यह हमारी बस्ती की मुन्नी है. मुन्नी मुंडा. पिछले वर्ष इसका विवाह करीब के ही एक गांव में हुआ. हाल में वह लौटी तो उसकी गोद में एक नन्हा मुन्ना था. मेरा इस घर से स्नेह संबंध है. मिलने गया. बच्चे को प्यार किया. पूछा नाम क्या रखोगी? उसका जवाब था ‘प्रिंस’.

वही मौजूद घर के एक बुजुर्ग ने कहा - नहीं, नाम वीर सिंह रखेंगे या करमा मुंडा. लेकिन मुन्नी को पसंद नहीं. पता नहीं उसने उस बालक का नाम क्या रखा. लेकिन मैं देख रहा हूं कि शहर के बीच बसे आदिवासी बस्तियों, गांवों में बच्चों के नाम तेजी से बदल रहे हैं. देशज ध्वनि पैदा करने वाले नामों की जगह संस्कृत निष्ठ नामों का प्रचलन बढ़ता जा रहा है. श्रेया, हर्ष, रौशन, नितीश, सोनाक्षी, मीनाक्षी, दिव्या, प्रीतीश आदि, आदि.

सवाल उठता है कि इसमें बुरा क्या है?

नामों के पीछे भौगोलिक सीमा, परिवेश, सांस्कृतिक विरासत आदि छुपा होता है. मेरा भाषा ज्ञान बहुत ज्यादा नहीं, लेकिन नामों से सिर्फ व्यक्ति नहीं, कभी देश की भी पहचान होती थी. धर्म और समुदाय की भी. अस्मिता बोध का प्रतिनिधित्व करते हैं नाम विशेष. नाम हमारी पहचान है. न सिर्फ देशों की भिन्नता नामों में परिलक्षित होती है, बल्कि एक देश के भीतर के अलग-अलग इलाकों के लोगों के नामों में भिन्नता होती है. दक्षिण और उत्तर भारत के लोगों के नामों में स्पष्ट अंतर दिखेगा.

अब यदि हम जाति, धर्म, नस्ल के भेदभाव को पाटना चाहते हैं तो क्या इस तरह के काॅमन नाम नहीं रखे जा सकते?

लेकिन पता नहीं क्यों, मुझे इस बात का खतरा लगता है कि देशज नामों के साथ अलग-अलग समुदायों का पूरा वजूद, उनकी संस्कृति, विशिष्ट पहचान ही न गुम हो जाये.

सवाल यह भी उठता है कि आदिवासियों की नयी पीढ़ी को अपने पुराने नाम क्यों पसंद नहीं. क्या यह टीवी चैनलों पर चल रहे सीरियलों का परिणाम है? या इसके पीछे हीनता का तीखा बोध. क्योंकि ‘शब्द तो मिट्टी के घड़े हैं.’ नामों में रूप, रंग और आव तो हमारा अपना व्यक्तित्व भरता है.

अब वजह जो भी हो. लगता है कि जैसे आदिवासी संस्कृति खतरे में है, वैसे ही आदिवासी देशज नाम भी. बुधनी, सोमारी, बिरसा, करमा जैसे नाम अतीत की वस्तु हो जायेंगे.