मध्य प्रदेश के एक गांव में एक आदमी अपनी पत्नी का आधार कार्ड लेकर एक पेड़ पर जा बैठता है. क्योंकि उसकी पत्नी गांव में कोरोना के टीकाकरण शिविर में जा कर टीका लगवाना चाहती थी. लेकिन वह आदमी न खुद लगवा रहा था, न अपनी पत्नी को टीका लगाने देना चाहता था.

यह एक बहुत ही छोटी और हास्यास्पद घटना लग सकती है. लेकिन यह एक बहुत बड़ी सच्चाई को भी बताती है. औरत मर्द के बीच बहुत सारी विषमताओं में प्रमुख है स्त्री को किसी भी विषय में निर्णय लेने की आजादी न मिलना. यहां तक कि वह अपने शरीर तथा स्वास्थ के संबंध में भी कोई निर्णय नहीं ले सकती है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ सर्वेक्षण के पांचवे संस्करण में जब यह पाया गया कि कोरोना टीकाकरण में पुरुष की तुलना में कम स्त्रियों का टीकाकरण हो रहा है तो इसके कारणों का पता लगाया गया. सर्वेक्षण में पता चला कि लगभग 36 फीसदी महिलाओं ने कहाकि उनके स्वास्थ के संबंध में उनके पति ही निर्णय लेते हैं. जबकि केवल 5.2 फीसदी महिलाओं ने कहा िकवे अपने स्वास्थ की देखभाल खुद ही करती हैं.

इस सर्वेक्षण को 20 राज्यों में किया गया, क्योंकि उनके पास विश्वसनीय आंकड़े थे. आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना के सरकारी आंकड़ों में विश्वसनीयता नहीं होने के कारण उन्हें सर्वेक्षण में शामिल नहीं किया गया.

प्रति एक हजार टीकों में पुरुष तथा स्त्री का प्रतिशत देखा गया तो उसमें अंतर पाया गया और यह अंतर समय के साथ बढ़ता भी गया. जबकि सरकार का दावा है कि टीकाकरण अपना रफ्तार पकड़ चुका है. मई 1 तारीख को एक हजार बालिग पुरुषों में 138 पुरुषों को कम से कम एक टीका लग चुका था, जबकि उसी समय मात्र 131 बालिग महिलाओं को टीका लगा था. यहां अंतर 7 की है. जून 1 को 191 पुरुषों को टीका लगा तो 172 स्त्रियों को टीका लगा. अंतर बढ़ कर 19 हो गया. जुलाई 4 को 1000 में 390 पुरुष तथा 349 स्त्रियों को टीके लगे. अंतर बढ़ कर 41 का हो गया.

सबसे कम अंतर हिमाचल प्रदेश में देखा गया जबकि सबसे ज्यादा अंतर जम्मू कश्मीर में पाया गया. 15 राज्यों में से 10 राज्यों की अषिकांश महिलाओं ने कहा है कि अपने स्वास्थ में निर्णय लेने की जिम्मेदारी अपने पतियों पर ही छोड़ देती हैं. इसमें उनकी आत्मनिर्भरता की कमी या डर है, यह स्पष्ट नहीं हैं. बंगलोर और तमिलनाडु जैसे राज्यों में अधिंकांश लोगों ने मिल जुल कर स्वास्थ के संबंध में निर्णय लेने की बात कही है.