ठेकेदार और बिचैलियों की चांदी हो गई. लेकिन झारखंडी जनता उसी तरह खस्ताहाल है.

राज्य की बड़ी आबादी अब भी खेती पर निर्भर है, लेकिन सिंचित क्षेत्रा में रत्ती भर इजाफा नहीं हुआ. वन कट रहे हैं और बंजर क्षेत्र का निरंतर विस्तार हो रहा है. नेहरु युग में लगे सार्वजनिक प्रतिष्ठान एक-एक कर बंदी के कगार पर पहुंचते जा रहे हैं. जो चल भी रहे हैं, उनमें कर्मचारियों की संख्या निरंतर कम होती जा रही है और रोजगार का अवसर खत्म हो चुका है. राज्य के अधिकांश पावर प्लांट अब बिजली कम पैदा करते हैं, कचड़े से नदियों को पाटने का काम ज्यादा करने लगे हैं, परिणाम स्वरूप झारखंड की जीवन रेखा समझी जाने वाली सुवर्ण रेखा और दामोदर जैसी नदियां अब गंदी, जहरीली नालों में तब्दील हो चुकी है.औद्योगीकरण को विकास का एक मात्रा रास्ता मानने वाले लोग राज्य में एक भी नया कल कारखाना लगाने में असफल रहे हैं.

औद्योगीकरण के नाम पर वे सिर्फ राज्य की खनिज संपदा और कोल भंडार बेचने के काम में लगे हुए हैं. झारखंड अलग राज्य बनने के बाद सरप्लस बजट बन रहा था जो बाद के वर्षों में जन प्रतिनिधियों के ऐशो आराम पर होने वाले खर्च की वजह से डिफिजिट बजट में बदल गया. योजना मद की राशि गैर योजना मद से कम रहती है और उसमें भी तुर्रा यह कि गैर योजना मद की राशि खर्च हो जाती है और योजना मद की राशि खर्च नहीं हो पाती. और जो खर्च होती भी है उसका बड़ा हिस्सा लूट और कमीशन में निकल जाता है. इसलिए अरबों रुपये खर्च हो जाने के बाद भी राज्य में विकास का कोई चिन्ह नजर नहीं आता. सड़क, पानी बिजली की स्थिति पहले जैसी है. राजधनी रांची से निकलने वाली कुछ सड़कों को छोड़ राज्य की अधिकतर सड़कें खस्ता हाल है.

पूरे राज्य में रांची के रिम्स को छोड़ कर कही भी इलाज की व्यवस्था नहीं. राज्य के किसी भी सरकारी सदर अस्पताल में एक्स रे और आक्सीजन की व्यवस्था नहीं और एमरजंसी सेवा काम नहीं करती है. टीबी, मलेरिया जैसे रोगों ने आदिवासी जमात के बीच स्थाई घर बना लिया है. पहाड़िया, खरिया, बिरहोर, असुर जैसी कई आदिम जनजातियां मिटने के कगार पर पहुंच गई हैं. भ्रष्टाचार चरम पर है. विकास मद की बड़ी राशि हड़प जाने के बाद भी प्रभु वर्ग की हवस कम नहीं हुई है. अब वे राज्य की खनिज संपदा, जमीन, जंगल-पहाड़ बेचने में लगे हुए हैं. और विरोध करने वाली जनता पर बेरहमी से गोली चलाने में उन्हें गुरेज नहीं.

सरकार चाहे यूपीए की हो या फिर एनडीए की, सब की समझ कि औद्योगीकरण से ही होगा राज्य का विकास. बाबूलाल ने मुख्यमंत्री बनने के बाद भू कानूनों में संशोधन का प्रस्ताव रखा. शिबू ने शहरी भू हदबंदी कानून में संशोधन किया, गैर कृषि कार्य के लिए भी जमीन को बंधक रखने का प्रावधन किया. अब तक 74 स्टील फैक्ट्री एवं 24 पावर प्रोजेक्टों सहित 98 एमओयू पर हस्ताक्षर हो चुके हैं जिसके लिए लगभग 2 लाख एकड़ जमीन की जरूरत है. मित्तल को एकमुश्त चाहिए 8000 एकड़, जिंदल को 3000 एकड़. गोयनका, टाटा, भूषण सहित अन्य कंपनियों को भी चाहिए जमीन. रांची-जमशेदपुर राष्ट्रीय मार्ग के दनों तरफ पांच किमी के दायरे में पड़ने वाले भूखंड को अधिग्रहित कर स्पेशल इकोनाॅमिक जोन बनाने की योजना.

अधिसूचित क्षेत्रों में घट रहा है आदिवासी अबादी का अनुपात. कई आदिम जनजातियां मिटने के कगार पर. रोजगार की तलाश में राज्य से आदिवासियों का पलायन. महानगरों में लाखों की संख्या में महरी-आया का काम कर रही हैं आदिवासी लड़कियां. राज्य में आदिवासी आबादी 26 फीसदी के करीब सिमट कर रह गयी है.

आदिवासी संस्कृति पर बौद्धिक और सांस्कृतिक हमला तीव्र है. सत्ता के गर्भनाल से जुड़ा बौद्धिक तबका आदिवासियों के अस्तित्व के संघर्ष को विकास विरोधी संघर्ष करार देने पर तुला है. उनकी नजर में विस्थापन का विरोध करने वाले आदिवासी विकास विरोधी हैं. डोमेसाईल की मूल भावना यह थी कि कम से कम तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के पदों पर झारखंड के आदिवासियों और मूलवासियों की बहाली हो, लेकिन डोमेसाईल आंदोलन को कुछ इस तरह से चित्रित किया गया मानो वह राज्य से बहिरागतो को खदेड़ने का आंदोलन था. हकीकत यह है कि पारा शिक्षक जैसे पदों पर भी बहिरागत काबिज हो गये हैं.

कुल मिला कर झारखंड बन जाने के बाद भी आदिवासी समाज का अस्तित्व इसी बात पर निर्भर करता है कि वे आने वाले दिनों में संघर्ष के लिए किस हद तक तैयार हैं. वे अंग्रेजी साम्राज्यवाद, आंतरिक उपनिवेशवाद से मुकाबला करते हुए यहां तक पहुंचे हैं और इस बार उनका मुकाबला विश्व पूंजीवाद और समाज पर प्रभावी होता उपभोक्तावाद से भी है.

उम्मीद की किरण बन कर आये हैं हेमंत सोरेन. उनका सुस्पष्ट बहुमत भी है विधानसभा में. वे झारखंड की इस खस्ताहाल तस्वीर को बदल सकते हैं. लेकिन यह इस बात पर निर्भर करेगा कि उनकी विकास दृष्टि क्या है.