दंड संहिता कानून 2022 को दोनों सदनों ने पास कर दिया है. वास्तव में यह 1920 में अंग्रेजों द्वारा बनाया गया कानून था जिसमें घोषित अपराधी के हाथ, पैर की उंगलियों के चिन्ह पहचान के रूप में लिये जाते थे. समय समय पर इस प्रक्रिया में बदलाव की मांग होती रही है. 1980 में विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इसमें बदलाव का सुझाव दिया था. इसी तरह उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राम बाबू मिश्रा के केस में अपराधी पहचान की प्रक्रिया संबंधी सुझाव उच्चतम न्यायालय ने भी दिया था. अब वर्तमान सरकार ने इस कानून में तीन बातें जोड़ कर इसे विस्तार दिया है.

इसका विरोध लोकसभा के अंदर तथा बाहर हो रहा है. विरोधी दल इसे सामान्य लोगों की निजता का हनन बता रहे हैं. कानूनविदों का कहना है कि राज्य ने इस कानून की आड़ में अपनी निगरानी का दायरा बढ़ाया है और इस तरह लोगों की निजता के अधिकार पर प्रहार किया है.

इस कानून की तीन मुख्य बातंे इस प्रकार हैं.

पहला, अपराधी के पहचान के लिए हाथ-पैर की उंगलियां ही नहीं, चेहरे की पहचान को भी शामिल किया गया है. आंख की पुतली और रेटिना का भी चित्र लिया जायेगा और इन सारे पहचान चिन्हों का विश्लेषण भी किया जायेगा. इस विश्लेषण में आदमी के व्यवहार और हस्ताक्षर को भी शामिल किया गया है. लेकिन यह सब इतना अस्पष्ट लिखा गया है कि इसे कानून के हिसाब से सटीक नहीं माना जा रहा है. ऐसा लग रहा है कि लोगों की पहचान के लिए चिन्ह एकत्र किये जा रहे हैं. इस तरह कानून की आड़ में लोगों के बारे में ज्यादा से ज्यादा आंकड़े एकत्र करने का बहाना मिल गया है.

इस कानून विस्तार की दूसरी मुख्य बात यह है कि इसके द्वारा पुलिस तथा जेल अधिकारियों के अधिकार बढ़ा दिये गये है. पुलिस शंका के आधार पर अपराधी को गिरफ्तार करती है. इस नये कानून के अनुसार अपराधी घाषित होने के पहले ही उसके सारे पहचान चिन्हों को एकत्रित कर सकती है. जैसे ट्रैफिक नियमों को तोड़ गाड़ी चलाते हुए पकड़ा गया आदमी या किसी जुलूस में विरोधी पार्टी का कोई नेता पकड़ा जाये तो पुलिस उससे सारे पहचान चिन्हों को ले सकती है.

यहां पर इस बात का भी उल्लेख है कि कोई व्यक्ति अपनी शारीरिक पहचान देने से इंकार भी कर सकता है. लेकिन यह बात इतने अस्पष्ट रूप से लिखी गयी है कि इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि व्यक्ति के इंकार के बावजूद भी पुलिस पहचानों को ले सकती है.

इस कानून की तीसरी बात यह है कि गिरफ्तार व्यक्ति के शरीर तथा चेहरे के पहचान चिन्हों को एनसीआरबी 75 वर्षांे तक डिजिटल रूप में सुरक्षित रखेगी और कानून व्यवस्था को बनाये रखने वाले जितने विभाग हैं, उनको जरूरत के हिसाब से उन चिन्हों को उपलब्ध करायेगी. इसका अर्थ यह हुआ कि यदि कोई व्यक्ति एक बार पुलिस की गिरफ्त में आ जाये तो निरपराधी घोषित होने के बावजूद उसके शरीर और चेहरे के पहचान चिन्ह एनसीआरबी के पास जीवन पर्यन्त रहेंगे.

यद्यपि यह भी कहा गया है कि निरपराधी सिद्ध होने के बाद पहचान चिन्हों को रिकार्ड से हटा दिया जायेगा. सोचने वाली बात यह है कि एनसीआरबी जैसे केंद्रीकृत आंकड़ों के विभाग से यह कैसे संभव होगा. इसके बारे में भी कोई स्पष्ट नीति का उल्लेख नहीं है. ताकतवर तथा नामी व्यक्ति के लिए तो यह संभव भी हो सकता है लेकिन आये दिन गलतफहमी में पकड़े जा रहे आम लोग या गरीब आदिवासी जो सामाजिक तथा आर्थिक रूप से कमजोर हैं, उनके लिए निर्दोष साबित होने के बावजूद भी यह असंभव है. जरूरत पड़ने पर पुलिस ऐसे लोगों को अपराधी बना कर फिर से पकड़ भी सकती है.