संसद सर्वोच्च है, लेकिन तभी तक, जब तक कि वह जनभावनाओं को साथ लेकर चले. कोई इसका आशय यह लगाये कि चूंकि संसदीय प्रणाली के तहत उसने बहुमत के आधार पर सत्ता हासिल की है, इसलिए वह मनमाने कानून बना सकता है, तो यह गलत होगा, क्योंकि बहुमत तो एक तिहाई जनमत से भी प्राप्त हो जा सकता है. मोदी पहली बार महज 33 फीसदी वोट प्राप्त कर केंद्रीय सत्ता पर काबिज हो गये थे.

जाहिर है कि संसद द्वारा पारित हर कानून सहज स्वीकार्य हो जाये, यह जरूरी नहीं. बहुमत वाली पार्टी की सरकारें इस बात को समझती हैं और समय समय पर पुरानी संसद द्वारा पारित कानूनों में संशोधन भी करती हैं. लेकिन यदि जनता किसी कानून के खिलाफ विरोध पर अमादा हो जाये तो सत्ता के लिए यह नकाबिले बर्दाश्त हो जाता है. जैसा कि कृषि कानूनों के विरोध के संदर्भ में हम देख रहे हैं.

लेकिन निर्वाचित सरकार के खिलाफ विरोध आसान नहीं होता, खासकर तब जबकि सरकार बनाने वाले दल में लोकतंत्र के लिए सम्मान न हो. अब जैसा की हम देख रहे हैं, लाखों किसान दिल्ली बोर्डर पर पिछले दो माहीने से बैठे हैं और सरकार उनकी मांगों को लगातार खारिज करती जा रही है. कृषि मंत्री और सरकारी प्रवक्ताओं का कहना है कि हम कानूनों में हर तरह के संशोधनों के लिए तैयार हैं, लेकिन उन्हें निरस्त नहीं करेंगे. मानों यह निर्वाचित सरकार नहीं कोई पहलवान हो और अपने मोंछ की लड़ाई लड़ रही हो.

सत्ता के इस अहंकार को ग्राम सभाएं ही तोड़ सकती हैं. लेकिन हमारा आशय यकीनी तौर पर खाप पंचायतें नहीं. ग्राम सभाओं से हमारा आशय उन ग्राम सभाओं से हैं जिसको आदिवासियों की स्वशासन परंपरा की ग्राम सभाएं - अखड़ा- प्रतिबिंबित करती हैं. जिसकी कल्पना विकेंद्रित शासन प्रणाली की सबसे निचली ईकाई के रूप में गांधी, जेपी और लोहिया ने की है. आदिवासी क्षेत्रों ने संसद की सर्वोच्चता को हमेशा चुनौती दी है. और इस बार किसान आंदोलन की बुनियाद भी ग्रामीण समाज ही है. वैसे लोग जो कृषि अर्थ व्यवस्था का हिस्सा हैं.

और इस भ्रम में भी हमें नहीं रहना चाहिए कि साधन संपन्न ग्राम सभायें ही सत्ता से लोहा ले सकती हैं. भूमि अधिग्रहण कानूनों के प्रतिकूल संशोधनों को उन आदिवासी ईलाकों की ग्राम सभाओं ने भी चुनौती दी है जहां का समाज पंजाब के किसानों जैसा संपन्न नहीं. नियमगिरि के कंध आदिवासियों की आर्थिक हैसियत पंजाब के किसानों जैसी नहीं, लेकिन उन्होंने दुनियां के एक बड़े कारपोरेट, वेदांता, को चुनौती दी और उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया.

झारखंड में भी कारपोरेट घरानों और सत्ता के मनमाने रवैये के खिलाफ ग्रामीण जनता ने लंबे-लंबे संघर्ष किये और उनकी बुनियाद ग्राम सभाएं ही बनी हैं. चाहे वह तपकारा का संघर्ष हो, ईचा डैम के खिलाफ संघर्ष हो, भूषण के खिलाफ पोटका में चला संघर्ष हो या खूंटी में मित्तल के खिलाफ चला संघर्ष हो. इन संघर्षों की बुनियाद ग्राम सभाएं ही बनी हैं.

इसलिए यदि हमें लोकतंत्र को बचाना है तो ग्राम सभाओं को मजबूत करना ही होगा. संसद की सर्वोच्चता के अहंकार को ग्राम सभाएं ही चुनौती दे सकती हैं.