पांचवीं अनुसूची और विशेष भूमि कानूनों के बावजूद आदिवासी जमीन की लूट धड़ल्ले से चल रही है और इसके लिए उन्हें ही दोषी ठहराना एक फैशन हो गया है. जमीन लुटेरे तो यह कहते ही हैं, आदिवासी समाज के कुछ लोग भी यह कहने से बाज नहीं आते कि इसके लिए वे खुद ज्म्मिेदार हैं. यदि आदिवासी जमीन बेचेगा नही ंतो कोई खरीदेगा कैसे? वह हड़िया पी कर टुन्न रहता है और नशे के लिए कुछ भी कर सकता है.

कुछ लोग नेक सलाह यह देते हैं कि जिसकी जमीन लूटी गयी, वह कोर्ट में जाकर फरियाद क्यों नहीं करता है? यानी, जितनी मुंह उतनी बातें, लेकिन कोई आदिवासी समाज की बेबसी को समझता नहीं और पीड़ित कुछ बोलना नहीं चाहता, क्योंकि वह पूरे सिस्टम की क्रूरता को खूब पहचानता है. आईये आपको दिखाते हैं, आदिवासी क्यों कर अपनी जमीन बेचने को बाध्य हो जाता है. बस आप जरा इस रपट की तस्वीरों को गौर से देखियेगा.

पहली तस्वीर एक आवासीय कालोनी के नाले की है. पूरी कालोनी का नाला इसी तरह निकलता है और बेतरतीब बहता आस पास के खेतों तक पहुंचता है. दूसरी तस्वीर उसी नाले के आगे की है जो देखने में पतली तो है लेकिन निरंतर अविरल गति से बहती रहती है. तीसरी तस्वीर मेे वे खेत दिख रहे हैं जो बर्बाद हो रहे हैं. लगातार आवासी कालोनी के रिसते पानी और कचड़े से वह बर्बाद हो रहा है. आप कहेंगे, जिनके खेतों में यह बह रहा है, वह विरोध क्यों नहीं करता?

वह विरोध करता है. शुरुआती दौर में थोड़ा लड़ता भी है. लेकिन वह अपने सामने एक शक्तिशाली समूह और उसके पीछे प्रशासन-पुलिस को खड़े पाता है. उसके खेत की अर्वरा शक्ति खत्म हो जाती है. वह आजीज आ कर खेती से बेजार हो जाता है. और फिर किसी दिन उसे एक दलाल, बिचैलिया आकर बताता है कि इस जमीन को बेच दो. ऐसे भी बर्बाद हो रहे हैं. कुछ पैसे तो मिल जायेंगे?

वह हिचकिचाता है. क्योंकि इतनी जानकारी उसे रहती है कि उसकी जमीन भुईहारी है. उसकी रजिस्ट्री किसी और के नाम से नहीं हो सकती. तब दलाल यह जिम्मेदारी लेता है. बस उसे यह सलाह देता है कि खेती करना बंद कर दो. वह उसके हाथ में कुछ पैसे भी देता है. अमूमन कुल अनुमानित कीमत का पांच से दस फीसदी. कांके रोड के आस पास की जमीन अमूमन तीन लाख रुपये डिसमल बिकती है. तो, 15 से 30 हजार तक की राशि. शेष राशि किश्तवार देने की बात होती है. यानि ग्राहक मिलने, सौदा होने से रजिस्ट्री होने तक. रजिस्ट्री कैसे होती है आदिवासी जमीन की, यह तो रजिस्ट्रार और वहां के दलाल ही बता सकते हैं.

लेकिन जमीन उसी तरह साल छह महीने पड़ी रहती है. फिर किसी दिन एक बाउंडरी खड़ी हो जाती है. एक एसब्रेस्टस का कमरा बन जाता है. फिर एक दो कमरे और फिर एक दिन कोई बड़ा सा मकान. और साथ ही रजिस्ट्री की प्रक्रिया चलती रहती है. उस दौरान बेचारा आदिवासी दलाल के पीछे दौड़ता रहता है. अपनी ही बिकी जमीन पर दूसरे का मकान बनाने में मजदूर के रूप में लगा रहता है. और देखते-देखते वहां एक कालोनी खड़ी हो जाती है. दस बीस मकानों का बेतरतीब मोहल्ला. या फिर कोई विशाल अपार्टमेंट. नगर निगम उनकी मदद करता है. बिना जमीन के कागजात, नक्शा आदि देखे बिजली लाईन, पानी लाईन दे देता है. एक अवैध कालोनी वैध हो जाती है.

वैसे, उस आदिवासी के पास उस वक्त भी यह विकल्प रहता है कि वह मुकदमा दायर कर उस फर्जी रजिस्ट्री को रद्द करवा दे. लेकिन यह एक लंबी प्रक्रिया है और इसमें सत्ता के तमाम संस्थान उसके खिलाफ ही होते हैं. बहुधा तो वह करता ही नहीं, क्योंकि वह इस बात की नैतिकता को समझता है कि जमीन को तो उसने खुद ही बेची है, भले ही किसी भी लाचारी में. और यदि कोई मामला कोर्ट तक पहुंचता भी है तो उसे कुछ खास हासिल नहीं होता. पंचवटी प्लाजा की कहानी सभी जानते हैं.

यह कहानी पूरे कांके रोड और डैम साईड की है जिसकी अधिकांश जमीन मुंडाओ, उरांवो की है. जिनकी रजिस्ट्री किसी गैर आदिवासी को हो ही नहीं सकती. फिर देख आईये उस इलाके में घूम कर. वहां असंख्य घर कैसे बन रहे हैं. क्या कोई अदालत इस तथ्य को जानने के बाद भी कि पूरी कालोनी ही जमीन की लूट पर खड़ी है, उसके डोजरिंग का आदेश दे सकता है? यह एक असंभव कल्पना है.

हुआ न आदिवासी ही अपनी जमीन के लूट के लिए जिम्मेदार?