आदिवासियों के लिए अलग धार्मिक कोड का मामला मजबूती से सामने आया है. हेमंत सोरेन ने विधानसभा के पिछले सत्र में आदिवासियों के लिए अलग ‘सरना आदिवासी धार्मिक कोड’ का प्रस्ताव पारित कर भाजपा और संघ परिवार के दशकों से चले आ रहे उस प्रोपेगंडा को चुनौती दी है जिसमें ‘सरना-सनातन’ को एक कहा जाता है. झारखंड विधानसभा ने लगभग सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेज दिया है और अनुरोध किया है कि जनगणना के फार्म में इसका प्रावधान किया जाये.

आज की तारीख में जनगणना फार्म में अन्य धर्मावलंबियों के धर्म का तो उल्लेख है, लेकिन आदिवासियों के लिए अलग से कोई धार्मिक कोड नहीं. परिणाम यह कि करीबन ग्यारह करोड़ की आबादी होने के बावजूद आदिवासियों का वजूद खोता जा रहा है. इसका एक ठोस प्रमाण यह कि 2011 की जनगणना में आदिवासी जनसंख्या कुल आबादी की 38.03 फीसदी थी, वहीं 2011 की जनगणना में 26.02 फीसदी रह गयी है.

उल्लेखनीय है कि हेमंत सरकार ने अलग धार्मिक कोड का जो प्रस्ताव विधानसभा के पटल पर रखा था, उसमें अलग धार्मिक कोड का नाम आदिवासी/सरना दिया गया था. लेकिन विधायक बंधु तिर्की और भाजपा के विधायकों ने इसे साजिश बताया और इस बात पर जोर दिया कि ‘सरना अथवा आदिवासी’ न लिख कर ‘सरना आदिवासी’ लिखा जाये और सरकार ने इस संशोधन को मान लिया.

हालांकि सरकार की मंशा संभवतः यह रही होगी कि विभिन्न राज्यों में बसे जिन आदिवासियों को सरना शब्द से परहेज हो, वे धर्म के रूप में भी आदिवासी शब्द को स्वीकार कर सकते हैं. हेमंत सोरेन ने सदन में यह बात रखी थी कि छत्तीसगढ़ में एक करोड़ आदिवासी हैं, लेकिन अलग धार्मिक कोड सरना के लिए आंदोलन झारखंड में ही हुआ है. भाजपा ने राजनीति कर सब घोल मट्ठा कर दिया.

दरअसल, हेमंत सोरेन के इस वक्तव्य पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए. उन्होंने सदन में कहा, इसलिए हम मान सकते हैं कि उन्होंने सही जानकारी ही दी होगी, 1871 से 1951 तक की जनगणना में आदिवासियों का अलग धर्म कोड था जिसे 1961-62 की जनगणना में हटा दिया गया. 2011 की जनगणना में 21 राज्यों में रहने वाले लगभग 50 लाख लोगों ने धर्म के कालम में सरना धर्म लिखा. जाहिर है सरना कोड लिखने वालों में बड़ी संख्या झारखंड के आदिवासियों की रही होगी.

धर्म के कालम के लिए आदिवासियों के किसी एक धर्म को ही स्वीकार किया जायेगा. जबकि कई राज्यों के आदिवासी, धर्म कोड के रूप में किसी अन्य नाम की बात उठा सकते हैं. खास कर उन आदिवासीबहुल राज्यों में जहां भाजपा का प्रभाव है. यह सहज रूप में भी हो सकता है और भाजपा की प्रेरणा से अड़ंगा डांलने की नीयत से भी, ताकि आदिवासियों के लिए अलग धार्मिक कोड का मसला विवादों में फंस कर रह जाये.

बात सर्वविदित है कि देश का प्रभु वर्ग खुले मन से देश के भीतर आदिवासियों के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता. भारत में आदिवासियों को ‘अधिसूचित जनजाति’, दलितों को ‘अधिसूचित जाति’ व अन्य गैर सवर्णों को पिछड़ा वर्ग में रखा गया है. अनेक विमुक्त व घुम्मकड़ जातियों को इन तीनों श्रेणियों में या फिर कहीं नहीं रखा गया है.

विभिन्न राज्यों में इन विमुक्त और घुम्मकड़ जातियों को अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है. पौंडीचेरी में उन्हें ‘बैकवर्ड ट्राईब’, तमिलनाडु में ‘एक्सट्रीम बैकवर्ड क्लास’, बिहार में ‘एक्सट्रीमली बैकवर्ड क्लास’, असम में ‘आरीजनल सेटलर’, झारखंड में ‘प्रीमीटिव ट्राईब’ आदि कहा जाता है. यदि इन घुम्मकड़ और विमुक्त जातियों की आबादी को आदिवासी आबादी में सही-सही दर्ज किया जाये तो देश में आदिवासियों की आबादी का अनुपात आज से कहीं ज्यादा होगा.

अब जब समाज के प्रभु वर्ग को, संघ परिवार को आदिवासियों के अस्त्त्वि को स्वीकार करने में ही इतनी दिक्कत होती है, फिर आदिवासियों के लिए अलग धार्मिक कोड को वे स्वीकार करेंगे, इसमें संदेह है. जैसे, आदिवासियों के लिए अलग राज्य के सवाल को उन्होंने भाषा के सवाल में उलझा कर दरकिनार कर दिया, उसी तरह अलग धार्मिक कोड के सवाल को भी उलझाने की कोशिश करेंगे. उनका आदिवासियों के बारे में चला आ रहा स्टैंड यही है कि आदिवासी ‘वनवासी’ हैं और ‘सरना सनातन एक’ है.

जिस तरह अलग झारखंड राज्य के आंदोलन के दबाव में उन्होंने अलग राज्य की मांग ‘वनांचल’ के नाम से स्वीकार कर लिया, ठीक उसी तरह उन्होंने सरना धार्मिक कोड की मांग को भी राज्य में स्वीकार कर लिया है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर संघ परिवार इसमें अडंगा डालने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी. प्रस्ताव में ‘सरना/आदिवासी’ की जगह ‘सरना आदिवासी’ करवा कर उन्होंने पेंच डाल दिया है.